tag:blogger.com,1999:blog-90104370870773859562024-03-13T12:16:01.418+05:30सरल की डायरी Saral ki Diary................................................................................................................... एक छोटा बच्चा जिसे कोई समझनेवाला न मिल सका....अंत में उसने ख़ुद ही अपना साथ दिया और ख़ूब साथ दिया....Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.comBlogger46125tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-48628184330764796522020-06-17T13:39:00.003+05:302020-06-17T14:51:54.643+05:30क्या आत्महत्या पलायन है ?<div><font size="5">यह बात न मैं पहली बार सुन रहा न शायद आप सुन रहे होंगे कि</font></div><div><font size="5">आत्महत्या पलायन है.</font></div><div><font size="5"><br /></font></div><div><font size="5">पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि यह जीवन हमने </font><span style="font-size: x-large;">मर्ज़ी </span><font size="5">से नहीं चुना होता, हमें किन्हीं और लोगों ने अपनी ख़ुशी के लिए जन्माया होता है। जो जीवन हमने चुना ही नहीं, वह पसंद न आने पर हम उसे अपनी मर्ज़ी से छोड़ तो सकते ही हैं। अरे, कुछ तो अपनी मर्ज़ी से भी कर जाएं!</font></div><div><font size="5"><br /></font></div><div><font size="5">दूसरी बात, मुझे बिलकुल भी नहीं लगता कि आत्महत्या करना आसान है. मैं अपने संदर्भ में कहूं तो तक़रीबन तीस साल तक तो, आए दिन मुझे आत्महत्या के ख्याल आते थे लेकिन जैसे ही मैं आत्महत्या के तरीक़ों पर ग़ौर करना शुरु करता, मेरी हवा निकलना शुरु हो जाती. फ़िर मैं बहाने करने लगता कि जिसने सताया है जब तक उसका कुछ न करो तब तक क्यों मरना ? यह बात भी सच थी लेकिन आत्महत्या की सोच आने पर यह बहाने का काम करती.</font></div><div><font size="5"><br /></font></div><div><font size="5">तीसरी बात, जो लोग यह कहते हैं कि आत्महत्या कायरता है, कभी आपने उनका जीवन ग़ौर से देखा है ? क्या आप समझते हैं कि वे कोई बहुत बहादुरी का जीवन जी रहे हैं ? आत्महत्या कायरता है तो क्या ‘कास्टिंग काउच’ पवित्रता है ? क्या भीड़ के रीति-रिवाज और चाल-चलन अपना लेना बहादुरी है ? क्या झूठ बोल-बोलकर व्यापार जमा लेना बहुत बड़ा साहस है ? क्या, जो बड़ों ने और पड़ोसियों ने बताया उसे करने में बहुत दम लगता है ? जो परंपरा से चला आया वो करने में कोई दिमाग़ चाहिए ? जिसको लोग सफ़लता कहते हैं उसपर हमें संदेह भी हो तो भी भीड़ की और मान्यताओं की वजह से वही करते जाने के लिए कोई हिम्मत चाहिए ? क्या समाज को ऊंच-नीच और जातियों में बांटने के लिए किसी संवेदना की ज़रुरत है ? क्या अंदर से मर जाने और बाहर बस नाम के लिए ज़िंदा रहने के लिए बहुत कलेजा चाहिए ?</font></div><div><font size="5"><br /></font></div><div><font size="5">पहला पलायन तो यही है.</font></div><div><font size="5"><br /></font></div><div><font size="5">मैं किसी विशेष आत्महत्या के बारे में बात नहीं कर रहा.</font></div><div><br /></div><div>-संजय ग्रोवर</div><div>17-06-2020 </div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div>Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-89645983070672598612019-12-22T15:06:00.001+05:302019-12-22T15:39:30.372+05:30समाज और न्याय की समझ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">हमारे घर की बिजली अकसर ख़राब हो जाती थी।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />कई बार तो एक-एक हफ़्ते ख़राब रहती थी।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />जबकि पड़ोस के बाक़ी घरों की बिजली आ रही होती थी।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />उसका कारण था। </span><br />
