(पिछला भाग)
इस वीडियो में ज़्यादा आपत्तिजनक तो कुछ नहीं है मगर नया भी कुछ नहीं है। दुनिया-भर में, भारत में भी पत्र-पत्रिकाओं, इंटरनेट की बहसों और टीवी सीरियलों में पिछले कई सालों से ये बातें कही जा रहीं हैं और इस वीडियो से बेहतर ढंग से कही जा रहीं हैं। इस वीडियो का सबसे कमज़ोर पहलू यह है कि इतने गंभीर और जटिल मुद्दे पर कहीं भी तर्क देने की कोई ज़रुरत ही नहीं समझी गई है। बल्कि पुराने ब्राहमणवादी अंदाज़ में घोषणाएं की गईं हैं। इतने ख़र्चे और इतनी तैयारी के साथ थोड़ा ध्यान ‘रीज़निंग’ पर भी दिया गया होता तो वीडियो का प्रभाव शायद कुछ और होता। इसे देखते हुए, अनायास ही चीची गोविंदा का पुराना हिट गीत ‘मेरी मर्ज़ी’ बार-बार याद आता रहा।
अंततः जब दीपिका कहतीं हैं कि ‘आय एम द यूनिवर्स....’ तो यह वीडियो पूरी तरह ब्राहमणवादी अमूर्त्तन को टक्कर देने लगता है और डर लगने लगता है कि इतने सारे मर्द-भगवानों के बोझ-तले करा रहे भारत को क्या अब कुछ नयी स्त्री-भगवानों को भी झेलने की तैयारी कर लेनी चाहिए। चाहे सचिन तेंदुलकर हों, भारत का तथाकथित ‘सबसे अक़्लमंद बच्चा’ कौटिल्य हो या कार्टूनिस्ट त्रिवेदी हों, अपने लोगों को तुरत-फ़ुरत आयकन या भगवान बना देने का ब्राहमणवाद का यह शौक़ भारतीयों को बहुत भारी पड़ता रहा है। यूं भी पिछले काफ़ी समय से यह देखने में आ रहा है कि फ़िल्मइंडस्ट्री बदलाव के आगे कम और पीछे ज़्यादा चलती है। और अपने आर्थिक पक्ष का ख़ास ख़्याल रखती है।
शादी से पहले, शादी के समानांतर या शादी के बाद यौन-संबंध बनाने का हक़ किसीको भी हो सकता है, मगर भारतीय शादी का काँसेप्ट चूंकि अलग तरह का है इसलिए ये बातें प्रेमसंबंधों के दौरान या अरेंज्ड् मेरिज में रिश्ता तय करते समय साफ़ कर ली जाएं तो बेहतर होगा। वरना अब तक भारतीय शादी को लेकर जो मान्यताएं और धारणाएं रहीं हैं, उनके चलते किसीको भी ऐसे संबंधों पर आपत्ति और कष्ट हो सकता है। और उस आपत्ति और कष्ट को नाजायज़ कतई नहीं कहा जा सकता।
इसमें कोई शक़ नहीं कि पुरुष भी अब तक ऐसी हरक़तें बिना बताए करते आए हैं मगर बेहतर तो यही होगा कि पिछली भूलों से सबक लेकर आगे जो रास्ते बनाए जाएं वो पहले की तरह उलझे हुए, भ्रमित करनेवाले, कन्फ़्यूज़ करनेवाले न हों बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा स्पष्ट, साफ़-संुथरे और पारदर्शी हों।
(जारी)
07-04-2015
(अगला भाग)
इस वीडियो में ज़्यादा आपत्तिजनक तो कुछ नहीं है मगर नया भी कुछ नहीं है। दुनिया-भर में, भारत में भी पत्र-पत्रिकाओं, इंटरनेट की बहसों और टीवी सीरियलों में पिछले कई सालों से ये बातें कही जा रहीं हैं और इस वीडियो से बेहतर ढंग से कही जा रहीं हैं। इस वीडियो का सबसे कमज़ोर पहलू यह है कि इतने गंभीर और जटिल मुद्दे पर कहीं भी तर्क देने की कोई ज़रुरत ही नहीं समझी गई है। बल्कि पुराने ब्राहमणवादी अंदाज़ में घोषणाएं की गईं हैं। इतने ख़र्चे और इतनी तैयारी के साथ थोड़ा ध्यान ‘रीज़निंग’ पर भी दिया गया होता तो वीडियो का प्रभाव शायद कुछ और होता। इसे देखते हुए, अनायास ही चीची गोविंदा का पुराना हिट गीत ‘मेरी मर्ज़ी’ बार-बार याद आता रहा।
अंततः जब दीपिका कहतीं हैं कि ‘आय एम द यूनिवर्स....’ तो यह वीडियो पूरी तरह ब्राहमणवादी अमूर्त्तन को टक्कर देने लगता है और डर लगने लगता है कि इतने सारे मर्द-भगवानों के बोझ-तले करा रहे भारत को क्या अब कुछ नयी स्त्री-भगवानों को भी झेलने की तैयारी कर लेनी चाहिए। चाहे सचिन तेंदुलकर हों, भारत का तथाकथित ‘सबसे अक़्लमंद बच्चा’ कौटिल्य हो या कार्टूनिस्ट त्रिवेदी हों, अपने लोगों को तुरत-फ़ुरत आयकन या भगवान बना देने का ब्राहमणवाद का यह शौक़ भारतीयों को बहुत भारी पड़ता रहा है। यूं भी पिछले काफ़ी समय से यह देखने में आ रहा है कि फ़िल्मइंडस्ट्री बदलाव के आगे कम और पीछे ज़्यादा चलती है। और अपने आर्थिक पक्ष का ख़ास ख़्याल रखती है।
शादी से पहले, शादी के समानांतर या शादी के बाद यौन-संबंध बनाने का हक़ किसीको भी हो सकता है, मगर भारतीय शादी का काँसेप्ट चूंकि अलग तरह का है इसलिए ये बातें प्रेमसंबंधों के दौरान या अरेंज्ड् मेरिज में रिश्ता तय करते समय साफ़ कर ली जाएं तो बेहतर होगा। वरना अब तक भारतीय शादी को लेकर जो मान्यताएं और धारणाएं रहीं हैं, उनके चलते किसीको भी ऐसे संबंधों पर आपत्ति और कष्ट हो सकता है। और उस आपत्ति और कष्ट को नाजायज़ कतई नहीं कहा जा सकता।
इसमें कोई शक़ नहीं कि पुरुष भी अब तक ऐसी हरक़तें बिना बताए करते आए हैं मगर बेहतर तो यही होगा कि पिछली भूलों से सबक लेकर आगे जो रास्ते बनाए जाएं वो पहले की तरह उलझे हुए, भ्रमित करनेवाले, कन्फ़्यूज़ करनेवाले न हों बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा स्पष्ट, साफ़-संुथरे और पारदर्शी हों।
(जारी)
07-04-2015
(अगला भाग)
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रुके-रुके से क़दम....रुक के बार-बार चले...