28 दिस॰ 2010

सिर्फ़ पाले बदल जाएंगे

सरल बताता है कि उसे उस ऐपिसोड का काफ़ी बड़ा हिस्सा मिल गया है देखने को। राखी वहां ग़लत भी नहीं है। लेकिन वे जिस तरह ‘मर्द’, नामर्द’ और ‘नपुंसक’ जैसे शब्दों का प्रयोग करतीं हैं वह दिखाता है कि आधुनिक होती दिखती स्त्री अभी मर्द-मानसिकता बल्कि वर्चस्ववादी मानसिक अनुकूलन से बाहर नहीं निकल पायी है जहां हर तरह की बहादुरी के लिए एक ही शब्द का बार-बार प्रयोग होता है-मर्दानगी। और यह या ऐसे संबोधन औरत में उसके औरत होने को लेकर कमतरी का अहसास कराते हैं। राखी लक्षमण को कायर, डरपोक, अपराधी, घुन्ना या ऐसा ही कुछ और कह सकतीं थीं।
राखी को छोड़िए, सरल ने कई समझदार लोगों को यह कहते पाया कि ‘औरत का तो मैं बहुत सम्मान करता हूं।’
सरल को हैरानी होती है।
क्यों भई, बात-बेबात, बिना सोचे-समझे किसी भी औरत का सम्मान क्यों करने लग पड़ते हो आप !? फिर तो आप उस सास का भी सम्मान करोगे जिसने बहू को जला दिया !? आप उस सरगना औरत का भी सम्मान करोगे जो लड़कियां खरीदती-बेचती है, धंधे में उतारने से पहले उसे भूखा रखती है, गुर्गों से बलात्कार तक करवा डालती है।
सम्मान किसी का भी हो सकता है जिसमें अच्छाई हो, अलग से सिर्फ़ औरत का सम्मान क्यों ?
यह दरअसल बीमारी को ख़त्म करने की बजाय इधर से उधर शिफ्ट कर देने जैसा है।
कलको सारे चुटकले औरत की अतार्किक हंसी उड़ाते थे, अब मर्द की उड़ाने लगेंगे। आज तक जो ज़ुल्म मर्द कर रहा है, औरत करने लगेगी। कर भी रहीं हैं।
शोर उट्ठेगा कि नहीं-नहीं, औरत ऐसा कैसे कर सकती है, वह तो त्याग की मूर्ति है, करुणा की देवी है। औरत, मर्द से कहीं ज़्यादा संवेदनशील होती है।
यही, एक-दूसरे पर श्रेष्ठता के दावे धार्मिक और लैंगिक बीमारियों की जड़ है।
औरत की आंखों की जो बेचारगी हमें करुणा लगती है, ध्यान से देखें तो वही करुणा भूख से मरते किसान और इंसान होने के बोध से नावाकिफ़, गालियां खाते सफ़ाई कर्मचारी की आंखों में भी दिख जाएगी। आदमी जितना ज़्यादा मजबूर होता है उतना ज्यादा करुणाजनक लगता है। जैसे-जैसे समर्थ होता है, उसका असली स्वभाव बाहर आना शुरु होता है। सरल नहीं कहता कि मजबूर को समर्थ नहीं बनना चाहिए। लेकिन करुणा और संवेदना को औरत और मर्द में बांटने से ज़्यादा कुछ निकलने वाला लगता नहीं।
फिर तो ऐसे बेवकूफ़ी भरे आश्चर्यों से छुटकारा पाने की उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिए कि ‘हाय ! औरत ही औरत की दुश्मन कैसे हो गयी ?’
इंसान, इंसान से लड़ता है, मर्द, मर्द के खि़लाफ़ षडयंत्र करता है, कुत्ता, कुत्ते पर भौंकता है। इसमें हैरानी नहीं तो औरत से औरत की दुश्मनी पर इतनी हैरानी क्यों !?
कलको एक महिला सिपाही एक महिला जेबकतर को जेल ले जाती दिखेगी तो भी यही कहेंगे क्या कि हाय ! देखो मैं कहता था न औरत ही औरत की दुश्मन है’ !
सीधी बात कि एक इंसान ने ग़लती की और दूसरा इंसान जिसपर व्यवस्था का जिम्मा है, उसे पकड़कर ले जा रहा है।
काहे उलझा रहे हो चीज़ों को, भाई ?
पर हवा ? अंधी पक्षधरता ? उसका क्या करें ?
एक हवा पहले चलती थी कि औरतें तो सब मूर्ख होतीं हैं, उनकी अक़्ल घुटनों में होती है।
एक हवा अब चली है कि मर्द साले, सबके सब सुअर, मेल शॉविनिस्ट !
अरे पहले बीमार मानसिकता को ठीक से समझ तो लो, फिर उसे ख़त्म करने के उपाय सोचो, करो।
उसे उधर से इधर, इधर से उधर शिफ्ट मत करते चले जाओ। कुछ नहीं निकलेगा। सिर्फ़ पाले बदल जाएंगे।

