17 फ़र॰ 2013

मिनी स्कर्ट और करवा चौथ


‘मेरे ख़्वाबों में जो आए.....’


फ़िल्म समझ में नहीं आई सरल को। करवा-चौथ देखकर तो मन बिलकुल ही उचाट हो गया था। लेकिन गाना जब भी देखता, अच्छा लगता। यह कोई-पूछने बताने की बात नहीं लगती सरल को कि गाना किस भाव से/किस मक़सद से फ़िल्माया गया होगा।
उसी भाव से देखता भी रहा सरल। मगर तौलिया....मिनी स्कर्ट...दोस्त जैसी मां...अनजाने से प्यार...मां-बाप की अनुमति.....परंपरा.....अंततः करवा-चौथ......

यूं सरल ऐसा नहीं मानता कि स्कर्ट पहनने वाली महिला आधुनिक या हर हाल में तार्किक होगी ही होगी......
लड़के या मर्द तो कबसे नेकर पहन रहे हैं...सब आधुनिक तो नहीं हो सके....

हां, कपड़े अगर अपनी समझ और तर्क से आएं बदन पर तो शायद इनका थोड़ा-बहुत संबंध आधुनिकता से हो सकता है। प्रतिक्रिया आवश्यक रुप से प्रगतिशीलता नहीं हो सकती। हालिया गैंग-रेप के कुछ ही दिन बाद शायद फ़ेसबुक पर ही पढ़ा कि यूपी में कहीं स्त्रियों ने कोई गैंग बनाया है, वे पुरुषों को देखकर मुस्कुरातीं हैं और जब वह पुरुष पास आता है तो पिटाई कर देतीं हैं। हवा चली हो तो ऐसे स्टेटस पर लाइक, सुपरलाइक, सलाम, कमाल...का ढेर लग जाता है। पता नहीं यह ख़बर कितना सच थी मगर मैं सोच रहा था कि कितनी अजीब बात है कि पुरुष अगर बेवजह किसी लड़की को देखकर मुस्कुराएगा तब भी वह पिटेगा और स्त्री मुस्कुराएगी तब भी वह पिटेगा। ग़ज़ब फ़िलॉस्फ़ी है, अजब मानने वाले हैं। मगर हवा चली हो, भीड़ का साथ हो तो अंट-संट सब चलता है। और सलाम-सलाम, जय-जयकार सब मिलता है। मगर इस तरह की तार्किकता और सोच को प्रोत्साहन दिया जाएगा तो कलको हमें लौटकर फिर यह भी मानना पड़ेगा कि लक्षमन ने सूपर्णखां की नाक काटकर ठीक ही किया था।

अभी एक दिन किसी चैनल पर अपनी पसंदीदा फ़िल्म ‘बैंडिट क्वीन’ देखने को मिल गयी। उसके ठीक बाद तब्बू वाली ‘अस्तित्व’ शुरु हो गयी। वह भी दोबारा देख डाली। इस बार एक चीज़ अजीब लगी। पति की अनुपस्थिति में तब्बू और मोहनीश बहल का जो संबंध स्थापित होता है उसमें दोनों की बराबर की सहमति है। मगर बच्चा देखने आए मोहनीश बहल को तब्बू जिस क्रूरता से अपनी ज़िंदग़ी से निकाल फ़ेंकती है वह कहीं से भी न तो मानवीय लगता है न तार्किक। उसके पीछे जो तर्क वह देती है वह और भी बेहूदा और लचर है। वह देवी-देवताओं के ज़मानेवाला पाखण्डी और बेईमान तर्क है कि मैं शरीर से तुम्हारे साथ थी मगर मेरी कल्पना में मेरे पति का ही चेहरा था.....वगैरह। ऐसा ही था कुछ। पूछो, थोड़ी देर को इस थोथे और अविश्वसनीय तर्क को मान भी लिया जाय तो दूसरे आदमी का इस बात से क्या लेना कि क्या करते समय तुम्हारे ज़हन में किसका चेहरा था!? अभी मैं किसीको अपनी कार तले कुचल दूं फ़िर उसके घरवालों से कहूं कि यार जाओ, छोड़ो, उसे कुचलते समय मेरी कल्पना में एक बलात्कारी देवता का चेहरा था!

