19 सित॰ 2013

यहां हर कोई नहीं पहुंच सकता


‘आपका मेल मिला, मैं आपकी हर मुहिम में आपके साथ हूं।’
‘चलिए, किसीने तो जवाब दिया।’
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‘यह तसवीर कैसी लगा रखी है आपने?’
‘क्यों ठीक नहीं है क्या?’
‘नहीं, नहीं, बहुत गोरे हो रहे हैं आप तो।
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‘आपकी क़िताब तो आई नहीं अभी तक। जल्दी भेजिए...’
‘अरे, आप तो.....थोड़ा धैर्य रखा करें। अभी कोरियर कराके ही आ रहा हूं, रास्ते में ही हूं...’
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‘हमारे बड़े नेताजी का निधन हो गया है, आप इसपर कमेंट डालिए...
‘मैं क्यों डालूं ? नेता जी आपके हैं, मुझे क्या लेना ?’
‘तो फ़िर मैं आपको ब्लॉक......’
‘ज़रुर कीजिए, आपका तो रोज़ का काम है.....’
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‘आज शाम कुछ आतंकवादी जेल से भाग गए हैं, सज़ा पूरी होने में दो-चार दिन ही बाक़ी थे। ज़रुर कोई साजिश है। आप मेरे वॉल पे कमेंट करें....’
‘अरे मैं अभी सोकर उठा हूं, पहले ख़बर तो देख लूं ठीक से....
‘अरे, मैं क्या झूठ बोल रही हूं, टिप्पणी कीजिए......’
‘ठीक है, अभी एक वंचित वर्ग की महिला के साथ बलात्कार हो गया है, पहले आप उसपर टिप्पणी कीजिए.......’
‘हैं!’
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‘क़िताब मिल गई आपकी, यह क्या लिखा है आपने, क्या समीक्षा करवानी है...........
‘आप क्या कोई समीक्षक हैं! अरे ये आपका हौसला बढ़ाने के लिए है....’
‘क्यों, हमें क्या हौसले की कमी है?’
‘अरे, पहले ही दिन से क्या-क्या दुखड़े तो सुना रखे हैं आपने अपने......नहीं ठीक लगा तो मिटा दीजिए......’
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‘एक साहब लेखकों की डायरेक्ट्री निकाल रहे हैं, मेरा बायोडाटा इंग्लिश में है, आप हिंदी कर देंगे?’
‘भेज दीजिए, देखके बताऊंगा।
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‘यह तो बहुत लंबा है, एक पेज़ का मैटर बता दीजिए, कर दूंगा।’
‘एक पेज का....अच्छा मैं बता.....
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‘तीन दिन हो गए आपने बताया नहीं कुछ ?’
‘अभी टाइम नहीं है मेरे पास....’
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‘10 दिन हो गए आपने ट्रांसलेशन नहीं किया। अब उनका फ़ोन आ रहा है, बायोडाटा जल्दी भिजवाएं, अब मैं क्या करुं?’
‘मैंने तो आपसे रोज़ पूछा, आपने बताया ही नहीं, कौन-सा पोर्शन करना है?’
‘आप अपनी क़ाहिली को छुपा रहे हैं.....
‘देखिए, मुझसे आप यह ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ वाली हरकत मत कीजिएगा....मैं उस तरह का आदमी नहीं हूं.......’
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‘आए दिन आप ब्लॉक करते हो, आए दिन फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजते हो, यह क्या नाटक है?’
‘मैंने कब भेजी? आपको यूंही लग रहा है!’
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‘आज फ़िर आपने यह लिंक भेज दिया। मैं भेज देता तो सुनने को मिलता कि अश्लील गाने भेजते हो!’
‘किसने भेजा, मैंने तो नहीं भेजा!’
‘कमाल है, आपको झूठ बोलने में महारत हासिल है या कोई मानसिक समस्या है?
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‘कविताएं नहीं भेजी आपने, प्लीज़ भेज दीजिए, बिलाल साहब रोज़ाना फ़ोन कर रहे हैं।’
‘अरे मेरी कोई रुचि अब रह नहीं गई है भेजा-भाजी में!’
‘मेरी ख़ातिर भेज दीजिए।’
‘अच्छा देखता हूं, मन हुआ तो आपको ही भेज दूंगा।’
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‘आज भी नहीं आईं आपकी कविताएं ; हमने तो पहले ही कहा था कि आप बीच रास्ते ही हमें छोड़ जाएंगे।’
‘छोड़ जाएंगे!? आपने तो हमेशा प्रगतिशील दिखाया है ख़ुदको! फ़िर यह छोड़ना
-पकड़ना कहां से आ गया ?’
‘अच्छा, आप कविताएं तो भेज दीजिए।’
‘भेज दी हैं।’
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‘आप ढूंढके दिखाईए हमें ; यहां हर कोई नहीं पहुंच सकता।’
‘देखिए इस तरह की पैंतरेबाज़ी में मैं यक़ीन नहीं रखता। अगर आपको मुझे बुलाना ही है तो सीधा कहिए। मैं आ जाऊंगा। बार-बार इस तरह की बातें न किया करें।’
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‘मन नहीं लग रहा आज...’
‘तो थाईलैंड में चले जाईए......’
‘मतलब..!?’
‘...............’
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‘फ़लां साहब शादी के पीछे पड़े हैं, हैंडसम हैं, अच्छा ख़ानदान है, जल्दी मचा रहे हैं....’
‘तो कर लीजिए। इसमें मुझे बताने की क्या बात है!? आपका पर्सनल मामला है। पूछना ही है तो अपने साहब से पूछिए.....’
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19-09-2013

(जारी)

(लिखी जा रही कहानी से कुछ अंश)

14 सित॰ 2013

काश! यह रात कभी ख़त्म न हो!


वह बिस्तर में पड़ा है, आंखें बंद हैं।

आंखें बंद कर लेने से क्या नींद आ जाती है ? रात किस वक्त आंख लगती है, कितना वक्त नींद आती है, कुछ समझ में नहीं आता। बस सुबह मन होता है कि सोया रहे, अभी तो नींद आनी शुरु ही हुई थी और......। यूं भी कोई चुस्ती-फुर्ती उसे अपने बदन में महसूस नहीं होती, फ़िर सुबह-सुबह तो बिलकुल ही थका-थका सा महसूस करता है ख़ुदको।

उठे भी तो किसलिए ?

जैसे-तैसे तैयार होकर स्कूल के लिए निकलेगा। सारे रास्ते आंखें नीची किए, सर झुकाए चलेगा। चलेगा कि घिसटेगा ! मौसम कैसा भी हो, हाथ-पांव पसीने से भरे रहेंगे। रास्ते में कहीं कोई कुत्ता दिख गया तो वह डरेगा, भौंक पड़ा तो बुरी तरह डर जाएगा। लड़कों का कोई झुण्ड दिख गया तो डरेगा, कहीं किसीसे नज़र न मिल जाए। पता नहीं कोई क्या कह दे, कोई ग़ाली न दे दे, कोई अजीब-सा इशारा न कर दे। स्कूल पहुंचेगा तो डरेगा कि कहीं कोई टीचर प्रेयर पढ़नेवाले तीन बच्चों में खड़ा न कर दे। कहीं अपनी क्लास की लाइन में आगे न खड़ा होना पड़ जाए। पीछे भी खड़ा है तो घबराया है कि कोई देख न ले कि वह प्रेयर नहीं बोल रहा है। बोलना तो दूर, उसके होंठ भी ठीक से नहीं हिल रहे।

फ़िर क्लास में!

किसी टीचर ने कुछ पूछ लिया तो ! उसे आता है कि नहीं आता, यह बड़ा सवाल नहीं है। मुश्क़िल यह है कि बोलेगा कैसे ? मुंह से आवाज़ निकलेगी कि अंदर ही कहीं फ़ंसी रह जाएगी !

आज तीसरा घंटा ख़ाली है। गणित वाले मास्साब नहीं आए हैं। सब बच्चे ख़ुश हैं। वे चिल्ला रहे हैं, कूद-फांद मचा रहे हैं। वह भी ख़ुश है। आज मास्साब का डर नहीं है। मगर अब एक नया डर उसके सामने है-बच्चों का डर।

ननुआ उसका हाथ मरोड़ेगा, वह कुछ भी नहीं कर पाएगा, बस कुनमुनाता रहेगा।

वह दादा टाइप लड़की आज फ़िर उसे धमकाकर उससे चॉक छीन लेगी। वह चुपचाप दे देगा।

हाफ़टैम (हाफ़टाइम/इंटरवल) में दूसरे बच्चों की तरह ही वह खाना खाने घर आएगा। और जब लौटकर वापिस जाएगा तो देखेगा, बस्ते में से उसका पैन ग़ायब है। आए दिन कोई उसका पैन चुरा लेता है, फ़िर भी आए दिन वह पैन बस्ते में ही छोड़कर खाना खाने चला जाता है।

स्कूल जाने के बाद पहले घंटे से आखि़री घंटे तक उसका एक-एक पल जैसे इसी इंतज़ार में बीतता है कि कब घंटा ख़त्म होगा, कब इंटरवल होगा, कब छुट्टी होगी।

छुट्टी होगी तो उसकी जान में ज़रा-सी जान आएगी।

खाना-वाना खाकर उसे नया पैन ख़रीदने भी जाना है। पैन के लिए मौक़ा देखकर माताजी या पापाजी के बक्से में से एक या दो रुपए, जो भी मिलें, निकाल लेने हैं। स्टोर में अकेले जाने में जान निकलती है। न जाने क्या-क्या सामान पड़ा है वहां। लाइट जलाई तो कोई देख लेगा। यूंही घुसा तो उसकी घबराहट अंधेरे को और घना कर देगी। पर पैसे तो निकालने हैं। बिना पैन के कल स्कूल कैसे जाएगा ?

पापाजी-माताजी को बताए क्या ? बताने से होगा क्या ? वे तो यही कहेंगे कि ‘होशियार बनते हैं ; ऐसे कैसे कोई पैन चुरा लेता है’। डांट भी सकते हैं कि ‘फ़लां लड़के को देख कितना तेज है, उससे कुछ सीख’। सरल के पास इन बातों का कोई जवाब नहीं है। यह उसे भी मालूम है कि होशियार होना चाहिए, तेज होना चाहिए। पर वह इसका क्या करे कि लाख सोचते रहने के बावजूद वह कोई कोशिश तक नहीं कर पाता!