-संजय ग्रोवर

22 दिस॰ 2010

नामर्द और नाइंसान में कौन बेहतर !?

कई दिन से पढ़ रहा है सरल। डेढ़ साल से ज़्यादा हुआ, टी.वी. नहीं देखा। रिकॉर्डिंग मिल जाएगी यूट्यूब पर। देख सकता है। नेट की सुविधा तो है न उसके पास।
अपने शो में राखी ने किसी को नामर्द कह दिया। लक्ष्मण नाम बताते हैं उसका। लक्ष्मण ने आत्महत्या कर ली। क्या दोष था लक्ष्मण का ? और क्या दोष दें राखी को !
नामर्द कहलाने से पुरुष कितना डरता आया है, सरल से बेहतर कौन जानता है ?
वही संस्कार लक्ष्मण के और वही समझ राखी की।
भीड़ और हवा की ग़ुलामी।
कोई अपनी मर्ज़ी से लैंगिक विकलांग नहीं होता। कोई अपनी मर्ज़ी से दलित नहीं होता, स्त्री नहीं होता, पुरुष नहीं होता। तो अपनी मर्ज़ी से नामर्द क्यों होगा !?
शायद ऐसे भी उदाहरण रहे हों कि किसी औरत को ‘ठंडी’, ‘बांझ’, ‘फ्लैटचैस्टेड’(वक्ष विहीन) कहा गया हो और उसने आत्महत्या कर ली हो !
सच पूछो तो 15 से 45 का हो जाने के बाद भी सरल कभी समझ नहीं पाया कि कितना वह मर्द है और कितना नामर्द। एक क़िताब पढ़ता तो उसे लगता कि उससे बड़ा मर्द कोई नहीं दुनिया में। दूसरा लेख पड़ता तो शर्म आती कि वह तो पूरी तरह नामर्द है फिर भी ज़िंदा है।
क्या पैमाना है मर्दानगी का ? औरत की यौन-संतुष्टि !? किस हद तक ? कितनी औरतों की ? वो हरम, वो हज़ारों रानियां-पटरानियां ? किसने जाना होगा कि वहां कौन कितना संतुष्ट था !
फिर ठंडी औरतों का क्या करें ? उन्हें भी ख़ुदकुशी का रास्ता दिखाएं दोबारा ?
सरल तो पढ़ता आ रहा है कि ख़ुद औरतों ने भी अभी जानना शुरु किया है अपनी यौन-संतुष्टि के बारे में !
कितने ही मर्द थे जो तर्क देते थे कि हम वेश्याओं या दूसरी औरतों के पास इसलिए जाते हैं कि पत्नी से संतुष्टि नहीं होती।
क्या राखी हमें लौटाकर वहीं ले जाना चाहतीं हैं !?
क्या शादी से पहले लक्ष्मण ने अपनी होने वाली पत्नी को कोई वचन दिया था यौन-संतुष्टि का ? क्या ससुराल पक्ष ने इस विषय में कोई जानकारी मांगी थी ? क्या हमारे यहां शादियों से पहले ऐसा कुछ आवश्यक समझा गया है ?
राखी को जानना चाहिए कि हमारे यहां इस मुआमले में स्त्री जितनी मजबूर है, उतना ही पुरुष भी। बल्कि शादी न करने पर एक शक पुरुष पर यह भी किया जाता है कि कहीं वह नामर्द तो नहीं ! जिस तरह दहेज  और दूसरे रीति-रिवाजों पर स्त्री का कोई वश नहीं होता उसी तरह शादी के संदर्भ में अपनी मर्दानगी को जानने और बताने को लेकर पुरुष भी कुछ कम मजबूर नहीं होता।
नामर्दी या ‘नाऔरती’ एक व्यक्तिगत मामला है जबतक कि कोई पुरुष या स्त्री दूसरे पक्ष के साथ कोई ऐसा संबंध नहीं बनाता जिसमें यौन-संतुष्टि एक अनिवार्य पक्ष हो। शादी एक ऐसा ही संबंध है मगर अपने यहां शादियों में, विवाह से पहले, यौनसंबंधी तथ्यों के आदान-प्रदान का ऐसा कोई प्रचलन या रिवाज नहीं है इसलिए एक ही पक्ष को दोषी ठहरा देना उचित कैसे कहा जा सकता है !?
नामर्द, समाज का कुछ नहीं ले रहा होता, वह समाज को किसी तरह की हानि नहीं पहुंचा रहा होता। ठीक उसी तरह जैसे एक अविवाहित ‘ठंडी’, ‘बांझ’, वक्ष-विहीन, या स्त्री के लिए सौंदर्य और सेक्स के संदर्भ में तयशुदा मानदण्डों पर खरी न उतरने वाली औरत।
ऐसे ताने मत मारो राखी जिनकी वजह से अब तक ख़ुद औरत का सांस लेना मुश्किल बना हुआ था।
लक्ष्मणों को बख़्शो राखी।
हां, चाहो तो सरल को नामर्द कहो। वह ख़ुदकुशी नहीं करने वाला। आज इतना परिपक्व तो हो ही चुका है कि आपकी मानसिक अपरिपक्वता को समझ सके।