<span style="font-size: large;"><br />हमारे पिताजी के संबंध और आना-जाना वैसे तो बहुत लोगों से था मगर न तो किसी दबंग और बदमाश सेे संबंध रखते थे न ख़ुद बदमाशी करते थे और न किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्त्ता थे।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />हां, जब दुकान से फ़ुरसत मिलती, तो वे बिजलीवालों से कुछ अनुनय-विनय करके, कुछ पैसे-वैसे देकर बिजली ठीक करवा लेते थे।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />मैं इतना भी नहीं करता था।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />कई लोग समझते थे कि मैं शरमीला, अव्यवहारिक और भौंदू क़िस्म का आदमी हूं।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />और भीड़ और प्रचलित मान्यताओं के प्रभाव और दबाव में मैं भी ख़ुदको ऐसा ही समझ लेता था।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />लेकिन सिर्फ़ यही बात नहीं थी।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />असल में मैं भीतर से बहुत विद्रोही था और अपना काम करवाने के समाज के इन घटिया और गंदे तरीक़ों से बहुत नफ़रत करता था।<br /></span><br />
<span style="font-size: large;">उस समय ज़्यादातर दबंग, बदमाश, रईस आदि एक ही पार्टी का समर्थन करते थे।</span><br />
<span style="font-size: large;"></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जैसे अब एक दूसरी पार्टी का करते हैं।</span><br />
<br /></div>
Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-54673755551016862762019-11-03T13:34:00.001+05:302020-01-28T23:40:05.221+05:30भीड़ और हम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">मज़े की बात है कि जब प्रशंसा में तालियां बजतीं हैं तब आदमी नहीं देखता कि तालियां बजानेवालों की भीड़ कैसे लोंगों के मिलने से बनी है !? उसमें पॉकेटमार हैं कि ब्लैकमेलर हैं कि हत्यारे हैं कि बलात्कारी हैं कि नपुंसक हैं कि बेईमान हैं कि.......</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">लेकिन जैसे ही इसका उल्टा कुछ होता है तो व्यक्ति को भीड़ में तरह-तरह के दोष दिखाई देने लगते हैं......</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">शायद मैं उस वक़्त बी.कॉम. कर रहा था, सर्दियों में एक दिन छत पर गया तो देखा कि पीछे मिल में एक आदमी एक कमज़ोर-से आदमी को पेड़ से बांधकर बेल्ट से पीट रहा था। मैंने इतना ही देखा कि भीड़ में अमीर भी थे, ग़रीब भी थे, पढ़े-लिखे भी थे.....सब एक ही तरह से हंस रहे थे......तमाशा देख रहे थे.......</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इससे ज़्यादा मुझसे देखा नहीं गया......</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और कुछ किया भी </span><span style="font-size: large;">नहीं</span><span style="font-size: large;"> गया.....</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">पीटनेवाला अमीर आदमी था और पिटनेवाला एक ग़रीब चोर था जो मुझे बाद में पता चला....</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">किसीने नहीं कहा होगा कि तुम ख़ुद क्यों पीट रहे हो ? चोरी की है तो पुलिस को बुलाओ, क़ानून हाथ में क्यों ले रहे हो.........