11 जुल॰ 2013

पितृसत्ता का पिता पाखण्ड

10/11-07-2013

राजधानी आए सरल को शायद साल-भर हुआ होगा, कॉलोनी की एक शांत सड़क पर दोस्त के साथ टहल रहा था कि-

‘ओए, ए’

एक कड़क और बुलंद आवाज़। पुलिस जैसी कद-काठी वाली एक स्त्री ने एक स्कूटर-सवार को रोका। लड़का-सा ही था। स्त्री तड़ातड़ शुरु हो गई, वह लड़के को तमाचे पर तमाचे मार रही थी, ग़ालियां दे रही थी और चिल्ला-चिल्लाकर कुछ इल्ज़ाम लगा रही थी-स्साल्ले को स्कूटर दे रखा है, सारा ख़र्चा उठाती हूं, घर दे रखा है, खाना देती हूं, सब देती हूं....साला फिर भी दूसरी लड़कियों के साथ घूमता है..........

लोग अवाक्, स्तब्ध देख रहे थे और सुन रहे थे....

कम-अज़-कम 8 साल तो हो ही गए होंगे इस घटना को। शब्द थोड़ा इधर-उधर होंगे मगर मंतव्य लगभग यही था। वह स्त्री बिलकुल वही बातें कह रही थी जो कोई मर्दवादी मर्द अपनी आश्रिता से कहता है।

सरल ने स्त्री-सत्ता भी देखी है जीवन में, अघोषित स्त्री-सत्ता। दरबार जैसा लगा है, पुरुष भी आ-आकर स्त्री से सलाह ले रहे हैं, स्त्री के फ़ैसले बड़ी गंभीरता से लिए जा रहे हैं। मगर स्त्री फ़ैसले क्या ले रही है? फ़ैसले वह वही ले रही है जो कोई भी रुढ़िवादी पुरुष लेता है। घर में अन्य स्त्रियों की हालत क्या है? वह भी रुढ़िवादी घरों जैसी ही है। फ़र्क कोई है तो इतना कि खाना-कपड़ा अच्छा मिल रहा है, दूसरों की उपस्थिति में थोड़ा-बहुत दूसरे पुरुषों से हंसा-बोला भी जा सकता है.....

सरल आजकल पितृसत्ता से नाराज़ स्त्रियों के स्टेटस वगैरह देखता है, एक दिलचस्प समानता वहां दिखाई देती है, उनमें से कई अकसर अपने पिताओं की तारीफ़ करती पायी जातीं हैं, मांओं के नाम भी कहीं-कहीं आ जाते हैं भूले-भटके.....

पिता हीरो हैं, पितृसत्ता से घृणा है! बात कुछ अजीब तो लगती है।

पिछले दिनों एक विज्ञापन भी देखता रहा सरल जिसमें एक लड़की अपने ब्वायफ्रैंड या फ़ियांसी को बता रही है-‘मैंने लड़कों को भी छेड़ा है।’

सरल को आज तक यह नहीं समझ में आया कि जो आप अपने प्रति ग़लत समझते हैं वही दूसरे से करके नायकत्व कैसे महसूस कर सकते हैं!? कह सकते हैं कि स्त्रियों की तो अभी शुरुआत है, थोड़ी-बहुत बदले की भावना तो रहती है मन में। चलिए यह बात यहां छोड़ी।