-संजय ग्रोवर

11 दिस॰ 2010

सारांश-2

रोहिनी आज-कल कुछ बदली-बदली लगती है। पूजा-पाठ के अलावा चैट भी करने लगी है। टी.वी. पर सीरियल देखती है। यहां तक कि कई बार जनचेतना जगाने वाली प्रगतिशील पत्रिकाओं के नेट-संस्करण भी पढ़ डालती है। देख रही है कि इंटरनेट एक नयी दुनिया बना रहा है। स्त्री तेज़ी से आज़ाद हो रही है। यहां तक कि हिंदी जैसी भाषा जिसमें प्रगतिशील भी न जाने किस मजबूरी में लिखते और फ़िल्में बनाते थे, अब ब्लॉगरों के ज़रिए एक नया आसमान खोलने को हाथ-पैर मार रही है।
कुल मिलाकर जो आसमान खुल रहा है उसमें सभी के लिए जगह है। स्त्रियां जींस के पॉकेटों में उंगलियां घुसाए-घुसाए जिगोलुओं और दलालों के साथ उड़ रहीं हैं और उड़ते-उड़ते ‘हम आपके हैं कौन’ और ‘दिलवाले दुलहनियां ले जाएंगे’ के करवाचौथी चांद में जा घुसतीं हैं। कुछ आयटम गल्र्स जिन पर बाबा नाराज़ हो जाते हैं, बाबा के आश्रम में जाकर उनका आर्शीवाद लेने का नया आयटम पेश करके बाबा को मना लेतीं हैं। सारी समस्याएं ख़त्म। आसमान फिर आसमान हो जाता है। दोनों ख़ुश होकर फिर से अपने-अपने कामों में लग जाते हैं। उन्हें किसी तरह आज़ाद होना है। धर्म के अंदर रहकर या धर्म के बाहर जाकर। राष्ट्र  के अंदर रहकर या राष्ट्र के बाहर जाकर। मर्द के साथ रहकर या उससे दूर रहकर। कोई आज़ादी है जो उन्हें चाहिए।
कहानियां आ रहीं हैं जिनमें स्त्रियां गुण्डों और विधायकों पर इसलिए आसक्त हो जातीं हैं कि वे उनके पतियों, भाईयों और पिताओं से ज़्यादा प्रैक्टीकल हैं और घर बैठे उनके काम करवा सकतें हैं।
रोहिनी का मन बदल रहा है।
वह हिम्मत बांधकर घर से निकलती है।
‘‘ऐक्सक्यूज़ मी‘’, आवाज़ को पतला करके वह घर के सामने घेरा बनाए, डेरा डाले, पैरों से टीन की छोटी डिब्बी को लुढ़का-लुढ़काकर खेल रहे गुण्डों के सरदार को संबोधित करती है।
‘जी मैम’, गुण्डा सर नवाकर कहता है।
दुनिया वाकई बदल रही है। रोहिनी के मन में आशाएं और तेज गति से दौड़ने लगतीं हैं। कितनी इज़्ज़त से बात कर रहा है।
‘‘देखिए, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप ही हमारी बेटी की हड्डियां कस्टम से निकलवां दें !?’’ रोहनी डरी हुई है पर बदलने की पूरी कोशिश कर रही है।
‘‘ इस दुनिया में क्या नहीं हो सकता मैम ! पर आप अस्थियों को हड्डियां न कहें।’’
‘‘ ओह !’’ वह एकदम से शर्मिंदा हो जाती है, ‘‘आप तो साहित्यकारों जैसी भाषा बोलते हैं’’, रोहिनी डरी हुई है और प्रभावित होना शुरु हो गयी है।