चलेगा, यहां ऐसे ही चलता है। जब भी ऐसी घटनाएं होतीं हैं, हवाओं में शोर भर जाता है कि एक-एक लड़के को बचपन से स्त्रियों का सम्मान करना सिखाना चाहिए।  अतिरेक, अतिश्योक्ति और बनावटीपन को पुनःस्थापित करने की चाहत से भरी यह मांग उसी भावुक भारतीय संस्कृति का हिस्सा है जिससे बीमारियां पैदा होती हैं। बच्चे को सिखाना यह चाहिए कि हर अच्छे इंसान का आदर करो, स्त्री हो, पुरुष हो, उभयलिंगी/लैंगिक विकलांग हो, कोई हो। किसीमें भेद मत करो, सब इंसान एक जैसे हैं। यह कतई अव्यवहारिक सोच है कि सभी स्त्रियों का सम्मान करो। इससे फिर झूठी संस्कृति पैदा होगी। न कोई सब मर्दों का सम्मान कर सकता है न कभी सब स्त्रियों का कर पाएगा। जलनेवाली बहू और जलानेवाली सास का एक साथ सम्मान कैसे संभव है? ससुर के मुंह पर थूकनेवाले दामाद और ससुर का एक साथ सम्मान संभव नहीं है। नमस्ते, हाय, हलो यानि रोज़ाना का अभिवादन अलग़ बात है, सम्मान दिल और दिमाग़ की गहराई से उठनेवाला भाव है। अगर लड़कों से ज़बरदस्ती सभी स्त्रियों का सम्मान कराया जाएगा तो उन्हें पाखण्ड ही करना पड़ेगा जैसा अब तक स्त्रियों को करना पड़ता था। इधर की बीमारी उधर शिफ्ट हो जाएगी।

‘होना/सोना किसी ख़ूबसूरत दुश्मन के साथ’ प्रसंग की तरह लेख का ग़लत पाठ करके बहसों को भटकानेवाले षड्यंत्रकारी और कमसमझ लोगों को यह भी बता दूं कि किसीका सम्मान न करने का मतलब यह नहीं होता कि उसका अपमान किया जा रहा है।

इस तरह मजबूरी के सम्मान के बाद दिल में रह गयी ख़लिश की किरचें बाद में परेशान करतीं हैं, चैनो-सुक़ून छीन लेतीं हैं।

‘‘जब भी मुझे ज़रुरत होगी आप आ जाया करोगे?’’

जवाब न देने से कैसी छटपटाहट बची रह गयी! उसी वक्त कह देना था, अच्छा मुझे क्या सिर्फ़ शरीर समझा है!? यही बात मैंने कह दी होती तो मेल शॉविनिस्ट और न जाने क्या-क्या उपाधियां मिल गयी होतीं। और कड़कड़ाती ठंड में रात बारह बजे फ़ोन-सेक्स की मांग, सामने कमरे में मां बीमार पड़ी है। ऊपर से हुक्म कि तो क्या हुआ, दरवाज़ा खोलकर घर से बाहर भी तो आया जा सकता है।

कमाल है! कौन है यह? जो समझा था उसका तो कोई चिन्ह कहीं दिखाई देता नहीं! निन्यानवें प्रतिशत हरकतें तो शातिर मर्दों वाली ही हैं। इन्होंने क्या किसीको आज़ादी दिलानी है! इनकी सोच और हरकतें तो बिलकुल उनके जैसी ही हैं जिनसे इन्हें आज़ादी चाहिए।

पर क्या करें, कोई देश, कोई समाज जिस संस्कृति की वजह से Qतियों की जन्नत बन गया हो, उसीपर वार करने के अलावा हर चीज़ पर वार किया जा रहा हो। पाखण्डी संस्कृति के जाल में कसमसाते-छटपटाते समाज में पाखण्डी और Qतियों (वे मेल हों कि फ़ीमेल हों कि बेमेल हों) की मौज ही मौज ही मौज होती है। मौक़ापरस्त हर जगह अपने लिए ऐशो-इशरत का रास्ता खोज लेता है। एक ठग संस्कृति में, जहां हर जगह शीर्ष पर ठग ही ठग बैठे हों, पके-पकाए ठग पहले कपोल-कल्पित कहानियों के ज़रिए समाज को ठगते हैं, फ़िर उन ठगियों से पीछा छुड़ाने के नाम पर भी उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी ही ठगते हैं।

इस ठग-संस्कृति से छुटकारा पाने के अलावा और कोई रास्ता हो सकता है क्या?