कुछ दिन पहले फ़ोन पर एक मित्र से बात हो रही थी, उसका कहना था कि जो महिला कुछ जुगाड़बाज़ी करके कैरियर बनाती है, संभवतः एक क़ाबिल महिला का हक़ तो छीनती ही है। बात को ज़रा खोल कर समझें-एक स्त्री किसी मर्द के साथ सोकर अपना काम निकालती है, ठीक है, किसीको क्या लेना-दो का आपस का मामला है। समस्या वहां से शुरु होती है जब वह स्त्री ख़ुदको भारी संघर्षशील और विद्रोही की तरह प्रोजेक्ट करती है। पुरुष तो यह काम पहले से ही कर रहा है; थोड़ा-सा फ़र्क़ यही है कि पुरुष आम-तौर पर इसे संघर्ष तो कहता है, विद्रोह से नहीं जोड़ता। और सरल ऐसा कहने में किसी माफ़ी की दरकार नहीं समझता कि भारत में ज़्यादातर मामलों में ऐडजस्टमेंट को ही संघर्ष कहा जाता रहा है। इस मामले में स्त्री और पुरुष के एक जैसे हाल हैं, होंगे ही। वजह है पाखण्ड की हमारी संस्कृति। मामला पितृसत्ता और मातृसत्ता का नहीं है-उससे कतई कोई समस्या हल होनेवाली नहीं है। असल जड़ तो पोंगे धर्म और पाखण्डी संस्कृति में छिपी है। कोई सत्ता ज़्यादा दिन अहंकार से मुक्त नहीं रहती, रह नहीं सकती। असल में तो अहंकारी को ही सत्ता की कामना और ज़रुरत ज़्यादा होती है। वरना सत्ता की ऐसी ज़रुरत भी क्या है!? जो भी घर में क़ाबिल हो उसे कामचलाऊ सत्ता दे दी जाए-चाहे वह पुरुष हो चाहे स्त्री। सही बात तो यह है कि समानता जब आ जाएगी तो घर को किसी मुखिया की ज़रुरत होगी भी क्यों!?

अभी एक आंदोलन हुआ जिसमें एक वृद्ध सज्जन बार-बार कहते कि ‘नेता हमारे मालिक़ नहीं है, अरे मालिक तो हम हैं, तुम्हे तो हमने नौकर बनाके भेजा था....

सुनने में ऐसे डॉयलॉग अच्छे बहुत लगते हैं मगर व्यवहार में सोचें तो इस तरह के नुस्ख़े परिवर्त्तन के वाहक नहीं हो सकते। अरे, जब मालिक़ होना बुरी बात है तो तुम्हे भी क्यों होना चाहिए मालिक़!?

इस तरह की बातें समानता का आधार नहीं हो सकतीं!

12-07-2013

सरल अपने अनुभव से देखे तो यह बिलकुल भी ज़रुरी नहीं है कि बेटियों को बढ़ावा देनेवालें मां-बाप प्रगतिशील ही हों। कतई नहीं। मामला कुछ और ही है। बात यह है कि मां-बाप को चाहिए सफ़ल औलाद, दुनियादार औलाद, झट से काम निकाल के ले आनेवाली औलाद। और एक बेईमान और पाखण्डी समाज में काम निकालने के लिए भी, और कथित सफ़लता के लिए भी, आपको वैसा ही होना पड़ेगा जैसा समाज है। और अगर बेटी वैसी निकल आए तो पिता का प्यार उधर को शिफ़्ट होने लगता है। तब और भी ज़्यादा होता है जब उसे बेटे का वैसा न हो पाने का ग़म साल रहा हो।

दो पिता तो सरल को सफ़र में ऐसे मिले हैं जिन्होंने पहली बार की मुलाक़ात में ही बेटी की तारीफ़ और बेटे की बुराई शुरु कर दी।

और ऐसे पिता बेटों के साथ वही दुर्व्यवहार शुरु कर देते हैं जो वे अब तक बोझ लगनेवाली बेटियों के साथ करते आए होते हैं। ज़ाहिर है कि यहां बेटियों को ऐसे पिता महान नज़र आते हैं। साधारण बुद्धि का आदमी तो सीधा गणित जानता है। कि जो मेरा फ़ायदा करा रहा है वह अच्छा आदमी है, महान शख़्सियत है। मुझे उसकी तारीफ़ करनी चाहिए।