वह डरता हुआ नमन की दुकान तक जाएगा, क्योंकि उसे मालूम है कि वहां भीड़ लगी होगी। सारे बच्चे और उनके मां-बाप कापी-पैन ख़रीदने वहीं आते हैं। वहां जाकर भीड़ के पीछे खड़ा हो जाएगा। फिर इंतज़ार करता रहेगा कि कब नमन की नज़र उसपर पड़ जाए और वह उससे पूछे कि हां, तुझे क्या चाहिए ? वह परेशान है कि आखि़र कब नमन की नज़र उसपर पड़ेगी और कब वह उससे पूछेगा! वह डर भी रहा है कि कहीं नमन की नज़र उसपर न पड़ जाए और वह उससे पूछ न ले! अगर पूछ लिया तो क्या वह तुरंत बता पाएगा कि उसे क्या चाहिए ? क्या उसकी आवाज़ नमन तक पहुंचेगी ? कहीं नमन उसकी हंसी तो नहीं उड़ाएगा कि तेरे मुंह में आवाज़ नहीं है? तू लड़की है क्या ?

वह डरा हुआ खड़ा है। एक डर उसे यह भी है कि कोई जान-पहचान वाला न यहां आ जाए और यह न देख ले कि वह डरा हुआ खड़ा है।

दिन इसी तरह निकलता है।

रात को बिस्तर में घुसता है तो आधी रात यही कामना करते बीतती है कि वक्त किसी तरह यहीं ठहर जाए। काश! यह रात कभी ख़त्म न हो!

(जारी)

14-09-2013

5 सित॰ 2013

पापई की शराफ़त भी आफ़त है!

पापाजी कभी-कभी हंसते हैं। अकसर गंभीर दिखाई देते हैं। दिखाई भी कितना देते हैं ! हमेशा तो बिज़ी रहते हैं।

पहले तो सभी कमरों में बल्ब लगे थे जो पीली-पीली रोशनी देते थे। एक-एक करके पापाजी ने सभी कमरों में ट्यूबलाइट लगवा दीं हैं। ट्यूबलाइट, स्विच ऑन करते ही बल्ब की तरह तुरंत नहीं जलती ; पहले फ़ड़फ़ड़ाती है। ज़्यादा देर फ़ड़फ़ड़ाए तो डर लगता है, आज जलेगी कि नहीं, वोल्टेज पूरे आ रहे हैं कि नहीं ! जल जाती है तो कितना अच्छा लगता है। अब कुछ भी काम करो, करने में मन लगेगा, मज़ा आएगा।

पापाजी हंसते हैं तो घर रोशनी से भर जाता है। सब भाई-बहिनों के दिल में जैसे लट्टू जलने लगते हैं। पापाजी कितने अच्छे हैं ! शराब नहीं पीते! सिगरेट नहीं पीते! ग़ाली नहीं बकते! किसीसे लड़ते नहीं। सफ़ेद कमीज़ और सफ़ेद पाजामा। हंसते हैं तो पता चलता है कि दांत उनसे भी ज़्यादा सफ़ेद हैं। शरीर इकहरा है और पेट एकदम सपाट है। और हो भी क्यों नहीं। कितना तो पैदल चलते हैं पूरा दिन। सुबह पांच बजे उठते हैं। बही-खाता लिखते रहते हैं। फ़िर दूध लाना, सब्ज़ी लाना..........दुनिया-भरके काम......दुकान पर जाना, ज़रुरत हो तो दोपहर में फ़िर घर आना...फ़िर जाना....रात को आना...खाना खाना....पौने नौ बजे के समाचार सुनना...और फ़िर बही-खाता.....पापाजी बस मेहनत, मेहनत, मेहनत, काम, काम और काम करते रहते हैं...फ़िल्म देखने भी नहीं जाते कभी। हां, किसीके घर शादी हो..... कोई मर गया हो.... कैसा भी अवसर हो, पापाजी की ज़रा भी जान-पहचान रही हो और पापाजी वहां न जाएं, हो ही नहीं सकता।

पापाजी जब पौने नौ के समाचार सुनते हैं तो सारे बच्चों को पता है कि अब बिलकुल भी नहीं बोलना। ज़रा कोई बोला नहीं कि ऐसी डांट पड़ेगी कि फ़िर रोटी खाए बिना सो जाने का मन होने लगेगा। पापाजी मारते हैं मगर न के बराबर। शायद साल में एक-दो बार, सिर्फ़ एक थप्पड़, पीछे गर्दन पर। थप्पड़ की ज़रुरत भी क्या है! वैसे ही जान निकली रहती है। एक बार तो भाई-बहिनों में से एक ने, दूसरे को यार बोल दिया था, पापाजी ने सुन लिया। ऐसी डांट लगाई कि बुरी तरह सहम गए सबके सब। लगा कि यार भी बहुत गंदी ग़ाली है, ठीक है, नहीं बोलेंगे अबसे।

बच्चे कुछ ऐसा मांग लें जो दिलाना पापाजी के लिए संभव न हो तो वे समझाते हैं कि लाल (बेटा/बच्चा) हमेशा अपने से नीचे लोगों को देखो। उन्हें देखो जिनके पास वो भी नहीं है जो तुम्हारे पास है। बच्चे चुप। वैसे तो बच्चे बोलते ही कभी-कभार हैं फ़िर पापाजी का अपना जीवन इतना सीघा-सादा है कि उनसें बोलें भी तो क्या बोलें! फ़िर ख़्याल भी तो कितना रखते हैं सबका। कोई बच्चा बीमार हो तो दिन में भी आते हैं दुकान छोड़कर। सरल तो आए दिन बीमार होता है। माताजी से दवाई नहीं लेता। माताजी से वैसे भी कोई ढंग से डरता नहीं है फ़िर सरल से दवाई खाई ही नहीं जाती। कोई एक दिन की बात हो तो भी बात है। जब देखो तब बीमारी। जब देखो तब मोटी-मोटी गोलियां, बड़े-बड़े कैपसूल-सबके सब कड़वे। हर बार पानी अंदर चला जाता है, गोली या तो बाहर आ जाती है या मुंह में ही कहीं चिपकी रह जाती है। इसलिए कई बार तो सिर्फ़ दवा खि़लाने के लिए दुकान छोड़कर घर आना पड़ता है पापाजी को। फ़िर सरल की नहीं चलती। पापाजी दोनों हाथ पकड़कर या पकडवाकर, चम्मच ज़बरदस्ती मुंह में घुसाकर, ऊंगली घुसाकर, कैसे न कैसे दवा खि़ला ही देते हैं। दवा खिलाने के वे बड़े पक्के हैं। कभी-कभी सुबह प्रोटीनेक्स या बोर्नविटा वाले दूघ के लिए भी ज़बरदस्ती करते हैं। मगर वो कभी-कभी की बात है। दवाई के मामले में पापाजी कोई समझौता मुश्क़िल से ही करते हैं। ख़ुद भी कई दवाईयां नियमित रुप से खाते हैं।

कई बार सुबह-सुबह जलेबी या तरबूज़ लेकर आते हैं और अपने हाथ से सबको देते हैं। वे कहते हैं कि तरबूज सुबह ही खाना चाहिए। वे ऐसी बातें बहुत बताते हैं। कभी कहते हैं कि खरबूज़े के ऊपर पानी नहीं पीते तो कभी कहते हैं कि रात को दही नहीं खाते। जब भी घर पर होते हैं ऐसा ही कुछ न कुछ बताते रहते हैं। क्या खाओ से ज़्यादा वे क्या न खाओ बताते रहते हैं। और बस दवाईयां और दवाईयां। कई बार वे रात को जब दूसरे सारे काम कर लेते हैं तो सरल के गले पर विक्स अपने हाथों से मलते हैं। सरल को उनका पास बैठना अच्छा लगता है पर बुरा यूं लगता है कि दवाईयां वे ज़्यादा ही घिस-घिसकर लगाते हैं। एक तो सरल की काया वैसे ही बहुत नाज़ुक है ऊपर से हर वक्त की बीमारियां। वह तंग आया रहता है फ़िर पापाजी के हाथ कभी-कभी ख़ुरदुरे से लगने लगते हैं, ख़ासकर जब वे ज़ोर-ज़ोर से दवा रगड़ते हैं। उसके गले में पहले ही भयानक दर्द है ऊपर से यह रगड़। यह दर्द घटा रही है कि बढ़ा रही है! मगर पापाजी के आगे वह वैसे ही बहुत कम बोलता है और विक्स वे कोई अपने लिए थोड़े ही लगा रहे हैं, उसीके भले के लिए लगा रहे हैं। दिन भर के थके हुए तो आते हैं फ़िर भी देर रात जागकर उसे विक्स लगा रहे हैं। वह क्या कहे ! चुपचाप पड़ा लगवाता रहता है। पापाजी सरल का बहुत ज़्यादा ध्यान रखते हैं।

‘ए पिंटू! कैंची रख दे! लग जाएगी हाथ में! पहले भी कितनी बार मना किया है! चल रख!’

सरल कांप जाता है।

‘ए पिंटू! खाट मत उठा! तुझसे नहीं उठेगी! चल छोड़ दे, मैं उठाता हूं।’

सरल घबरा जाता है।

सरल को कुछ-कुछ अच्छा तो लगता है कि पापई कितना ध्यान रखते हैं, पर अंदर कहीं शायद बुरा भी लगता है। कैंची उठाने में इतना ज़ोर से डांटने की क्या बात है! वे बात-बात में ऐसा क्यों कहते हैं कि तुझसे नहीं होगा! शायद वह अभी छोटा है, इसलिए कहते होंगे। वे उसका बुरा क्यों चाहेंगे? बुरा चाहने वाला आदमी क्या इतना ख़्याल रखता है!