</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ज़्यादातर लोग उस अमीर आदमी के चमचे थे........</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">.......जैसाकि अभी भी होता है... </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैंने मॉब-लिंचिंग जैसी जो भी घटनाएं देखी संभवतः एक ही धर्म के लोगों की भीड़ के लोगों द्वारा अपने ही धर्म के किसी कमज़ोर या अकेले पड़ गए या फंस गए या फंसा लिए गए व्यक्ति को पीटे जाने की देखीं.......<br /><br />जैसी मैं इसलिए कह रहा हूं कि उन में किसीकी जान तो नहीं ली गई लेकिन बेरहमी से मारा गया और अधमरा करके छोड़ दिया गया।</span><br />
<span style="font-size: large;"></span><br />
<br />
<span style="font-size: large;">बाद में मुझे पता चला कि यह आदमी किसी अहिंसा की बात करनेवाली विचारधारा से जुड़ा है........हो सकता है कि अब इसी विचारधारा का ठेका कुछ दूसरी तरह के लोगों के पास हो......</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">आज मुझे हंसी आती </span><span style="font-size: large;">है</span><span style="font-size: large;"> जब लोग विचारधारा के पक्के होने की बात करते हैं.....</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">भीड़ पर वे तरह-तरह की राय देते हैं पर ख़ुद भीड़ को लुभाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं.........</span><br />
<br />
(जारी)<br />
#संजयग्रोवर<br />
03-11-2019<br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-24680836987363510922019-04-28T13:04:00.000+05:302019-04-28T13:04:12.247+05:30पैरालिसिस और मैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">आज पूरा एक महीना हो गया जब मुझे पैरालिसिस का दूसरा अटैक हुआ था। एक हफ़्ते तक तो मैंने किसी को बताया ही नहीं। मुझे लग रहा था कि मैं ऐसे ही ठीक हो जाऊंगा। एक हफ़्ते बाद मेरी बहिन का फ़ोन आया तो मैंने बताया। डॉक्टर ने कहा कि अब तो कुछ नहीं हो सकता, उसी समय बताते तो ठीक हो जाता। अभी मैं दवा दे रहा हूं जिससे ये और ज़्यादा नहीं होगा, जितना है उतने तक ही रहेगा, बाक़ी भगवान की मज़ी। आपको मालूम है कि भगवान को तो मैं मानता नहीं। तो चारा यह बचा कि या तो घिसटने-मरने के लिए तैयार हो जाओ या अपने ऊपर विश्वास करो। इस दौरान मैं एक हाथ से शायरी वगैरहा लिख-लिख कर फ़ेसबुक, ट्विटर एवं पिंटरेस्ट पर लगाता पर लगाता रहा।</span><br />
<span style="font-size: large;">अब मैं 90 प्रतिशत ठीक हो चुका हूं। पहला अटैक तक़रीबन डेढ़-दो साल पहले हुआ था। उसपर भी लिखूंगा।</span><br />
<span style="font-size: large;">अभी इतना ही।</span><br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-10817958000275649302019-01-15T08:05:00.000+05:302019-01-15T08:05:23.871+05:30....तो मैंने कहा था मुझे पैदा करो.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>....तो मैंने कहा था मुझे पैदा करो.....</b><br />
<br />
आखि़र एक दिन तंग आकर मैंने पापाजी से कह ही दिया...<br />
<br />
उस वक़्त मुझे भी लगा कि मैंने कोई बहुत ही ख़राब बात कह दी है....<br />
<br />
कोई बहुत ही ग़लत बात....<br />
<br />
लेकिन यह तो मुझे ही मालूम है कि वो रोज़ाना मुझसे किस तरह की बातें कहते थे, कैसे ताने देते थे, क्या-क्या इल्ज़ाम लगाते थे....<br />
<br />
मैं क्या करता....<br />
<br />