जैसे पेट में पथरी के टुकड़े परेशान करते हैं वैसे ही पाखण्डी संस्कृति से उपजे आचरण के बाद ज़हनो-दिल में जाने कितने टुकड़े बचे रह जाते हैं, कुछ अपने कुछ दूसरों के....

पहले जो मर्दो ने मेरे साथ किया अब मैं उनके साथ करुंगी.....

सोचने की बात है, जो कर गए उनके तो मज़े ही मज़े हैं, उनका तो बाल बांका नहीं होगा, भुगतेगा आनेवाला, जो हुआ था उससे कोई लेना-देना भी नहीं है उसका। वह मुफ्त में सूली चढ़ जाएगा।
मगर हवा जो चली है। उसमें यही होता है।

इधर विरोध चलता है एक संपादक का कि स्त्री-विमर्श को देह-विमर्श बना दिया। साथ ही यह भी चलता है कि मैं कितनी भी छोटी स्कर्ट पहनूं, किसीको क्या? दूसरा जुमला सुनाई पड़ता है मैं एक साथ आठ के साथ संबंध रखूं तो तुम्हे क्या? तो यही तो संपादक जी कह रहे थे! थोड़ी-सी अक्ल हो तो समझा जा सकता है कि खेल संपादक जी को बदनाम करके उनके मुद्दे ख़ुद हथिया लेने का रहा। संपादक जी हिम्मतवाले थे, साफ़ शब्दों में कह रहे थे। हथियानेवाले अधकचरे ढंग से ही कहेंगे। शुक्र है कहीं कोई यह नहीं कह रहा कि देखो कितना बदलाव आ गया। देखो छोटे डब्बे पर ब्रहममहूर्त्त में एक लड़की मिनी स्कर्ट पहनकर सती होगी। हर चैनल पर ‘लाइव’ ज़िंदा जलेगी।

ऐसे अधकचरे माहौल में स्कर्ट के साथ करवाचौथ अगर बिलकुल भी परेशान नहीं करता तो बहुत हैरानी की बात नहीं है।

-संजय ग्रोवर






3 फ़र॰ 2013

प्रसिद्ध व्यक्ति से एक अनपेक्षित बातचीत




‘हलो! आगे कहां निकले जा रहे हो?’
‘कमाल है! जहां मुझे जाना था वहीं जा रहा हूं।’
‘हाथ क्यों हिलाया था मुझे देखकर ?’
‘किसने हिलाया? चलते वक्त मेरा सारा ध्यान तो अपने शरीर का संतुलन बनाने में ही लगा रहता है! आपको ग़लतफ़हमी हुई है ; मच्छर-वच्छर उड़ाया होगा या अपने बाल ठीक कर रहा होऊंगा।’
‘आपने पहचाना नहीं मुझे!?’
‘पहचानने की बात ही कहां से आई!?’
‘अरे भाई! मशहूर आदमी हूं, हर कोई जानता है।’
‘मैं नहीं जानता।’
‘ओह! चलिए एक-एक कप चाय हो जाए।’
‘देखिए, मुझे दूसरे काम हैं। और साफ़ बता दूं कि चाय पीकर मैं आपकी तारीफ़ करुं, ज़रुरी नहीं....
‘अरे आप बैठिए तो! देखिए सभी लोग मेरी तरफ़ देख रहे हैं।’
‘.............................’
‘वह देखिए, वेटर सारी टेबल छोड़कर हमारी तरफ़ आ रहा है।’
‘ग़लत बात है। जो लोग पहले आए हैं उन्हें पहले अटैंड करना चाहिए।’
‘आप प्रसिद्धि से प्रभावित नहीं होते!?’
‘कितने प्रसिद्ध हैं आप? कितने लोग जानते हैं आपको?’
‘हुम.....।  मुश्क़िल सवाल है.....किसी भी हाल में पचास हज़ार से कम तो नहीं जानते होंगे।’
‘कहां से आया ये आंकड़ा आपके पास? प्रामाणिकता क्या है?’
‘........बस, अंदाज़न......
‘मेरे चाचा एक लाख प्रशंसकों वाले आदमी को प्रसिद्ध मानते हैं।’
‘उनकी कसौटी पर भी मैं पचास प्रतिशत सफ़ल तो हूं ही।’
‘मेरे मामा दो लाख वाले को प्रसिद्ध मानते हैं, उनके हिसाब से आप पच्चीस प्रतिशत हैं। मेरी कज़िन चार लाख वाले को मानती है, उसके हिसाब से आपकी अभी शुरुआत है। मेरा दोस्त आठ लाख वाले को मानता है, उसके हिसाब से आप अभी हो ही नहीं। मेरा.....
‘दिलचस्प आदमी हैं आप! चाय लीजिए। साथ क्या लेंगे?’
‘अब मैं चलूं क्या?’
‘कमाल है! आपको रत्ती-भर दिलचस्पी नहीं!?’
‘थोड़ी बची है; लगता है जल्दी ख़त्म हो जाएगी। वैसे आप प्रसिद्ध क्यों हुए?’
‘मुझे सामान्य आदमी होने से नफ़रत है।’
‘आपके प्रशंसकों में कई सामान्य लोग होंगे। उनसे भी नफ़रत है ?’
‘नहीं! आप समझे नहीं.....
‘आप समझे ?’
‘मतलब मेरे ज़्यादातर काम घर बैठे हो जाते हैं.....’