दूसरे घरों में ‘नंदन’ या ‘चंदामामा’ जैसी पत्रिकाएं आतीं हैं जिनमें अकसर भूत-प्रेत या राजा-रानी की कहानियां होती हैं। मगर पापाजी ने उन्हें ‘पराग’, सरिता और ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाएं लगाके दी हैं। ‘पराग’ सरल को बहुत अच्छा लगता है। उसमें जैसे बिलकुल उसीके जैसे बच्चों की कहानियां होती हैं। कई कहानियां तो बच्चों की समस्याओं पर भी होतीं हैं। पापाजी को कौन बताता है इतनी अच्छी-अच्छी क़िताबों के बारे में! वे बोलते इतना कम हैं कि समझ में नहीं आता उनके दिल में क्या-क्या भरा है। एक बार रात को जब दुकान से आए तो बही-खातों वाले थैले में से एक पार्सल जैसा निकाला। फ़िर बड़े आराम से उसे खोला। वे किसी काम में जल्दी नहीं मचाते, हर काम धीमे-धीमे, करीने से करते हैं। पार्सल में से एक रंग-बिरंगी, चमचमाती हुई क़िताब निकल आई है। पापाजी सामने न बैठे होते तो बच्चे देखते ही लड़ने लगते कि ‘पहले मैं पढ़ूंगी’, ‘नहीं पहले मैं पढ़ूंगा’। क़िताब का नाम है ‘योगीराज’। दिल्ली प्रेस का प्रकाशन। पता नहीं पापाजी ने कब इसके बारे में पढ़ा होगा, कहां पढ़ा होगा, क्यों उन्हें लगा होगा कि यह बच्चों के लिए अच्छी रहेगी, कब, कैसे उन्होंने ऑर्डर दिया होगा! हमें क्या! हमें तो अब पहले क़िताब पढ़नी है, बाद में कुछ और करना है। यह कहानी है एक ढोंगी बंदर की जो कहीं एक आश्रम बना कर, छोटे-मोटे चमत्कार दिखाकर भक्तों को ठगता है। एक दिन जंगल के दूसरे जानवर प्लान बनाकर उसकी पोल खोल देते हैं और वह पकड़ा जाता है।

हम सब बच्चों को ऐसी क़िताबें ख़ूब भातीं हैं। सरल की तो यह ख़ास पसंद है। पापाई कई बार हमें यूंही सरप्राइज़ दे देते हैं।

(जारी)

05-09-2013


2 सित॰ 2013

वह दूसरों के जैसा नहीं है!


सौ में से निन्यानवें बार ऐसा होता है। वे सब उसके खि़लाफ़ एक हो जाते हैं। जब कभी वह घर से निकलता है, गांडू-गांडू कहकर चिल्लाते हैं, पीछे आते हैं।

कस्बा जिसमें उसका जन्म हुआ, अखाड़ेबाज़ी और लौंडेबाज़ी के लिए मशहूर है। अखाड़ेबाज़ी के शौक़ीन लोगों में से कईयों को लौंडेबाज़ी की आदत हो जाती है, ऐसा माना और बताया जाता है। जो इस आदत का शिकार बनते हैं, उन्हें गांडू कहा जाता है। और डरपोक आदमी को भी यहां गांडू कहा जाता है।

मगर ये सब तो उसके दोस्त ही हैं जो उसे गांडू कहते हैं। हमेशा नहीं कहते। उसके साथ खेलते हैं, हंसते हैं, आते-जाते हैं, मिलते-जुलते हैं। मगर कभी-कभी एकाएक न जाने क्या होता है कि वे सब एक तरफ़ और वह एक तरफ़।

वह पीला, कमज़ोर, डरपोक, घुग्घू और भौंदू-सा बच्चा। उसे पता ही नहीं चलता कि ऐसा क्या हुआ कि एकाएक वे सब उसके खि़लाफ़ हो गए!

वह जब इस घर में आया था तो आते ही उसे टाइफ़ाइड हो गया था। और वह बहुत कमज़ोर हो गया था। पहले कैसा था उसे याद नहीं। मगर इतना याद है कि टाइफ़ाइड ठीक होने के बाद दोबारा चलना सीखा था उसने। मां हाथ पकड़कर ऐसे ही चलाती जैसे छोटे बच्चे को सिखाते हैं।

कभी-कभी दिलबर चुपचाप पीछे से आता है और उसकी टांग में अपनी टांग अड़ा देता है। वह धड़ाम से नीचे आ गिरता है। सब बच्चे हंसने लगते हैं। कोई भी दिलबर से नहीं कहता कि ऐसा क्यों कर रहे हो! एक तो बिना बात किसीको गिरा रहे हो। और पीछे से आकर धोखे से गिरा रहे हो! फ़िर हंस रहे हो!

कौन कहेगा! वे तो ख़ुद भी हंसते हैं। उनके बाप खड़े हों तो बाप भी हंसते हैं, मांएं खड़ी हों तो माएं भी हंसतीं हैं, बहिनें खड़ी हों तो बहिनें भी हंसतीं हैं।

उसका मन क्यों नहीं होता कि किसीको धोखे से गिरा दे और हंसे। क्या यह दुनिया उसके जैसे लोगों के लिए नहीं है! क्या उसके जैसा होना बुरी बात है, अपराध है, हंसने की बात है! क्या जीने के लिए उसे भी इनके जैसा बनना होगा !

02-09-2013

(जारी) 

26 अग॰ 2013

बीच घर में एक निर्जन टापू


चौखट के बिलकुल ऊपरी कोने में, दीवार के सहारे एक झिरी है जिससे अपनी बायीं आंख किसी तरह सटाकर वह दुनिया को देखता है। बना-बनाया मकान ख़रीदा है पिताजी ने, नया ही है मगर चौखटों में दीमक लग गई है। सरल धीमे से एक कुर्सी घसीटकर झिरी के नीचे लाता है, सावधानी से उसपर चढ़ता है और सांस रोक कर बाहर का दृश्य देखता है। उसके अहंकार को यह मंज़ूर नहीं कि कोई उसे देखता हुआ देखे। झिरी से घरके बाहरवाले आंगन का एक हिस्सा दिखाई देता है। आंगन के बराबर वह गली है जो घर के पीछेवाली मिल तक जाती है। मोहल्ले के बच्चे कभी-कभी खेलते हुए उनके आंगन तक आ जाते हैं, या गली से गुज़रते हुए मिल में जाते हैं। वही देखना चाहता है सरल। देखते हुए उसे कुर्सी पर शरीर का संतुलन भी बनाए रखना होता है और यह भी ध्यान रखना होता है कि कमरे की ओर आती किसी पदचाप को सुनते ही कुर्सी से उतरकर उसे वापस अपनी जगह टिका देना है। उसके लिए यह दूसरे बच्चों की तुलना में ज़रा मुश्क़िल काम है। चढ़ते और उतरते वक्त उसका शरीर इतने ज़ोर से कांपता है कि लगता है कुर्सी समेत उलट जाएगा। हांलांकि देखने में ख़ुशी कुछ नहीं मिलती उसे, तक़लीफ़ ही होती है कि दूसरी बच्चे किस उन्मुक्त भाव से खेल रहे हैं, और वह यहां इस कमरे में बंद है।

सरल ने ख़ुद ही बंद कर लिया है अपने-आपको। घरके अंदरवाले आंगन में भी थोड़ी धूप आती है, मगर वह वहां भी नहीं जाता। दूसरे घरों की छतें आंगन से लगीं हैं। वह डरता है कि अगर वे बच्चे अपनी छतों पर आ गए और उसे देख लिया तो उसपर हंसेंगे, चिढ़ाएंगे कि ‘देख, गांडू यहां छुपा बैठा है।’

घरके लोग परेशान हैं ; पिताजी सबसे ज़्यादा परेशान हैं कि आखि़र इसे हुआ क्या है? वे डांटते हैं, झिड़कते हैं, कभी-कभी प्यार से भी पूछते हैं कि क्या हुआ, क्यों नहीं घरसे निकलता। पिताजी के सामने पहले भी बोलना आसान नहीं था, दिन-प-दिन और मुश्क़िल होता जा रहा है। कभी-कभी पिताजी उन लोगों को भी ले आते हैं जो उन्हें अपने लगते हैं, समझदार और दुनियादार लगते हैं। वे लोग अपनी तरह से सरल को समझाते हैं। एक पूछता है, ‘क्या हुआ, किसीने चाकू-वाकू दिखा दिया क्या?’ दूसरा सरल को ज़बरदस्ती घर से बाहर ले जाने की कोशिश करता है।  सरल कभी खाट को तो कभी दरवाज़े को इतना कसके पकड़ लेता है कि उसे बाहर निकालना लगभग असंभव हो गया है। अंततः सब यही जानना चाहते हैं कि आखि़र एकाएक ऐसा क्या हुआ कि इसने ख़ुदको कमरे में बंद कर लिया।

सरल क्या बताए ? उसे ख़ुद कुछ ठीक से समझ में आए तो बताए भी। उसे नहीं पता कि क्या हुआ है। मगर यह ज़रुर पता है कि कुछ हुआ है, कुछ होता रहता है जो उसे लगातार परेशानी में डाले रखता है। लेकिन वह ठीक से बता पाने में असमर्थ है। बहुत बार उसे भी लगने लगता है कि वह ख़ामख़्वाह बहाना बना रहा है।

और फ़िर वही अपराधबोध जिसने शायद सरल के होश संभालने से पहले ही उसे जकड़ लिया है।

26-08-2013

(जारी)


22 अग॰ 2013

डर और डर की बातचीत



‘गोली मत मारना, मुझे कुछ बात......’

‘आहा, डरते हो, कुछ नहीं कर पाओगे जिंदग़ी में, डरपोक आदमी, हा हा हा .............’

‘हां डरता हूं, मुझे गोलियों में खेलने की आदत नहीं है भाई, पर उससे भी ज़्यादा मैं इसलिए डरता हूं कि तुम मुझसे भी ज़्यादा डरपोक हो। तुम डरके मारे, मुझे गोली मार दोगे और जो बात मैं करने आया हूं वो हो ही नहीं पाएगी।’

‘अरे वाह! तुम्हे घुसने क्या दिया, तुम तो सर पे ही चढ़ गए ; मैं कैसे डरपोक हूं!?’

‘तुम बातचीत से डरते हो। वरना बिना बातचीत किए गोलियां क्यों मारते फिरते हो? अभी आखि़री बार जिस आदमी को तुमने गोली मारी, उससे बात करने की कोशिश की क्या तुमने?’

‘वह आदमी इसी लायक था, मैंने उसे मार दिया, मैं बहुत ख़ुश हूं।’

‘मार दिया तो क्या तीर मारा ? तुम न मारते तो क्या वह मरता नहीं ? किसी ऐक्सीडेंट से मरता, बीमारी से मरता, वह क्या हमेशा ज़िंदा रहता !? रोज़ाना ही लोग मरते हैं। इसमें ख़ुश होने की क्या बात हुई ?’

‘मरते होंगे। लेकिन जैसे मैंने उसे मारा, लोगों को सबक मिलेगा, लोंग डरेंगे, उस आदमी के बताए रास्ते पर नहीं जाएंगे।’

‘डरे हुए लोग किसी भी रास्ते पर जाएं, उससे क्या फ़र्क पड़ता है?’ डरे हुए लोग फिर भी डरे हुए रहेंगे। तुम तो ख़ुद ही डरे हुए आदमी हो। तुम जिस रास्ते पर गए हो, क्या उसे तुमने ख़ुद चुना है? तुम्हे कैसे पता कि उसे मारने से लोग डर जाएंगे?’