<b>पूरी ईमानदारी से कहूं तो मैंने जबसे होश संभाला, मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बात महसूस करता था...</b><br />
<b>कि इस दुनिया में पैदा होकर मैं एक अजीब-से जंजाल में फंस गया हूं....</b><br />
<br />
.......और इससे बड़ा सच क्या होगा कि मैं अपनी मर्ज़ी से पैदा नहीं हुआ था....<br />
<br />
<b>कोई बच्चा अपनी मर्ज़ी से पैदा नहीं होता...</b><br />
<br />
फिर इस तरह की बातें कि अहसान मानो कि मां-बाप ने तुम्हे पैदा किया...<br />
<br />
कि इतनी सुंदर दुनिया तुम्हे देखने को मिली...<br />
<br />
कि ज़िंदगी तुम्हारे ऊपर मां-बाप का कर्ज़ है....<br />
<br />
ये क्या बकवास है ?<br />
<br />
<b>पहले बच्चे से पूछ तो लो कि दुनिया उसे कितनी सुंदर लगती है ?</b><br />
<b><br /></b>
<b>मैं मानता हूं कि मां-बाप को बच्चे का अहसान मानना चाहिए कि उसे तुम उसकी मर्ज़ी के बिना इस दुनिया में लाए फिर भी उसने कोई ऐतराज़ नहीं किया......</b><br />
<b><br /></b>
<b>तुमने जो भी धर्म, मज़हब, अमीरी, ग़रीबी, घर, मकान, हालात...उसको दिए, उसने स्वीकार कर लिए....</b><br />
<b>ये तुम्हारा नहीं, बच्चे का कर्ज़ है तुम पर....</b><br />
<br />
आज मैं महसूस करता हूं कि मैंने सौ फ़ीसदी सही बात कही पापाजी से....<br />
<br />
वो भले आदमी थे.......मेहनती आदमी थे.....जितना उनके बस का था, ईमानदार भी थे....मुझे दुख हुआ कि मैंने उनसे ऐसा कहा....<br />
<br />
<b>पर कभी तो कोई कहेगा......सभी झूठ बोलते रहेंगे तो सच की हालत तो ख़राब ही रहेगी.....</b><br />
<br />
वो बहुत दुखी हुए.....उन्हें काफ़ी ग़ुस्सा आ गया....उन्होंने मुझसे कहा-<br />
<br />
<b>‘अच्छा होता जो पैदा होते ही तुझे मार देता......’</b><br />
<br />
लगता है कि उन्हें भी ऐसी बात की उम्मीद नहीं थी, कोई अप्रत्याशित बात सुन ली थी उन्होंने...उन्हें शायद गहरी चोट पहुंची थी......वरना ऐसी प्रतिक्रिया न करते.......<br />
<br />
ये दुनियादार लोग, ये सफ़ल लोग, तथाकथित सामाजिक लोग, बिज़ी लोग......लगता है कि ज़िंदगी की कई सच्चाईयां कभी इनके ज़हन में आई ही नहीं.....इन्हें छूकर भी नहीं गुज़री.....<br />
<br />
आज भी मैं देखता हूं...टीवी पर, फ़िल्मों में, डिबेट्स् में.....<br />
<br />
<b>क्या कहूं कि कैसा लगता है.....</b><br />
<b><br /></b>
<b>लेकिन मैं हर हाल में सच बोलूंगा.... </b><br />
<br />
15-01-2019<br />
<br />
<b><a href="https://saralkidiary.blogspot.com/2019/01/blog-post.html" target="_blank">पिछला</a></b></div>
Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-90387642059900582552019-01-13T12:33:00.001+05:302019-01-15T08:09:38.632+05:30बाल मामाजी, दुनियावाले ईमानदार बच्चों के या तो मरने का इंतज़ार करते हैं या<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बाल मामाजी, दुनियावाले ईमानदार बच्चों को या तो चूहों की तरह मार देते हैं या अपराधी बनाने पे तुल जाते हैं....<br />
<br />
बाल मामाजी, दुनियावाले ईमानदार बच्चों के या तो मरने का इंतज़ार करते हैं या उन्हें बेईमान बनाने पे तुल जाते हैं....<br />
<br />
ये मेरे और तुम्हारे बीच की बात है....<br />
<br />
मैं किसी तीसरे के बारे में बात नहीं कर रहा.....<br />
<br />
यूं यह डायरी ख़ुली है, कोई भी पढ़ सकता है....<br />
<br />
लेकिन ज़बरदस्ती किसीको पढ़वाना भी नहीं है....<br />
<br />
दूसरों से ज़बरदस्ती का मेरे जीवन में बहुत ही कम स्थान रहा है....<br />