‘यह असभ्यता, अन्याय और बेईमानी के लक्षण हैं। आपकी वजह से कई लोगों के जायज़ काम रोक दिए जाते होंगे, उन्हें चक्कर लगाने पड़ते होंगे........आप अच्छा नहीं कर रहे.....आप समाज को पीछे ले जा रहे हैं....एक सभ्य समाज और देश में सभी लोगों के काम एक जैसे क़ायदे-क़ानूनों के तहत होने चाहिए, भले वे प्रसिद्ध हों, नाप्रसिद्ध हों या कुछ और हों।’
‘आप ख़ामख़्वाह सबको एक ही डंडे से हांक रहे हैं।’
‘मुझे ज़रुरत नहीं ; ज़्यादातर मशहूर लोग हंके ही होते हैं। रुढ़िवादी समाजों में आप प्रसिद्धि की तरफ़ बढ़ते ही तभी हैं जब ख़ुदको कुछ तयशुदा सामाजिक डंडो से हंकवाना मंज़ूर कर लेते हैं।’
‘मतलब?’
‘जैसे अकसर किसी भी प्रसिद्ध आदमी को आप मीडिया के खि़लाफ़ बोलता नहीं पाएंगे, धर्म के खि़लाफ़ बोलता नहीं पाएंगे...... किसी कुरीति, किसी अंधविश्वास, किसी बेईमानी पर भाषण देता पायेंगे भी तो व्यक्तिगत स्तर पर उनका विरोध करता नहीं पाएंगे बल्कि उन्हें ऐसे अवसरों पर ख़ुशी-ख़ुशी शामिल होता देखेंगे।’
‘आप क्या समझते हैं, सभी नास्तिक होते हैं!?’
‘पहली बात तो यह कि मेरी बात का संबंध नास्तिकता से नहीं, बदलाव से है, प्रगतिशीलता से है। दूसरे, प्रसिद्धि तो एक क़िस्म की ऐसी मिनी भगवत्ता है जिसे पाने को नास्तिक भी लालायित रहते हैं।’
‘आप तो बाल की ख़ाल निकालने में विशेषज्ञ मालूम होते हैं!’
‘थोड़ा तोतारटंत और पूर्वाग्रहों को परे रखें और सोचें कि आदमी आखि़र प्रसिद्ध होना क्यों चाहता है! इसीलिए न कि सब उसे जानें, नमस्कार करें, हाथ हिलाएं, ऑटोग्राफ़ मांगें, कहें कि अरे साहब आज तो चींटी के घर भगवान आ गए! या कहें कि कितने लोग आपको जानते हैं फिर भी आप कितने विनम्र हैं! या कहें कि अरे आपको ख़ुद आने की क्या ज़रुरत थी, बोल भर दिया होता, आपका काम हो जाता। लब्बो-लुआब यह कि आप औरों से कुछ अलग़ हैं, कुछ ऊंचे हैं। यह अहंकार नहीं तो क्या है? आप औरों से अलग़ क्यों दिखना चाहते हैं? आपको कैसे मालूम कि आपके प्रसिद्ध होने से समाज का भी कुछ जायज़ फ़ायदा होता है? यह बात अलग़ है कि आप अपने किसी सोर्स से चार काम उल्टे रास्ते से अपने कुछ दोस्तों-रिश्तेदारों के भी करवा दें पर अंततः तो आप जुगाड़वाद को ही बढ़ावा दे रहे होते हैं। नियम भंग करना ही सिखा रहे होते हैं।’
‘आप लस्सी पीएंगे? यहां की लस्सी मशहूर है।’