‘मैं डरा हुआ नहीं हूं, मैं बलशाली आदमी हूं।’

‘बलशाली हो तो तुमने पहले उससे बात क्यों नहीं की ? तुम तो बात करने से भी घबराते हो। माफ़ करना, मगर सही बात यह है कि तुम कमज़ोर आदमी हो।’

‘किसीको मारना आसान काम नहीं है, मेरा ईश्वर मेरे साथ है इसलिए मैं यह कर सका।’

‘तुम ईश्वर को मानते हो ?’

‘बिलकुल मानता हूं। उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं हो सकता।’

‘तो फ़िर तुमने उस आदमी को मारा क्यों, ईश्वर पर छोड़ देते। तुमने तो यह साबित किया कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर अगर तुम्हारे साथ है तो तुम लोगों को मारकर भाग क्यों जाते हो? ईश्वर तुम्हारे साथ है तो डरते किससे हो ? कलको तुम भी मरोगे, तुम क्या हमेशा ज़िंदा रहोगे !? या तुम्हे भी कोई मारेगा ; फिर कैसे तय करोगे कि ईश्वर किसके साथ है? तुमतो रहोगे ही नहीं, फिर कोई तय भी करेगा तो उससे तुम्हे क्या समझ में आएगा ?’

‘अबे.......तुम कहना क्या चाहते हो?’

‘जिनको तुम मार देते हो वे तो चले ही जाते हैं। फिर तुम्हारी बात समझता कौन है? अगर तुम्हारे पास समझाने के लिए कोई बात है तो समझाते क्यों नहीं! गोली क्यों मारते हो ? तुम्हारे पास कहने को कुछ नहीं है, इसलिए तुम लोगों को डराते हो।’

‘तो क्या करें, बिना डराए कोई मानता ही नहीं।’

‘डरा हुआ आदमी तो कोई भी बात मान लेता है। इससे तुम्हे यह कैसे पता लगता है कि तुम्हारी बात सही है या ग़लत ?’

21-08-2013


‘अरे भाई! बिना डराए कोई सामाजिक व्यवस्था चलती है क्या ? तुम तो कहोगे अपराधियों को भी मत पकड़ो, सबको ख़ुला छोड़ दो!’

‘मैंने कब कहा! लेकिन लोगों के अपराध और सज़ा तुम और मैं तय करेंगे !? कलको तुम कहोगे कि स्त्रियों को घरों में क़ैद रखने के लिए जो लोग छेड़खानी और बलात्कार करके डराते हैं, वो ठीक ही करते हैं ! तुम अपने बच्चों, दोस्तों, रिश्तेदारों, पड़ोंसियों के साथ क्या करते हो !? वे तुम्हारी बात न मानें तो उन्हें गोली मार देते हो !? तुम्हे यह कैसे पता लगता है कि तुम्हारी ही बात सही है ?’

23-08-2013

‘अगर मैं कहूं कि ईश्वर गंदा है, घटिया है तो! गोली मार दोगे ?’

‘मार भी सकता हूं।‘

‘क्यों?’

‘मैं ईश्वर के खि़लाफ़ कुछ नहीं सुन सकता।’

‘क्यों? ईश्वर क्या सिर्फ़ तुम्हारा है ? जैसे हवा और पानी सबके हैं, जिसका जैसा मन आता है, इस्तेमाल करता है, वैसा ही तुम ईश्वर को बताते हो। मैं अपने हिस्से के ईश्वर से कुछ भी कहूं, तुम्हे क्या मतलब ? क्या ईश्वर पर तुमहारा कॉपी राइट है? कोई रजिस्ट्री करा ली है क्या तुमने ?’

‘मैं जिस ईश्वर की पूजा करता हूं उसके बारे में यह सब नहीं सुन सकता।’

‘तुम्हारे पूजा करने से मेरी भावनाएं आहत होतीं हैं, दिमाग़ तनाव से भर जाता है। तो क्या मैं तुम्हे गोली मार दूं? तुम ईश्वर का ठेका क्यों लिए बैठे हो आखि़र? क्या ईश्वर को तुमने बनाया है ?’

‘तुम पागल हो क्या ? ईश्वर को कोई कैसे बना सकता है ?’

‘अच्छा यह बताओ कि तुम्हारा और मेरा ईश्वर एक ही है या अलग-अलग़ है ?

‘.................’

‘अगर अलग़-अलग़ है, तो मैं अपने ईश्वर से कुछ भी कहूं-सुनूं, तुम्हे लेना क्या ? अगर एक ही है तो अकेले तुम क्यों उसपर कब्ज़ा किए बैठे हो ? तुम कौन हो यह तय करनेवाले कि ईश्वर से दूसरे लोग क्या संबंध रखें, क्या बात करें, उसके बारे में दूसरों से क्या बात करें ? इसका ठेका तुम्हे किसने दिया ? इसको प्रमाणित करनेवाला कोई अथॉरिटी लैटर, कोई क़ाग़ज़-पत्तर, कोई सबूत हो तो दिखाओ !’

‘अरे मेरे पास इतना फ़ालतू वक्त नहीं है। मुझे बहुत काम है।’

‘काम नहीं है, असल बात यह है कि गोली मारना आसान काम है, क़ायदे की बात करना, समझदारी की बात करना, अहंकार छोड़कर बात करना आसान काम नहीं है। तुम आसान काम के आदी हो।’


24-08-2013


(जारी)

(एक काल्पनिक बातचीत)


15 अग॰ 2013

कौन है जो इस्तेमाल नहीं होता !



‘‘राखी बंधवा ले बेटा, बात माना करते हैं, देख बहिनों का कितना मन है, कितनी उदास हो रहीं हैं ; बंधवा ले बेटा।’’ मां कहती है।

सरल कसमसा रहा है भीतर ही भीतर मगर बोल कुछ भी नहीं पा रहा। वह समझ नहीं पा रहा कि जो कुलबुलाहट उसके भीतर है, वह सही है या ग़लत, कहे कि न कहे, जैसा वह महसूस करता है, ठीक वैसा ही कह भी पाएगा क्या ?

उसकी आंखों के सामने बार-बार वे कलाईयां आ जातीं हैं जिनमें राखियां बांधीं जानी हैं, वह ख़्यालों में भी नहीं देखना चाहता वे कलाईयां-वे पतली और सूखी कलाईयां जिन्हें देखकर ही उसे घबराहट होने लगती है। इन कलाईओं में कई-कई राखियां लटकेंगी, वह झल्लाता रहेगा, फ़िर आधेक घंटे बाद सबको उतार फ़ेकेगा। क्या इन कलाईयों से वह बहिनों की रक्षा करेगा! अपना तो कुछ कर नहीं पाता। कोई भी आता है, ग़ाली दे जाता है, कोई भी आता है, हंसी उड़ा जाता है, कोई भी आता है, सही साइड में साइकिल चलाते सरल को टक्कर मारकर गिराता है, साथ ही दो उपदेश भी सुना जाता है। घृणा और ग़ुस्से से भर जाता है सरल, मगर मुंह से बोल नहीं फूटता।

‘बंधवा ले बेटा, देख बहन ख़ुश हो जाएगी।’

सरल जैसे-तैसे संभालता है ख़ुदको, संभालते-संभालते फट पड़े तो भी कुछ पता नहीं।

‘क्या मेरी ख़ुशी का कोई मतलब नहीं, मुझे राखी बंधवाने से कोई ख़ुशी मिलती है या नहीं, यह जानने की कोशिश कोई क्यों नहीं करता ? मैं क्या कोई खंबा हूं जिसपर आप कुछ भी बांधकर चले जाएंगे? आखि़र ये लोग कभी सोचते क्यों नहीं ?

किसी साल बंधवा लेता है तो कोई साल यूं ही गुज़र जाता है। नहीं बंधवाता तो बहिनों और रिश्तेदारों को उदास और नाराज़ करने के अपराधबोध में जीता है, परंपरा तोड़ने के अपराधबोध में जीता है। बंधवाता है तो बंधवाने के एवज में उनके लिए कर क्या पाएगा के अपराधबोध और हीनभावना के साथ जीता है।

उसे क्या मालूम कि दुनिया एक-दूसरे को इस्तेमाल करने से चलती है। बाद में कभी उसे समझ में आएगा कि यहां तो लोग मोहरों और कठपुतलियों की तरह ही जी रहे हैं। कुछ ताक़तवरों के मोहरे बन गए हैं तो कुछ अपने ही जैसे आदमी की बनाई मान्यताओं और धारणाओं के ग़ुलाम हैं। ग़ुलामी भी इतनी गहरी कि आम आदमी तो क्या बड़े-बड़े लेखक-चिंतक भी इसे ही आज़ादी समझते नज़र आते हैं।

‘‘लड़की के भाई को बुलाओ।’’

जब भी किसी बहिन की शादी होती है, रस्मों-रिवाजों के बीच पंडित का फ़रमान आता है। वह इससे बचने की कोशिश करता है, मगर कब तक बचेगा। कोई न कोई ढूंढ निकालता है। वह थोड़ी-बहुत रसमों में हिस्सा लेता है, हंसी-मज़ाक़ करके किसी तरह उस भीड़ का हिस्सा बनने की कोशिश करता है। हांलांकि भरी भीड़ में अपने-आपको सामने ले आना फिर हंसी-मज़ाक भी कर लेना, यह उसके लिए कुछ आसान काम नहीं है।

‘कन्या का भाई कन्या के साथ पीछे-पीछे चलेगा’, पंडित कहता है। फेरे शुरु हो गए हैं। सरल अब बिदक जाता है।

‘कन्या का भाई’
‘कन्या का भाई’
‘कन्या का भाई’
‘कन्या का भाई’

क्या उसके होने का कुछ भी मतलब नहीं है ? क्यों नहीं उससे कोई पूछता कि तुम्हे ये रीति-रिवाज पसंद हैं या नहीं !! तुम इनमें शामिल होना चाहते हो या नहीं !? ये कैसी दुनिया है!? कैसे लोग हैं !?

‘‘मैं नहीं चलूंगा।’’

धीरे से ही सही, मगर वह बोलता है। जैसे-तैसे बोलता है। और क़रीबी लोग जानते हैं कि अब सरल को चलाने का एक ही तरीक़ा है कि इसको ज़बरदस्ती उठाकर चलाया जाए। बोलेगा नहीं मगर शरीर को अकड़ा लेगा और न चलने की पूरी कोशिश करेगा। हास्यास्पद दृश्य हो जाएगा।

दूसरे किसी भाई का इंतज़ाम किया जाता है।

अब वह कई दिन अपराधबोध में जिएगा।

लेकिन वह भी क्या करे ! कितनी चीज़ें हैं जो होतीं हैं, कुछ तो आए दिन होतीं हैं, कई बार वह भी करता है ; मगर उनका औचित्य उसे समझ में नहीं आता, उनमें कोई ख़ुशी उसे नहीं मिलती।

लड़कीवालों का दास भाव उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। उसे ख़ुद भी इसका हिस्सा बनना पड़े तो और ज़्यादा तक़लीफ़ होती है। लड़केवाले जब-जब भी बहिनों को देखने आते हैं, उसकी मुसीबत हो जाती है। वह बचना चाहता है मगर.....