‘‘साधना पड़ता है, एकदम से तो कुछ होता नहीं’’ गुण्डा शिष्ट भाव से कहता है। लगता है उसने शिष्टता और विनम्रता दोनों को साध लिया है।
‘‘देखिए, मैं आपसे एक बात कहूं, मामला अब बेटी की अस्थियों का है, आप चाहें तो इसे स्त्री-मुक्ति के मसअलों से जोड़ा जा सकता है। तब बहुत-सी नारीवादी और मानवतावादी संस्थाएं भी हमारा साथ देंगीं‘‘
‘कितना टैक्टफुल गुण्डा है’ रोहिनी अब मुग्ध होने की अवस्था के काफ़ी नजदीक है। ‘ऐसा ख़्याल तो अनुपम और सोनी के दिमाग़ में भी नहीं आया।’
‘चलिए, अंदर बैठकर बात करतें हैं’, रोहिनी एक स्टेप और आगे बढ़कर गुण्डे को इनवाइट करती है।       
‘‘ओके! आप निश्चिंत होकर जाईए, वुई आर वेटिंग फॉर यू, वापस आकर बताईएगा क्या बना ?’’
गुण्डे के दोस्त कहते हैं।
‘सब कुछ कितना बदल गया है। ख़ामख्वाह डर रही थी।’ वह सोचती है।
गुण्डा न सिगरेट के छल्ले उड़ाता है न टेबल पर पांव पसारता है।
‘‘देखिए हम लोग भी कतई सोशल और दुनियादार लोग हैं। जिस टीन की डिब्बी को मैं ठोकर मार-मारकर खेल रहा था वह उस कंपनी की डिब्बी है जिसमें सिर से पैर तक सिर्फ़ महिलाएं काम करतीं हैं, हम भी वक्त की नज़ाकत समझते हैं।’’ गुण्डा दार्शनिक भाव से कहता है।
‘वाकई प्रतीकात्मकता कितनी बड़ी चीज़ है, असलियत तो उसके सामने कुछ भी नहीं’, रोहिनी सोच रही है।
तभी अनुपम आंखें मलते हुए ड्राइंग-रुम में प्रवेश करता है।
‘‘गुड मॉर्निंग अंकल’’, गुण्डा आदर-भाव से उठता है।
अनुपम को जैसे करंट लगता है, ‘‘तुम ! तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई अंदर घुसने की !?’’ अनुपम फैल जाता है।
‘‘बी प्रैक्टीकल अनुपम’’, रोहिनी संभालने की कोशिश करती है।
‘‘देखिए, मैंने पहले ही कहा था, अंकल तो न जाने किस दुनिया में रहते हैं, मैं चलता हूं।’ गुण्डा पांव ऐक्ज़िट की दिशा में घुमाता है।
‘‘नहीं, नहीं, आप बैठिए, ये जाएंगे तो मैं भी चली जाऊंगी, अनुपम !’’ रोहिनी निरंतर बोल्ड हो रही है।
‘‘रोहिनी, तुम्हे हुआ क्या है !?’’
‘‘नहीं, अब मैं और बर्दाश्त नहीं करुंगी।’’
‘‘बर्दाश्त ! रोहिनी, हम दोनों मिलकर इन गुण्डों से लड़ते आए हैं। बर्दाश्त तो तुम इसे कर रही हो घर बुलाकर।’’
‘‘अंकल आपकी तबियत ठीक नहीं। आप आराम कीजिए। मैम, कभी जिम-विम जाते हैं अंकल ? अंकल हर लड़ाई के लिए ख़ुदको अपडेट रखना पड़ता है। देखिए।’’, गुण्डा शर्ट खोलकर सिक्स-पैक-ऐब्स दिखाता है।
‘‘ओफ्फो, अब ये मुझे सिखाएगा कैसे लड़ना है !?’’ अनुपम अपना सर नोंचना चाहता है पर वहां बाल ही नहीं हैं। वह और चिढ़ जाता है।