‘पी चुका हूं। लस्सी वाक़ई अच्छी बनाते हैं। कोई चीज़ अच्छी है इसलिए मशहूर हो जाए, इसमें मैं कतई बुराई नहीं मानता। मगर कोई चीज़ मशहूर है इसलिए हम उसे अच्छा कहने लगें, इससे पता लगता है कि हमने एक ऐसा समाज बना लिया है जहां लोगों की अपनी व्यक्तिगत राय रखने की हिम्मत ख़त्म हो गयी है या व्यक्तिगत रुचियां विकसित होना या बनाए रखना असंभव हो गया है। यह और भी अजीब है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। एक मशहूर आदमी एक दिन नास्तिकता के गीत सुनाकर महफ़िल लूट लेता है। किसी दूसरे दिन वही आदमी अपनी किसी सामाजिक और आर्थिक सफ़लता की ख़ातिर मजमा लगाकर किसी पूजास्थल में चला जाता है। अगर कोई मीडिया, कोई बुद्धिजीवी, कोई आम आदमी इस दोहरेपन पर सवाल नहीं उठाता तो इसे क्या कहेंगे आप!? मुझे तो यही लगता है कि या तो वह समाज सोचने की क्षमता खो चुका है या सवाल करने का साहस खो चुका है। वह समाज उस व्यक्ति की या तो प्रसिद्धि से आक्रांत है या भक्ति में लीन है। मुझे लगता है ज़्यादातर लोग प्रसिद्ध होना भी इसीलिए चाहते हैं कि वे अपने आस-पास भक्तों की क़तार चाहते हैं जो उनके किसी भी कृत्य पर उंगली न उठाएं, उनके हर किए को भक्तिभाव से ग्रहण करते जाएं।’
‘मगर हमारे समाज में ऐसे लोग कम नहीं हैं जो मशहूर होना चाहते हैं।’
‘निश्चय ही। यहां कोई भी आम आदमी नहीं होना चाहता, सब डरते हैं। कोई भी अपना काम कराने को उस लाइन में नहीं लगना चाहता जहां उसका गांव का पुराना दोस्त भोला भी खड़ा है, जहां उसके घर में काम करनेवाली बाई मुनिया भी खड़ी है। उनके साथ खड़ा होने में उसे इसलिए डर लगता है कि उसे कुछ नीचा न समझ लिया जाए। इससे भी पहले उसे यह डर भी होता है कि उसे लाइन में खड़ा होने की वजह से नीचा न मान लिया जाए। यहां हर आदमी थोड़ा-थोड़ा राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री होना चाहता है मगर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से वह उम्मीद करता है कि वे आम आदमी की तरह व्यवहार करें।’
‘बुरा मत मानिएगा, आपने कभी प्रसिद्ध होना नहीं चाहा!?’
‘बिलकुल चाहा। ख़ूब चाहा। मगर आज मैं ईमानदारी से अपने अंदर झांकू तो साफ़ कह सकता हूं कि जितना ज़्यादा मैं ख़ुदको हीन भावना से ग्रस्त, अपमानित और उपेक्षित पाता था उतनी ज़्यादा मेरे अंदर प्रसिद्धि की चाहत बढ़ती जाती थी। प्रसिद्धि की इस चाहत में कहीं न कहीं उन लोगों से बदला लेने या नीचा दिखाने की मानसिकता भी काम करती थी जिन्होंने मुझे अपमानित और शोषित किया था।’
‘तो ?’ 
‘फ़िर मैंने पाया कि ऐसे लोग कहां नहीं है! जिनके बीच मैं प्रसिद्ध होना चाहता हूं, जिनके सहारे मैं प्रसिद्ध होना चाहता हूं, उनमे से कितने लोग उस मानसिकता से अलग़ हैं!?’
‘....और तब आपके अंदर से मशहूर होने की हसरत ख़त्म हो गयी?’