‘लड़की का भाई’
‘लड़की का भाई’
‘लड़की का भाई’
‘लड़की का भाई’

वे सब एक बार लड़की के भाई को देखना चाहते हैं। लड़की को पता नहीं उस वक्त कैसा महसूस होता है, मगर सरल को बिलकुल अच्छा नहीं लगता। वह क्या कोई वस्तु है !? लड़की के भाई का क्या करना है तुम्हे!? उसे क्यों अनचाहे ही इस अजीबो-ग़रीब सरकस का हिस्सा बनना पड़ता है बार-बार !? लड़की उसने पैदा भी नहीं की, न उससे पूछकर पैदा की गई है, न समाज की रसमें उसने बनाई, न उसकी ऐसी कभी इच्छा रही कि वह भी कभी ऐसे रीति-रिवाजों के दुष्चक्र में फंसे किन्हीं मजबूरों की मजबूरी का फ़ायदा उठाएगा ; फ़िर क्यों उसे जबरन इन जंजालों में घसीटा जाता है !?

15-08-2013

इन सब लोगों के लिए जैसे फूल है, जैसे माला है, जैसे मंडप है, जैसे कुर्सियां हैं, जैसे हवन-सामग्री है वैसे ही लड़की का भाई है। माला को किसीके गले में भी डाल दो, डल जाएगी, इनकार नहीं करेगी ; कुर्सी उठाकर कहीं भी रखदो, किसीको भी उसपर बिठा दो, मना नहीं करेगी ; मोमबत्ती को घिसकर कहीं भी चिपका दो, जला दो, पिघल जाने तक वहीं खड़ी फड़फड़ाएगी। ऐसे ही लड़की का भाई है।

कितने लोग आए हैं इस समारोह में। अलग़-अलग़ शक्लें, अलग़-अलग़ कपड़े, अलग़-अलग़ पेशे, अलग़-अलग़ ओहदे..........सब हंस रहें हैं, भाग-दौड़ कर रहे हैं, जो बता दिया गया, कर रहे हैं, इनमें लड़केवाले भी हैं, लड़कीवाले भी हैं...........मगर क्या वाक़ई इनमें कुछ फ़र्क है !? क्या इनमें एक भी आदमी ऐसा होगा जो सरल को समझ पाएगा ? सरल जानता है, कोई कहेगा कि ये तो है ही बिगड़ा हुआ, कोई कहेगा अकेला लड़का है, आदतें ख़राब हो ही जातीं हैं, कोई कहेगा, कोई ख़ास बात नहीं, शर्मीला ज़्यादा है.........मगर इनमें शायद एक भी आदमी ऐसा नहीं होगा जिसकी कल्पना में भी यह आ जाए कि यहां एक आदमी ऐसा भी है जिसकी इस सबमें कोई रुचि नहीं है, जो असहमत है, जो उलझन में है, परेशानी में है, खींचतान में है.........

ये तो सब हंस रहे हैं, ठहाके भी लगा रहे हैं........और गंभीर भी हैं। एक बड़ा काम निपट गया। एक आदमी का एक और बोझ सर से उतर गया। उसमें इन्होंने भी सहयोग किया, किसीने काम कराया, किसीने पैसे दिए, लिफ़ाफ़े दिए, किसीने रिश्ता कराया....

लेकिन....वह सोचता है.....इसे बोझ बनाया किसने !? बोझ बनाए रखना कौन चाहता है !? यही लोग। जो बता दिया गया, जो सिखा दिया गया, वही सब करते चले जाने के अभ्यस्त लोग।

आज सोचता है सरल.....ये डरे हुए लोग हैं, एक-दूसरे से भी बुरी तरह डरे हुए लोग......अकेले में भी कोई अलग़, कोई नया ख़्याल मन में आ जाता होगा तो घबरा जाते होंगे, वह ख़्याल किसी तरह चला जाए, मिट जाए ; इसकी कोशिश करते होंगे, गाने चला देते होंगे, टहलने निकल जाते होंगे, कसरत करने लगते होंगे......और सरल भी तो यही करता रहा एक वक्त तक......लेकिन अब वह जानता है कि अपने-आपसे, नये या अलग़ तरह के ख़्यालों से इस तरह भागोगे तो फिर बदलाव का रास्ता किधर से निकलेगा, प्रगतिशीलता क्या कोई पेड़ पर उगनेवाली चीज़ है......

.....और वह देखता है कि लोग बदलते भी नहीं, बदले हुए दिखते ज़रुर हैं। कल हवा जिधर को चल रही थी वे भी उधर चल रहे थे, आज हवा बदली वे भी ‘बदल’ गए। कल लड्डू और हलवे को पकड़कर बैठे थे, उसके बिना कोई अनुष्ठान पूरा नहीं होता था। आज केक को पकड़ लिया। अब केक वक्त पर न आए तो बर्थडे मनानेवाले बर्थडे सेलिब्रेट हुआ ही नहीं मान पाते।

वैसे छोड़ा अभी हलवे को भी नहीं है। सामनेवाले हाथ में केक है, हलवा पीछेवाले हाथ में चला गया है। क्या मालूम कब हलवे की हवा फ़िर चल निकले। तो क्या फ़र्क पड़ता है। फ़िर ‘बदल’ जाएंगे ; सामनेवाले हाथ को पीछे ले जाएंगे, पीछेवाले को आगे ले आएंगे।

इसे प्रगतिशीलता कहें कि पैंतरेबाज़ी !?

मूल मानसिकता वही है।

पकड़कर बैठ जाने की मानसिकता।

(जारी)

16-08-2013


11 जुल॰ 2013

पितृसत्ता का पिता पाखण्ड

10/11-07-2013

राजधानी आए सरल को शायद साल-भर हुआ होगा, कॉलोनी की एक शांत सड़क पर दोस्त के साथ टहल रहा था कि-

‘ओए, ए’

एक कड़क और बुलंद आवाज़। पुलिस जैसी कद-काठी वाली एक स्त्री ने एक स्कूटर-सवार को रोका। लड़का-सा ही था। स्त्री तड़ातड़ शुरु हो गई, वह लड़के को तमाचे पर तमाचे मार रही थी, ग़ालियां दे रही थी और चिल्ला-चिल्लाकर कुछ इल्ज़ाम लगा रही थी-स्साल्ले को स्कूटर दे रखा है, सारा ख़र्चा उठाती हूं, घर दे रखा है, खाना देती हूं, सब देती हूं....साला फिर भी दूसरी लड़कियों के साथ घूमता है..........

लोग अवाक्, स्तब्ध देख रहे थे और सुन रहे थे....

कम-अज़-कम 8 साल तो हो ही गए होंगे इस घटना को। शब्द थोड़ा इधर-उधर होंगे मगर मंतव्य लगभग यही था। वह स्त्री बिलकुल वही बातें कह रही थी जो कोई मर्दवादी मर्द अपनी आश्रिता से कहता है।

सरल ने स्त्री-सत्ता भी देखी है जीवन में, अघोषित स्त्री-सत्ता। दरबार जैसा लगा है, पुरुष भी आ-आकर स्त्री से सलाह ले रहे हैं, स्त्री के फ़ैसले बड़ी गंभीरता से लिए जा रहे हैं। मगर स्त्री फ़ैसले क्या ले रही है? फ़ैसले वह वही ले रही है जो कोई भी रुढ़िवादी पुरुष लेता है। घर में अन्य स्त्रियों की हालत क्या है? वह भी रुढ़िवादी घरों जैसी ही है। फ़र्क कोई है तो इतना कि खाना-कपड़ा अच्छा मिल रहा है, दूसरों की उपस्थिति में थोड़ा-बहुत दूसरे पुरुषों से हंसा-बोला भी जा सकता है.....

सरल आजकल पितृसत्ता से नाराज़ स्त्रियों के स्टेटस वगैरह देखता है, एक दिलचस्प समानता वहां दिखाई देती है, उनमें से कई अकसर अपने पिताओं की तारीफ़ करती पायी जातीं हैं, मांओं के नाम भी कहीं-कहीं आ जाते हैं भूले-भटके.....

पिता हीरो हैं, पितृसत्ता से घृणा है! बात कुछ अजीब तो लगती है।

पिछले दिनों एक विज्ञापन भी देखता रहा सरल जिसमें एक लड़की अपने ब्वायफ्रैंड या फ़ियांसी को बता रही है-‘मैंने लड़कों को भी छेड़ा है।’

सरल को आज तक यह नहीं समझ में आया कि जो आप अपने प्रति ग़लत समझते हैं वही दूसरे से करके नायकत्व कैसे महसूस कर सकते हैं!? कह सकते हैं कि स्त्रियों की तो अभी शुरुआत है, थोड़ी-बहुत बदले की भावना तो रहती है मन में। चलिए यह बात यहां छोड़ी।

कुछ दिन पहले फ़ोन पर एक मित्र से बात हो रही थी, उसका कहना था कि जो महिला कुछ जुगाड़बाज़ी करके कैरियर बनाती है, संभवतः एक क़ाबिल महिला का हक़ तो छीनती ही है। बात को ज़रा खोल कर समझें-एक स्त्री किसी मर्द के साथ सोकर अपना काम निकालती है, ठीक है, किसीको क्या लेना-दो का आपस का मामला है। समस्या वहां से शुरु होती है जब वह स्त्री ख़ुदको भारी संघर्षशील और विद्रोही की तरह प्रोजेक्ट करती है। पुरुष तो यह काम पहले से ही कर रहा है; थोड़ा-सा फ़र्क़ यही है कि पुरुष आम-तौर पर इसे संघर्ष तो कहता है, विद्रोह से नहीं जोड़ता। और सरल ऐसा कहने में किसी माफ़ी की दरकार नहीं समझता कि भारत में ज़्यादातर मामलों में ऐडजस्टमेंट को ही संघर्ष कहा जाता रहा है। इस मामले में स्त्री और पुरुष के एक जैसे हाल हैं, होंगे ही। वजह है पाखण्ड की हमारी संस्कृति। मामला पितृसत्ता और मातृसत्ता का नहीं है-उससे कतई कोई समस्या हल होनेवाली नहीं है। असल जड़ तो पोंगे धर्म और पाखण्डी संस्कृति में छिपी है। कोई सत्ता ज़्यादा दिन अहंकार से मुक्त नहीं रहती, रह नहीं सकती। असल में तो अहंकारी को ही सत्ता की कामना और ज़रुरत ज़्यादा होती है। वरना सत्ता की ऐसी ज़रुरत भी क्या है!? जो भी घर में क़ाबिल हो उसे कामचलाऊ सत्ता दे दी जाए-चाहे वह पुरुष हो चाहे स्त्री। सही बात तो यह है कि समानता जब आ जाएगी तो घर को किसी मुखिया की ज़रुरत होगी भी क्यों!?