‘‘देखिए अंकल, बिना मर्दानगी के औरतों की कोई लड़ाई नहीं जीती जा सकती!’’, गुण्डा समझाता है।
‘‘औरतों की लड़ाई !? यह कहां से घुस आयी बीच में ? और उसमें भी बार-बार मर्दानगी का वास्ता !? ओहो ये हरामज़ादा तो पागल कर देगा मुझे।’’ अनुपम गाली-गलौज़ पर उतर आता है।
‘‘देखिए अंकल, स्त्री के सामने अमर्यादित भाषा का प्रयोग! बुरी बात !’’ गुण्डा सधे स्वर में कहता है।
‘‘तुझे तो मैं अभी बताता हूं, कमीने।’’ अनुपम के धैर्य की पटरियां उखड़ चुकीं हैं।
‘‘ठीक ही तो कह रहा है वह, अंकल’’, एकाएक सोनी ड्राइंग-रुम में प्रवेश करती है।
‘‘सोनी, तुम भी!’’ अनुपम के चेहरे पर घबराहट ने डेरा डालना शुरु कर दिया है।
‘‘अंकल आपने मुझे भावनात्मक सहारा दिया होता तो आज ये दिन न देखने पड़ते।’’ 
‘‘ मैंने सहारा नहीं दिया ! तो ये गुण्डे क्यों घेरे खड़े हैं हमारे घर को !?’’
‘‘आप समझे नहीं अंकल ! चीनी कम देखी है आपने ? निशब्द ?’’
‘‘ओह, अच्छा ! सच कहूं बेटा, मेरा मतलब है सोनी, ख़्याल तो आया था ऐसा, मगर यही सोचकर डर गया कि तुम चढ़ दौड़ोगी कि गंजा, बुड्ढा ! मजबूरी का फ़ायदा उठाना चाहता है।’’
‘‘तो यह आपकी कमी है अंकल जो मुझे भुगतनी पड़ी।’’
‘‘मेरी कमी क्यों है ? मुझे क्या सपना आ रहा था तुम ऐसा चाहती हो !? तुम्ही कह देती !’’
‘‘मैं क्यों कह देती ? आपको नहीं थोड़ा सेंसटिव होना चाहिए, अपने-आप समझना चाहिए’’
‘‘मैं यह सब लटके-झटके नहीं जानता। पहले से कोई कैसे जान सकता है कि किसी बुज़ुर्ग के ऐसे प्रस्ताव पर लड़की ख़ुश होगी या चिढ़ जाएगी !?’’
‘‘तो सीखिए अंकल, ख़ुदको अपडेट कीजिए, वरना तो आप...’’
‘‘जाने दीजिए, अंकल की तबियत ठीक नहीं‘‘, गुण्डा अपनी विनम्रता के साथ फिर मुखर होता है।
‘‘ओह, इसको चुप कराओ नहीं तो मैं इसका मुंह नोंच लूंगा।’’ अनुपम को लगता है वह कुछ कर न बैठे। वह लगभग बेकाबू हो चुका है।
‘‘अनुपम! तुम्हारे बस का कुछ नहीं तो चुप तो बैठ सकते हो। या बाहर चले जाओ, और हमें संजीदगी से मामला डिसकस करने दो।’’ रोहिनी फिर से बोलती है।
‘‘मैं बाहर चला जाऊं ! मैं ? और तुम इस गुण्डे के साथ डिसकस करोगी !?’’ बदहवास अनुपम एक साइड स्टूल उठाता है और पूरी ताक़त और ग़ुस्से के साथ बाहर उछाल देता है।
‘‘लगता है इस आदमी को तो पागलखाने भेजना पड़ेगा,‘‘ यह रोहिनी है।
‘‘ठीक कह रहीं हैं आंटीं’’, यह सोनी है।
‘‘क्या आप इनकी कुछ व्यवस्था कर सकते हैं, काफ़ी समय से अत्याचारों पर उतरे हुए हैं।’’ गुण्डे से पूछते वक्त रोहिनी का स्वर भीगा हुआ है।