और सरल को कोई हैरानी नहीं होगी अगर कलको लोग बेटा पैदा होते ही उसे ज़मीन में गाड़ दिया करें। सवाल बेटे-बेटी का है ही नहीं। पेंच तो यह है कि एक स्वार्थी, लालची, पाखण्डी और अंधा समाज ख़ुदको त्यागी, अध्यात्मिक, सामाजिक और न जाने क्या-क्या माने बैठा है। और जिस एकमात्र पड़ोसी या पुराने भाई से वह रोज़ाना लड़ता फिरता है, वह धर्म संस्कृति के मामले में उससे भी दो हाथ आगे है, सवा सेर है।

सोए हुए लोगों के हाथ जनजागरण का उस्तरा लग जाए तो कुछ भी संभव है।

14-07-2013

झूठ बोलने से समस्याएं हल नहीं होतीं। वे समस्याएं तो बिलकुल भी हल नहीं होतीं जो पैदा ही झूठ की वजह से हुई हों। झूठ से लोग ख़ुश ज़रुर हो जाते हैं, झूठे लोग और जल्दी ख़ुश होते हैं। आप स्त्रियों से उनकी अंधाधुंध तारीफ़ करें, ज़्यादातर ख़ुश होंगीं। कई तथाकथित नारीवादियों को सरल देखता है, वे यही करते नज़र आते हैं। नारीवाद का कोई विपरीत तार्किक विश्लेषण देखते ही वे भड़क जाते हैं। या शायद भड़क जाने का अभिनय करते हैं। इन्हें देखकर कई बार उन छोकरों की याद आती है जो पीछे तो लड़कियों की मां-बहिन करते मगर सामने उनकी पलक, आंख, नाक, आवाज़, अंदाज़, संस्कार और न जाने किस-किसकी आरती जैसी उतार देते। ज़ाहिर है कि इस आरतीनुमा से लड़कियां जल्दी प्रभावित हो जाया करतीं और जल्दी क़रीब आ जाया करतीं।

मगर क्या इस तरह के नुस्ख़े औरतें की समस्याएं जल्दी सुलझा देंगे!?

थोड़ा-सा ईमानदार होकर हमें देखना चाहिए कि बच्चों के प्रति हमारा नज़रिया क्या रहा है! बच्चे कोई बच्चों की ख़ुशी के लिए नहीं पैदा करता। निस्वार्थ भाव से भी पैदा नहीं करता। यह ठीक है कि मां-बाप छोटे बच्चों का बहुत ध्यान रखते हैं, पैसा ख़र्च करते हैं, समय देते हैं, करज़ा लेकर पालते हैं, रात-रातभर जाग-जागकर पालते हैं, सब सही है। मगर यह भी सही है कि जिस दिन मां-बाप को लगता है कि बच्चे से वह नहीं मिला जिसकी उन्हें अपेक्षा थी, उनका व्यवहार बदलने लगता है। बेटे-बेटी में छोड़िए, वे बेटे-बेटे में और बेटी-बेटी में भी भेद करते हैं। अगर निस्वार्थ पैदा करने की बात सही होती तो कैसे कोई बेटियों को मार डालता या उनसे दुर्व्यवहार करता!? स्त्रियों से मां-बा पके इस दुर्व्यवहार की वजह!? उनसे उनके स्वार्थ नहीं पूरे होते। जहां-जहां हो रहे हैं, लड़कियां भी नाम कर रही हैं, प्रतिष्ठा बढ़ा रही हैं, पैसा ला रही हैं, मां-बापों का ‘प्रेम’ उनपर ‘उमड़’ रहा है। आसानी यह भी हो गयी है कि सामाजिक माहौल अब थोड़ा-थोड़ा इस प्रेम को भी स्वीकृति दे रहा है।

मगर विश्लेषण की बात यहां यह है कि क्या यह वाकई प्रेम है!? क्या यही प्रगतिशीलता भी है!?

(जारी)


-संजय ग्रोवर


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