अभी एक आंदोलन हुआ जिसमें एक वृद्ध सज्जन बार-बार कहते कि ‘नेता हमारे मालिक़ नहीं है, अरे मालिक तो हम हैं, तुम्हे तो हमने नौकर बनाके भेजा था....

सुनने में ऐसे डॉयलॉग अच्छे बहुत लगते हैं मगर व्यवहार में सोचें तो इस तरह के नुस्ख़े परिवर्त्तन के वाहक नहीं हो सकते। अरे, जब मालिक़ होना बुरी बात है तो तुम्हे भी क्यों होना चाहिए मालिक़!?

इस तरह की बातें समानता का आधार नहीं हो सकतीं!

12-07-2013

सरल अपने अनुभव से देखे तो यह बिलकुल भी ज़रुरी नहीं है कि बेटियों को बढ़ावा देनेवालें मां-बाप प्रगतिशील ही हों। कतई नहीं। मामला कुछ और ही है। बात यह है कि मां-बाप को चाहिए सफ़ल औलाद, दुनियादार औलाद, झट से काम निकाल के ले आनेवाली औलाद। और एक बेईमान और पाखण्डी समाज में काम निकालने के लिए भी, और कथित सफ़लता के लिए भी, आपको वैसा ही होना पड़ेगा जैसा समाज है। और अगर बेटी वैसी निकल आए तो पिता का प्यार उधर को शिफ़्ट होने लगता है। तब और भी ज़्यादा होता है जब उसे बेटे का वैसा न हो पाने का ग़म साल रहा हो।

दो पिता तो सरल को सफ़र में ऐसे मिले हैं जिन्होंने पहली बार की मुलाक़ात में ही बेटी की तारीफ़ और बेटे की बुराई शुरु कर दी।

और ऐसे पिता बेटों के साथ वही दुर्व्यवहार शुरु कर देते हैं जो वे अब तक बोझ लगनेवाली बेटियों के साथ करते आए होते हैं। ज़ाहिर है कि यहां बेटियों को ऐसे पिता महान नज़र आते हैं। साधारण बुद्धि का आदमी तो सीधा गणित जानता है। कि जो मेरा फ़ायदा करा रहा है वह अच्छा आदमी है, महान शख़्सियत है। मुझे उसकी तारीफ़ करनी चाहिए।

और सरल को कोई हैरानी नहीं होगी अगर कलको लोग बेटा पैदा होते ही उसे ज़मीन में गाड़ दिया करें। सवाल बेटे-बेटी का है ही नहीं। पेंच तो यह है कि एक स्वार्थी, लालची, पाखण्डी और अंधा समाज ख़ुदको त्यागी, अध्यात्मिक, सामाजिक और न जाने क्या-क्या माने बैठा है। और जिस एकमात्र पड़ोसी या पुराने भाई से वह रोज़ाना लड़ता फिरता है, वह धर्म संस्कृति के मामले में उससे भी दो हाथ आगे है, सवा सेर है।

सोए हुए लोगों के हाथ जनजागरण का उस्तरा लग जाए तो कुछ भी संभव है।

14-07-2013

झूठ बोलने से समस्याएं हल नहीं होतीं। वे समस्याएं तो बिलकुल भी हल नहीं होतीं जो पैदा ही झूठ की वजह से हुई हों। झूठ से लोग ख़ुश ज़रुर हो जाते हैं, झूठे लोग और जल्दी ख़ुश होते हैं। आप स्त्रियों से उनकी अंधाधुंध तारीफ़ करें, ज़्यादातर ख़ुश होंगीं। कई तथाकथित नारीवादियों को सरल देखता है, वे यही करते नज़र आते हैं। नारीवाद का कोई विपरीत तार्किक विश्लेषण देखते ही वे भड़क जाते हैं। या शायद भड़क जाने का अभिनय करते हैं। इन्हें देखकर कई बार उन छोकरों की याद आती है जो पीछे तो लड़कियों की मां-बहिन करते मगर सामने उनकी पलक, आंख, नाक, आवाज़, अंदाज़, संस्कार और न जाने किस-किसकी आरती जैसी उतार देते। ज़ाहिर है कि इस आरतीनुमा से लड़कियां जल्दी प्रभावित हो जाया करतीं और जल्दी क़रीब आ जाया करतीं।

मगर क्या इस तरह के नुस्ख़े औरतें की समस्याएं जल्दी सुलझा देंगे!?

थोड़ा-सा ईमानदार होकर हमें देखना चाहिए कि बच्चों के प्रति हमारा नज़रिया क्या रहा है! बच्चे कोई बच्चों की ख़ुशी के लिए नहीं पैदा करता। निस्वार्थ भाव से भी पैदा नहीं करता। यह ठीक है कि मां-बाप छोटे बच्चों का बहुत ध्यान रखते हैं, पैसा ख़र्च करते हैं, समय देते हैं, करज़ा लेकर पालते हैं, रात-रातभर जाग-जागकर पालते हैं, सब सही है। मगर यह भी सही है कि जिस दिन मां-बाप को लगता है कि बच्चे से वह नहीं मिला जिसकी उन्हें अपेक्षा थी, उनका व्यवहार बदलने लगता है। बेटे-बेटी में छोड़िए, वे बेटे-बेटे में और बेटी-बेटी में भी भेद करते हैं। अगर निस्वार्थ पैदा करने की बात सही होती तो कैसे कोई बेटियों को मार डालता या उनसे दुर्व्यवहार करता!? स्त्रियों से मां-बा पके इस दुर्व्यवहार की वजह!? उनसे उनके स्वार्थ नहीं पूरे होते। जहां-जहां हो रहे हैं, लड़कियां भी नाम कर रही हैं, प्रतिष्ठा बढ़ा रही हैं, पैसा ला रही हैं, मां-बापों का ‘प्रेम’ उनपर ‘उमड़’ रहा है। आसानी यह भी हो गयी है कि सामाजिक माहौल अब थोड़ा-थोड़ा इस प्रेम को भी स्वीकृति दे रहा है।

मगर विश्लेषण की बात यहां यह है कि क्या यह वाकई प्रेम है!? क्या यही प्रगतिशीलता भी है!?

(जारी)


-संजय ग्रोवर


.......

17 फ़र॰ 2013

मिनी स्कर्ट और करवा चौथ


‘मेरे ख़्वाबों में जो आए.....’


फ़िल्म समझ में नहीं आई सरल को। करवा-चौथ देखकर तो मन बिलकुल ही उचाट हो गया था। लेकिन गाना जब भी देखता, अच्छा लगता। यह कोई-पूछने बताने की बात नहीं लगती सरल को कि गाना किस भाव से/किस मक़सद से फ़िल्माया गया होगा।
उसी भाव से देखता भी रहा सरल। मगर तौलिया....मिनी स्कर्ट...दोस्त जैसी मां...अनजाने से प्यार...मां-बाप की अनुमति.....परंपरा.....अंततः करवा-चौथ......

यूं सरल ऐसा नहीं मानता कि स्कर्ट पहनने वाली महिला आधुनिक या हर हाल में तार्किक होगी ही होगी......
लड़के या मर्द तो कबसे नेकर पहन रहे हैं...सब आधुनिक तो नहीं हो सके....

हां, कपड़े अगर अपनी समझ और तर्क से आएं बदन पर तो शायद इनका थोड़ा-बहुत संबंध आधुनिकता से हो सकता है। प्रतिक्रिया आवश्यक रुप से प्रगतिशीलता नहीं हो सकती। हालिया गैंग-रेप के कुछ ही दिन बाद शायद फ़ेसबुक पर ही पढ़ा कि यूपी में कहीं स्त्रियों ने कोई गैंग बनाया है, वे पुरुषों को देखकर मुस्कुरातीं हैं और जब वह पुरुष पास आता है तो पिटाई कर देतीं हैं। हवा चली हो तो ऐसे स्टेटस पर लाइक, सुपरलाइक, सलाम, कमाल...का ढेर लग जाता है। पता नहीं यह ख़बर कितना सच थी मगर मैं सोच रहा था कि कितनी अजीब बात है कि पुरुष अगर बेवजह किसी लड़की को देखकर मुस्कुराएगा तब भी वह पिटेगा और स्त्री मुस्कुराएगी तब भी वह पिटेगा। ग़ज़ब फ़िलॉस्फ़ी है, अजब मानने वाले हैं। मगर हवा चली हो, भीड़ का साथ हो तो अंट-संट सब चलता है। और सलाम-सलाम, जय-जयकार सब मिलता है। मगर इस तरह की तार्किकता और सोच को प्रोत्साहन दिया जाएगा तो कलको हमें लौटकर फिर यह भी मानना पड़ेगा कि लक्षमन ने सूपर्णखां की नाक काटकर ठीक ही किया था।

अभी एक दिन किसी चैनल पर अपनी पसंदीदा फ़िल्म ‘बैंडिट क्वीन’ देखने को मिल गयी। उसके ठीक बाद तब्बू वाली ‘अस्तित्व’ शुरु हो गयी। वह भी दोबारा देख डाली। इस बार एक चीज़ अजीब लगी। पति की अनुपस्थिति में तब्बू और मोहनीश बहल का जो संबंध स्थापित होता है उसमें दोनों की बराबर की सहमति है। मगर बच्चा देखने आए मोहनीश बहल को तब्बू जिस क्रूरता से अपनी ज़िंदग़ी से निकाल फ़ेंकती है वह कहीं से भी न तो मानवीय लगता है न तार्किक। उसके पीछे जो तर्क वह देती है वह और भी बेहूदा और लचर है। वह देवी-देवताओं के ज़मानेवाला पाखण्डी और बेईमान तर्क है कि मैं शरीर से तुम्हारे साथ थी मगर मेरी कल्पना में मेरे पति का ही चेहरा था.....वगैरह। ऐसा ही था कुछ। पूछो, थोड़ी देर को इस थोथे और अविश्वसनीय तर्क को मान भी लिया जाय तो दूसरे आदमी का इस बात से क्या लेना कि क्या करते समय तुम्हारे ज़हन में किसका चेहरा था!? अभी मैं किसीको अपनी कार तले कुचल दूं फ़िर उसके घरवालों से कहूं कि यार जाओ, छोड़ो, उसे कुचलते समय मेरी कल्पना में एक बलात्कारी देवता का चेहरा था!