‘‘हां, आप आदेश तो दीजिए, पागलखाने फ़ोन करुं या थाने ?‘‘ गुण्डा अत्यंत सोफेस्टीकेटेडता से पूछता है।
अनुपम की आंखें बाहर निकलने को हैं। घबराहट, गुस्से और किए-धरे पर पानी फिर जाने की बेबसी ने उसे पगला दिया है। ‘‘यह तुम कर क्या रही हो रोहिनी !?’’, अनुपम ने रोहिनी का गला पकड़ लिया है।
‘‘ऐसे काम नहीं चलेगा,‘‘ गुण्डा उस दम पहली बार सीटी बजाता है। उसके सारे साथी तत्काल अंदर आ जाते हैं। ‘‘अंकल को कसकर पकड़ लो, औरत पर हाथ उठा रहे हैं।’’
‘‘तो नया क्या बॉस! आप और हम तो रोज़्...’’ गुण्डा सही जगह ख़ुदको रोक लेता है। बाहर निकल आ रहे शब्द बबलगम के फूले ग़ुब्बारे की तरह पलक झपकते वापस मुंह में घुस जाते हैं। उम्मीद पूरी बनती है कि कुछ ही दिन में यह गुण्डा भी भाषा और सामाजिकता को पूरी तरह साध लेगा।
‘‘बुलाईए आप पुलिस को, मैं अंकल के खि़लाफ़ गवाही दूंगी।’’, यह फिर से सोनी है।
‘‘मैं भी दूंगा। अंकल स्त्री-विरोधी हैं।’’गुण्डा ग्रेसफुल तरीके से कहता है, ‘‘पागलखाने, थाने और नारी-मुक्ति संस्थाओं को फोन लगाओ।’’
साथी गुण्डा इन सभी संस्थाओं के प्रतिनिधियों से अंग्रेजी में बात करता है।
‘‘अंकल, पहले भाग में आपकी इमेज काफ़ी अच्छी थी इसलिए हम आपको ऑप्शन देते हैं, थाने जाना पसंद करेंगे या पागलखाने ?’’ सर्द आवाज़ में गुण्डा पूछ रहा है ।
गुण्डों के मजबूत हाथों में छटपटा रहा अनुपम अपना सर पीटना चाहता है जो कि संभव नहीं है। ‘‘मुझे पागलखाने ही भेज दो,’’ वह थकी, हारी, मरी, लुटी, पिटी आवाज़ में कहता है और ढह जाता है।
‘‘पागलखाने से गाड़ी आ भी गई’’, देखिए किस तरह होते हैं अपने काम, मैम।’’ गुण्डा निहायत ही अदब के साथ घमंड व्यक्त करता है। रोहिनी आश्वस्त है।
अनुपम को गाड़ी में धकेला जा रहा है।
‘‘अपना ख़्याल रखना, टेक केयर, हां!’’, रोहिनी भावुक हो गयी है।
‘‘अब बस भी करो, अभी जी नहीं भरा क्या, और कितना पागल करोगी ?’’, अनुपम बकरे की तरह कसमसा रहा है।
‘‘अंकल में ज़रा भी मैनर्स नहीं, मैम तो बैस्ट विशेज़ दे रहीं हैं और अंकल...’’, सारे गुण्डे इस मुददे पर एकमत हैं।
गाड़ी स्टार्ट होती है।
‘‘च्चचच’’,
यह विष्णु है, अनुपम का दोस्त। भाभी के लिए फूल लेकर आया है।
बाहर हवा जिस तरफ़ बह रही है, सारे फूल-पत्ते-धूल-धक्कड़ और इंसान उसी दिशा में उड़ रहे हैं।
पड़ोसी जो गुण्डों के चलते रोहिनी से कटे-कटे रहते थे, अब गुण्डों के होते रोहिनी के साथ आ खड़े होते हैं।
रोहिनी और सोनी, गुण्डों के साथ मिलकर नारी-मुक्ति की लड़ाई को आगे बढ़ातीं हैं।
विष्णु आज-कल हर शाम गुण्डों के लिए फूल लाता है।