‘नहीं। मगर अब मैं जानता हूं कि प्रसिद्धि मेरी व्यक्तिगत उपलब्धि और अहंकार की तुष्टि से ज़्यादा कुछ नहीं हो सकती। इसे समाज की छाती पर अपने तमग़े की तरह टांकने का कोई अर्थ नहीं। प्रसिद्धि के जो तौर-तरीक़े अपने यहां चलन में हैं उनसे समाज के कुछ नुकसान हों तो हों, फ़ायदे तो ना के बराबर नज़र में आते हैं।’ 
‘आपको कहीं जाने की जल्दी थी! कुछ दूसरा काम करना था?’
‘अब नहीं हैं। सोचता हूं पहले आपका काम ही ठीक से कर लूं।’
‘आप शायद व्यंग्य कर रहे हैं!’
‘हां, कर रहा हूं, मगर किसी बुरी नीयत से नहीं कर रहा। जैसे कि मैं बात कर रहा था हांकने की, हंकवाने की। आप देखिए कि किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि आखि़र तय कैसे होती है, कौन-से पैमाने हैं और तय कौन करता है ? कुछ बड़ेे अख़बार, कुछ मीडिया चैनल, गांव-शहर के कुछ शक्तिशाली गुट......ये मान्यता देते हैं किसी व्यक्ति को कि हां, यह प्रसिद्ध व्यक्ति है या प्रसिद्ध होने लायक व्यक्ति है। और वह प्रसिद्ध या प्रसिद्धि का आकांक्षी व्यक्ति उस मान्यता को स्वीकार करके उसे मान्यता देता है। अगर वह इस मान्यता को अस्वीकार करदे तो उसका आगे का रास्ता मुश्क़िल हो जानेवाला है। क्योंकि अहंकार से जने और सने ऐसे गुट यह बर्दाश्त नहीं कर पाते कि कोई उनके खि़लाफ़ या अलग़ जाकर नाम कर ले। बजाय उसके रास्ते से हट जाने या या उसका सहयोग न करने के ये उसका विरोध शुरु कर देते हैं। कई बार बदनामी करने या अफ़वाहें फ़ैलाने तक पर उतर आते हैं। सवाल यह है कि किसने इन चैनलों को यह मान्यता दी है कि ये किसीको प्रसिद्ध या सफ़ल होने का तमग़ा दें!? क्या इन चैनलों में बैठे लोग आसमान से उतरे हैं? चूंकि एक क़िस्म की सत्ता इनके हाथ लग गयी है इसलिए इनके हर कहे-किए को सर-आंखों पर रखा जाए!? अगर सत्ता को ही सब कुछ मानना है तो फ़िर राजसत्ता को इतनी ग़ालियां देने का क्या अर्थ हुआ? यानि जो सत्ता आपको माफ़िक आती है, मौक़ापरस्ती बरतते हुए उसे ही आप अपना लेते हैं। न हो तो अपनी सत्ता खड़ी कर लेते हैं और ख़ुद भी दूसरों को मान्यता देना शुरु कर देते हैं।’
‘बोलते रहिए’
‘आप सुनते रहिए। सुनिए कि अकसर मशहूर व्यक्ति को किसी दल, किसी वाद, किसी धारा, किसी जाति, किसी वर्ण, किसी गुट से ख़ुदको हंकवाना पड़ता है। जब तक वह ख़ुदको हंकवाता रहता है उसे लगभग बेशर्त्त समर्थन मिलता रहता है। मगर जिस दिन वह ज़रा-सा इधर-उधर होता है, मुश्क़िल में पड़ जाता है। उसका कृतित्व जो कल तक उसे अमर बनाने लायक माना जा रहा था, आज दो कौड़ी का सिद्ध किया जा सकता है।’

(जारी)
-संजय ग्रोवर