चलेगा, यहां ऐसे ही चलता है। जब भी ऐसी घटनाएं होतीं हैं, हवाओं में शोर भर जाता है कि एक-एक लड़के को बचपन से स्त्रियों का सम्मान करना सिखाना चाहिए।  अतिरेक, अतिश्योक्ति और बनावटीपन को पुनःस्थापित करने की चाहत से भरी यह मांग उसी भावुक भारतीय संस्कृति का हिस्सा है जिससे बीमारियां पैदा होती हैं। बच्चे को सिखाना यह चाहिए कि हर अच्छे इंसान का आदर करो, स्त्री हो, पुरुष हो, उभयलिंगी/लैंगिक विकलांग हो, कोई हो। किसीमें भेद मत करो, सब इंसान एक जैसे हैं। यह कतई अव्यवहारिक सोच है कि सभी स्त्रियों का सम्मान करो। इससे फिर झूठी संस्कृति पैदा होगी। न कोई सब मर्दों का सम्मान कर सकता है न कभी सब स्त्रियों का कर पाएगा। जलनेवाली बहू और जलानेवाली सास का एक साथ सम्मान कैसे संभव है? ससुर के मुंह पर थूकनेवाले दामाद और ससुर का एक साथ सम्मान संभव नहीं है। नमस्ते, हाय, हलो यानि रोज़ाना का अभिवादन अलग़ बात है, सम्मान दिल और दिमाग़ की गहराई से उठनेवाला भाव है। अगर लड़कों से ज़बरदस्ती सभी स्त्रियों का सम्मान कराया जाएगा तो उन्हें पाखण्ड ही करना पड़ेगा जैसा अब तक स्त्रियों को करना पड़ता था। इधर की बीमारी उधर शिफ्ट हो जाएगी।

‘होना/सोना किसी ख़ूबसूरत दुश्मन के साथ’ प्रसंग की तरह लेख का ग़लत पाठ करके बहसों को भटकानेवाले षड्यंत्रकारी और कमसमझ लोगों को यह भी बता दूं कि किसीका सम्मान न करने का मतलब यह नहीं होता कि उसका अपमान किया जा रहा है।

इस तरह मजबूरी के सम्मान के बाद दिल में रह गयी ख़लिश की किरचें बाद में परेशान करतीं हैं, चैनो-सुक़ून छीन लेतीं हैं।

‘‘जब भी मुझे ज़रुरत होगी आप आ जाया करोगे?’’

जवाब न देने से कैसी छटपटाहट बची रह गयी! उसी वक्त कह देना था, अच्छा मुझे क्या सिर्फ़ शरीर समझा है!? यही बात मैंने कह दी होती तो मेल शॉविनिस्ट और न जाने क्या-क्या उपाधियां मिल गयी होतीं। और कड़कड़ाती ठंड में रात बारह बजे फ़ोन-सेक्स की मांग, सामने कमरे में मां बीमार पड़ी है। ऊपर से हुक्म कि तो क्या हुआ, दरवाज़ा खोलकर घर से बाहर भी तो आया जा सकता है।

कमाल है! कौन है यह? जो समझा था उसका तो कोई चिन्ह कहीं दिखाई देता नहीं! निन्यानवें प्रतिशत हरकतें तो शातिर मर्दों वाली ही हैं। इन्होंने क्या किसीको आज़ादी दिलानी है! इनकी सोच और हरकतें तो बिलकुल उनके जैसी ही हैं जिनसे इन्हें आज़ादी चाहिए।

पर क्या करें, कोई देश, कोई समाज जिस संस्कृति की वजह से Qतियों की जन्नत बन गया हो, उसीपर वार करने के अलावा हर चीज़ पर वार किया जा रहा हो। पाखण्डी संस्कृति के जाल में कसमसाते-छटपटाते समाज में पाखण्डी और Qतियों (वे मेल हों कि फ़ीमेल हों कि बेमेल हों) की मौज ही मौज ही मौज होती है। मौक़ापरस्त हर जगह अपने लिए ऐशो-इशरत का रास्ता खोज लेता है। एक ठग संस्कृति में, जहां हर जगह शीर्ष पर ठग ही ठग बैठे हों, पके-पकाए ठग पहले कपोल-कल्पित कहानियों के ज़रिए समाज को ठगते हैं, फ़िर उन ठगियों से पीछा छुड़ाने के नाम पर भी उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी ही ठगते हैं।

इस ठग-संस्कृति से छुटकारा पाने के अलावा और कोई रास्ता हो सकता है क्या?

जैसे पेट में पथरी के टुकड़े परेशान करते हैं वैसे ही पाखण्डी संस्कृति से उपजे आचरण के बाद ज़हनो-दिल में जाने कितने टुकड़े बचे रह जाते हैं, कुछ अपने कुछ दूसरों के....

पहले जो मर्दो ने मेरे साथ किया अब मैं उनके साथ करुंगी.....

सोचने की बात है, जो कर गए उनके तो मज़े ही मज़े हैं, उनका तो बाल बांका नहीं होगा, भुगतेगा आनेवाला, जो हुआ था उससे कोई लेना-देना भी नहीं है उसका। वह मुफ्त में सूली चढ़ जाएगा।
मगर हवा जो चली है। उसमें यही होता है।

इधर विरोध चलता है एक संपादक का कि स्त्री-विमर्श को देह-विमर्श बना दिया। साथ ही यह भी चलता है कि मैं कितनी भी छोटी स्कर्ट पहनूं, किसीको क्या? दूसरा जुमला सुनाई पड़ता है मैं एक साथ आठ के साथ संबंध रखूं तो तुम्हे क्या? तो यही तो संपादक जी कह रहे थे! थोड़ी-सी अक्ल हो तो समझा जा सकता है कि खेल संपादक जी को बदनाम करके उनके मुद्दे ख़ुद हथिया लेने का रहा। संपादक जी हिम्मतवाले थे, साफ़ शब्दों में कह रहे थे। हथियानेवाले अधकचरे ढंग से ही कहेंगे। शुक्र है कहीं कोई यह नहीं कह रहा कि देखो कितना बदलाव आ गया। देखो छोटे डब्बे पर ब्रहममहूर्त्त में एक लड़की मिनी स्कर्ट पहनकर सती होगी। हर चैनल पर ‘लाइव’ ज़िंदा जलेगी।

ऐसे अधकचरे माहौल में स्कर्ट के साथ करवाचौथ अगर बिलकुल भी परेशान नहीं करता तो बहुत हैरानी की बात नहीं है।

-संजय ग्रोवर






3 फ़र॰ 2013

प्रसिद्ध व्यक्ति से एक अनपेक्षित बातचीत




‘हलो! आगे कहां निकले जा रहे हो?’
‘कमाल है! जहां मुझे जाना था वहीं जा रहा हूं।’
‘हाथ क्यों हिलाया था मुझे देखकर ?’
‘किसने हिलाया? चलते वक्त मेरा सारा ध्यान तो अपने शरीर का संतुलन बनाने में ही लगा रहता है! आपको ग़लतफ़हमी हुई है ; मच्छर-वच्छर उड़ाया होगा या अपने बाल ठीक कर रहा होऊंगा।’
‘आपने पहचाना नहीं मुझे!?’
‘पहचानने की बात ही कहां से आई!?’
‘अरे भाई! मशहूर आदमी हूं, हर कोई जानता है।’
‘मैं नहीं जानता।’
‘ओह! चलिए एक-एक कप चाय हो जाए।’
‘देखिए, मुझे दूसरे काम हैं। और साफ़ बता दूं कि चाय पीकर मैं आपकी तारीफ़ करुं, ज़रुरी नहीं....
‘अरे आप बैठिए तो! देखिए सभी लोग मेरी तरफ़ देख रहे हैं।’
‘.............................’
‘वह देखिए, वेटर सारी टेबल छोड़कर हमारी तरफ़ आ रहा है।’
‘ग़लत बात है। जो लोग पहले आए हैं उन्हें पहले अटैंड करना चाहिए।’
‘आप प्रसिद्धि से प्रभावित नहीं होते!?’
‘कितने प्रसिद्ध हैं आप? कितने लोग जानते हैं आपको?’
‘हुम.....।  मुश्क़िल सवाल है.....किसी भी हाल में पचास हज़ार से कम तो नहीं जानते होंगे।’
‘कहां से आया ये आंकड़ा आपके पास? प्रामाणिकता क्या है?’
‘........बस, अंदाज़न......
‘मेरे चाचा एक लाख प्रशंसकों वाले आदमी को प्रसिद्ध मानते हैं।’
‘उनकी कसौटी पर भी मैं पचास प्रतिशत सफ़ल तो हूं ही।’
‘मेरे मामा दो लाख वाले को प्रसिद्ध मानते हैं, उनके हिसाब से आप पच्चीस प्रतिशत हैं। मेरी कज़िन चार लाख वाले को मानती है, उसके हिसाब से आपकी अभी शुरुआत है। मेरा दोस्त आठ लाख वाले को मानता है, उसके हिसाब से आप अभी हो ही नहीं। मेरा.....
‘दिलचस्प आदमी हैं आप! चाय लीजिए। साथ क्या लेंगे?’
‘अब मैं चलूं क्या?’
‘कमाल है! आपको रत्ती-भर दिलचस्पी नहीं!?’
‘थोड़ी बची है; लगता है जल्दी ख़त्म हो जाएगी। वैसे आप प्रसिद्ध क्यों हुए?’
‘मुझे सामान्य आदमी होने से नफ़रत है।’
‘आपके प्रशंसकों में कई सामान्य लोग होंगे। उनसे भी नफ़रत है ?’
‘नहीं! आप समझे नहीं.....
‘आप समझे ?’
‘मतलब मेरे ज़्यादातर काम घर बैठे हो जाते हैं.....’