-संजय ग्रोवर

3 दिस॰ 2010

मोहे अगला जनम ना दीजो-1

क्या करे इन हाथों का ? काट डाले इन्हें ? फेंक आए कहीं जाकर ? या हरदम ढंक कर रखे कहीं ? छुपा दे ! या किसी खुरदुरी चीज़ पर तब तक रगड़ता रहे जब तक दूसरे लड़कों की तरह मर्दाने, खुरदुरे, सख्त या गंठीले ना हो जाएं। तनहाई के छोटे से छोटे वक्फ़े में भी ये हीन भावनाएं, ये अपराध-बोध सरल का पीछा नहीं छोड़ते। किसी से हाथ मिलाने से भी डरता है, बचता है सरल। बीच-बीच में सुनने को मिल जो जाता है- ‘अरे यार, तुम्हारे हाथ तो लड़कियों से भी ज़्यादा मुलायम हैं।’'अगर रात अंधेरे में तेरा चेहरा देखे बगैर कोई तुझसे हाथ मिलाए तो यही समझेगा किसी लड़की का हाथ पकड़ लिया है।'
तिस पर दुबला-पतला-पीला शरीर। शर्मीला स्वभाव। तरह-तरह के फोबिया। ज़रा कुछ खट्टा या तला हुआ खाले तो खांसी, ज़ुकाम, पेटदर्द । महीने में 15 दिन बिस्तर पर गुज़रते हैं। धैर्य नाम की चीज़ से सरल का कोई वास्ता है नहीं। लोग उसकी चुप्पी और अवसाद को ही उसका धैर्य समझ लेते हैं तो उसका क्या कसूर। अशांति का महासागर ठाठें मारता रहता है सरल की छोटी-सी खोपड़ी में। बिस्तर में रहता है तो तरह-तरह की अच्छी बुरी कल्पनाएं और फंतासियां भी साथ रहती ही हैं।
कैसी-कैसी कल्पनाएं हैं सरल की ! एक ऐसी पोशाक बनवाए जिसमें से उसकी तो एक उंगली तक न दिखे पर वह सबको समूचा देख सके। कोई ऐसी कार मिल जाए उसे कि वह तो अंदर से सबको देखले पर उसकी किसी को झलक तक न मिले।
एक तो पड़ा-पड़ा जासूसी उपन्यास पढा करता है ऊपर से जाने किसने दे दिए हैं उसे ये फोबियाओं के उपहार। कहां से क्यों आ गया यह जानलेवा अपराध-बोघ! भयानक असुरक्षा की भावना। इस तरह लोगों से छुपकर, डरकर, शरमा कर अंधेरे कमरों की ओट में कैसे काटेगा वह अपनी ज़िंदगी !
(जारी)

संवादघर पर पूर्व-प्रकाशित