‘यह असभ्यता, अन्याय और बेईमानी के लक्षण हैं। आपकी वजह से कई लोगों के जायज़ काम रोक दिए जाते होंगे, उन्हें चक्कर लगाने पड़ते होंगे........आप अच्छा नहीं कर रहे.....आप समाज को पीछे ले जा रहे हैं....एक सभ्य समाज और देश में सभी लोगों के काम एक जैसे क़ायदे-क़ानूनों के तहत होने चाहिए, भले वे प्रसिद्ध हों, नाप्रसिद्ध हों या कुछ और हों।’
‘आप ख़ामख़्वाह सबको एक ही डंडे से हांक रहे हैं।’
‘मुझे ज़रुरत नहीं ; ज़्यादातर मशहूर लोग हंके ही होते हैं। रुढ़िवादी समाजों में आप प्रसिद्धि की तरफ़ बढ़ते ही तभी हैं जब ख़ुदको कुछ तयशुदा सामाजिक डंडो से हंकवाना मंज़ूर कर लेते हैं।’
‘मतलब?’
‘जैसे अकसर किसी भी प्रसिद्ध आदमी को आप मीडिया के खि़लाफ़ बोलता नहीं पाएंगे, धर्म के खि़लाफ़ बोलता नहीं पाएंगे...... किसी कुरीति, किसी अंधविश्वास, किसी बेईमानी पर भाषण देता पायेंगे भी तो व्यक्तिगत स्तर पर उनका विरोध करता नहीं पाएंगे बल्कि उन्हें ऐसे अवसरों पर ख़ुशी-ख़ुशी शामिल होता देखेंगे।’
‘आप क्या समझते हैं, सभी नास्तिक होते हैं!?’
‘पहली बात तो यह कि मेरी बात का संबंध नास्तिकता से नहीं, बदलाव से है, प्रगतिशीलता से है। दूसरे, प्रसिद्धि तो एक क़िस्म की ऐसी मिनी भगवत्ता है जिसे पाने को नास्तिक भी लालायित रहते हैं।’
‘आप तो बाल की ख़ाल निकालने में विशेषज्ञ मालूम होते हैं!’
‘थोड़ा तोतारटंत और पूर्वाग्रहों को परे रखें और सोचें कि आदमी आखि़र प्रसिद्ध होना क्यों चाहता है! इसीलिए न कि सब उसे जानें, नमस्कार करें, हाथ हिलाएं, ऑटोग्राफ़ मांगें, कहें कि अरे साहब आज तो चींटी के घर भगवान आ गए! या कहें कि कितने लोग आपको जानते हैं फिर भी आप कितने विनम्र हैं! या कहें कि अरे आपको ख़ुद आने की क्या ज़रुरत थी, बोल भर दिया होता, आपका काम हो जाता। लब्बो-लुआब यह कि आप औरों से कुछ अलग़ हैं, कुछ ऊंचे हैं। यह अहंकार नहीं तो क्या है? आप औरों से अलग़ क्यों दिखना चाहते हैं? आपको कैसे मालूम कि आपके प्रसिद्ध होने से समाज का भी कुछ जायज़ फ़ायदा होता है? यह बात अलग़ है कि आप अपने किसी सोर्स से चार काम उल्टे रास्ते से अपने कुछ दोस्तों-रिश्तेदारों के भी करवा दें पर अंततः तो आप जुगाड़वाद को ही बढ़ावा दे रहे होते हैं। नियम भंग करना ही सिखा रहे होते हैं।’
‘आप लस्सी पीएंगे? यहां की लस्सी मशहूर है।’
‘पी चुका हूं। लस्सी वाक़ई अच्छी बनाते हैं। कोई चीज़ अच्छी है इसलिए मशहूर हो जाए, इसमें मैं कतई बुराई नहीं मानता। मगर कोई चीज़ मशहूर है इसलिए हम उसे अच्छा कहने लगें, इससे पता लगता है कि हमने एक ऐसा समाज बना लिया है जहां लोगों की अपनी व्यक्तिगत राय रखने की हिम्मत ख़त्म हो गयी है या व्यक्तिगत रुचियां विकसित होना या बनाए रखना असंभव हो गया है। यह और भी अजीब है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। एक मशहूर आदमी एक दिन नास्तिकता के गीत सुनाकर महफ़िल लूट लेता है। किसी दूसरे दिन वही आदमी अपनी किसी सामाजिक और आर्थिक सफ़लता की ख़ातिर मजमा लगाकर किसी पूजास्थल में चला जाता है। अगर कोई मीडिया, कोई बुद्धिजीवी, कोई आम आदमी इस दोहरेपन पर सवाल नहीं उठाता तो इसे क्या कहेंगे आप!? मुझे तो यही लगता है कि या तो वह समाज सोचने की क्षमता खो चुका है या सवाल करने का साहस खो चुका है। वह समाज उस व्यक्ति की या तो प्रसिद्धि से आक्रांत है या भक्ति में लीन है। मुझे लगता है ज़्यादातर लोग प्रसिद्ध होना भी इसीलिए चाहते हैं कि वे अपने आस-पास भक्तों की क़तार चाहते हैं जो उनके किसी भी कृत्य पर उंगली न उठाएं, उनके हर किए को भक्तिभाव से ग्रहण करते जाएं।’
‘मगर हमारे समाज में ऐसे लोग कम नहीं हैं जो मशहूर होना चाहते हैं।’
‘निश्चय ही। यहां कोई भी आम आदमी नहीं होना चाहता, सब डरते हैं। कोई भी अपना काम कराने को उस लाइन में नहीं लगना चाहता जहां उसका गांव का पुराना दोस्त भोला भी खड़ा है, जहां उसके घर में काम करनेवाली बाई मुनिया भी खड़ी है। उनके साथ खड़ा होने में उसे इसलिए डर लगता है कि उसे कुछ नीचा न समझ लिया जाए। इससे भी पहले उसे यह डर भी होता है कि उसे लाइन में खड़ा होने की वजह से नीचा न मान लिया जाए। यहां हर आदमी थोड़ा-थोड़ा राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री होना चाहता है मगर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से वह उम्मीद करता है कि वे आम आदमी की तरह व्यवहार करें।’
‘बुरा मत मानिएगा, आपने कभी प्रसिद्ध होना नहीं चाहा!?’
‘बिलकुल चाहा। ख़ूब चाहा। मगर आज मैं ईमानदारी से अपने अंदर झांकू तो साफ़ कह सकता हूं कि जितना ज़्यादा मैं ख़ुदको हीन भावना से ग्रस्त, अपमानित और उपेक्षित पाता था उतनी ज़्यादा मेरे अंदर प्रसिद्धि की चाहत बढ़ती जाती थी। प्रसिद्धि की इस चाहत में कहीं न कहीं उन लोगों से बदला लेने या नीचा दिखाने की मानसिकता भी काम करती थी जिन्होंने मुझे अपमानित और शोषित किया था।’
‘तो ?’ 
‘फ़िर मैंने पाया कि ऐसे लोग कहां नहीं है! जिनके बीच मैं प्रसिद्ध होना चाहता हूं, जिनके सहारे मैं प्रसिद्ध होना चाहता हूं, उनमे से कितने लोग उस मानसिकता से अलग़ हैं!?’
‘....और तब आपके अंदर से मशहूर होने की हसरत ख़त्म हो गयी?’
‘नहीं। मगर अब मैं जानता हूं कि प्रसिद्धि मेरी व्यक्तिगत उपलब्धि और अहंकार की तुष्टि से ज़्यादा कुछ नहीं हो सकती। इसे समाज की छाती पर अपने तमग़े की तरह टांकने का कोई अर्थ नहीं। प्रसिद्धि के जो तौर-तरीक़े अपने यहां चलन में हैं उनसे समाज के कुछ नुकसान हों तो हों, फ़ायदे तो ना के बराबर नज़र में आते हैं।’ 
‘आपको कहीं जाने की जल्दी थी! कुछ दूसरा काम करना था?’
‘अब नहीं हैं। सोचता हूं पहले आपका काम ही ठीक से कर लूं।’
‘आप शायद व्यंग्य कर रहे हैं!’
‘हां, कर रहा हूं, मगर किसी बुरी नीयत से नहीं कर रहा। जैसे कि मैं बात कर रहा था हांकने की, हंकवाने की। आप देखिए कि किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि आखि़र तय कैसे होती है, कौन-से पैमाने हैं और तय कौन करता है ? कुछ बड़ेे अख़बार, कुछ मीडिया चैनल, गांव-शहर के कुछ शक्तिशाली गुट......ये मान्यता देते हैं किसी व्यक्ति को कि हां, यह प्रसिद्ध व्यक्ति है या प्रसिद्ध होने लायक व्यक्ति है। और वह प्रसिद्ध या प्रसिद्धि का आकांक्षी व्यक्ति उस मान्यता को स्वीकार करके उसे मान्यता देता है। अगर वह इस मान्यता को अस्वीकार करदे तो उसका आगे का रास्ता मुश्क़िल हो जानेवाला है। क्योंकि अहंकार से जने और सने ऐसे गुट यह बर्दाश्त नहीं कर पाते कि कोई उनके खि़लाफ़ या अलग़ जाकर नाम कर ले। बजाय उसके रास्ते से हट जाने या या उसका सहयोग न करने के ये उसका विरोध शुरु कर देते हैं। कई बार बदनामी करने या अफ़वाहें फ़ैलाने तक पर उतर आते हैं। सवाल यह है कि किसने इन चैनलों को यह मान्यता दी है कि ये किसीको प्रसिद्ध या सफ़ल होने का तमग़ा दें!? क्या इन चैनलों में बैठे लोग आसमान से उतरे हैं? चूंकि एक क़िस्म की सत्ता इनके हाथ लग गयी है इसलिए इनके हर कहे-किए को सर-आंखों पर रखा जाए!? अगर सत्ता को ही सब कुछ मानना है तो फ़िर राजसत्ता को इतनी ग़ालियां देने का क्या अर्थ हुआ? यानि जो सत्ता आपको माफ़िक आती है, मौक़ापरस्ती बरतते हुए उसे ही आप अपना लेते हैं। न हो तो अपनी सत्ता खड़ी कर लेते हैं और ख़ुद भी दूसरों को मान्यता देना शुरु कर देते हैं।’
‘बोलते रहिए’
‘आप सुनते रहिए। सुनिए कि अकसर मशहूर व्यक्ति को किसी दल, किसी वाद, किसी धारा, किसी जाति, किसी वर्ण, किसी गुट से ख़ुदको हंकवाना पड़ता है। जब तक वह ख़ुदको हंकवाता रहता है उसे लगभग बेशर्त्त समर्थन मिलता रहता है। मगर जिस दिन वह ज़रा-सा इधर-उधर होता है, मुश्क़िल में पड़ जाता है। उसका कृतित्व जो कल तक उसे अमर बनाने लायक माना जा रहा था, आज दो कौड़ी का सिद्ध किया जा सकता है।’

(जारी)
-संजय ग्रोवर