<br />
यही वजह होगी जो मैं अपने साथ होनेवाली हर ज़बरदस्ती को आसानी से महसूस कर सकता हूं....<br />
<br />
यही वजह होगी जो मैं मामूली से मामूली ज़बरदस्ती का भी तीव्र विरोध करता हूं.......<br />
<br />
मुसीबत में मुझे माता-पिता की जगह तुम्ही क्यों याद आते हो ?<br />
<br />
मुसीबत मेरी ज़िंदगी में कब नहीं रही....<br />
<br />
कब मैं मुसीबत में नहीं रहा...<br />
<br />
मसला ही ऐसा है....ईमानदारी और बेईमानी का मसला.....<br />
<br />
अपनी आंखों के सामने मैंने सिर्फ़ एक ही आदमी को देखा है जिसने इस वजह से जान दे दी पर समझौता नहीं किया....<br />
<br />
क़िस्से-कहानियां तो बहुत पढ़े पर उनपर विश्वास नहीं होता, क्योंकि सच्चाई के मामले में ज़िंदा आदमी बहुत पिलपिले हैं, बहुत ही कमज़ोर, बेईमानी से एडजस्ट कर जाने को ही वे सफ़लता कहते हैं, हीरोइज़्म कहते हैं....<br />
<br />
ख़ैर, हीरोइज़्म का तो अब ज़िंदगी में कोई अर्थ ही नहीं रहा.......बचकानी बातें लगतीं हैं....<br />
<br />
कुछ करने के लिए ये सब बातें ज़रुरी नहीं लगतीं....<br />
<br />
क्यों मैं ज़बरदस्ती का इतना विरोध करता हूं......क्यों मैं धारणाओं, मान्यताओं, कर्मकांडों, तीज-त्योहारों का इतना विरोध करता हूं....<br />
<br />
मैं बताता हूं...संवेदनशील लोगों के लिए इस तरह की बातें समझना कोई मुश्क़िल नहीं....कमअक़्लों को शायद ये बातें कभी समझ में न आएं...<br />
<br />
13-01-2019<br />
<br />
<b>....तो मैंने कहा था मुझे पैदा करो.....</b><br />
<br />
आखि़र एक दिन तंग आकर मैंने पापाजी से कह ही दिया...<br />
<br />
उस वक़्त मुझे भी लगा कि मैंने कोई बहुत ही ख़राब बात कह दी है....<br />
<br />
कोई बहुत ही ग़लत बात....<br />
<br />
लेकिन यह तो मुझे ही मालूम है कि वो रोज़ाना मुझसे किस तरह की बातें कहते थे, कैसे ताने देते थे, क्या-क्या इल्ज़ाम लगाते थे....<br />
<br />
मैं क्या करता....<br />
<br />
<b>पूरी ईमानदारी से कहूं तो मैंने जबसे होश संभाला, मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बात महसूस करता था...</b><br />
<b>कि इस दुनिया में पैदा होकर मैं एक अजीब-से जंजाल में फंस गया हूं....</b><br />
<br />
<b>.......और इससे बड़ा सच क्या होगा कि मैं अपनी मर्ज़ी से पैदा नहीं हुआ था....</b><br />
<b><br /></b>
<b>कोई बच्चा अपनी मर्ज़ी से पैदा नहीं होता...</b><br />
<br />
फिर इस तरह की बातें कि अहसान मानो कि मां-बाप ने तुम्हे पैदा किया...<br />
<br />
कि इतनी सुंदर दुनिया तुम्हे देखने को मिली...<br />
<br />
कि ज़िंदगी तुम्हारे ऊपर मां-बाप का कर्ज़ है....<br />
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ये क्या बकवास है ?<br />
<br />
<b>पहले बच्चे से पूछ तो लो कि दुनिया उसे कितनी सुंदर लगती है ?</b><br />
<b><br /></b>
<b>मैं मानता हूं कि मां-बाप को बच्चे का अहसान मानना चाहिए कि उसे तुम उसकी मर्ज़ी के बिना इस दुनिया में लाए फिर भी उसने कोई ऐतराज़ नहीं किया......</b><br />
<b><br /></b>
<b>तुमने जो भी धर्म, मज़हब, अमीरी, ग़रीबी, घर, मकान, हालात...उसको दिए, उसने स्वीकार कर लिए....</b><br />
<b>ये तुम्हारा नहीं, बच्चे का कर्ज़ है तुम पर....</b><br />
<br />
आज मैं महसूस करता हूं कि मैंने सौ फ़ीसदी सही बात कही पापाजी से....<br />
<br />
वो भले आदमी थे.......मेहनती आदमी थे.....जितना उनके बस का था, ईमानदार भी थे....मुझे दुख हुआ कि मैंने उनसे ऐसा कहा....<br />
<br />
पर कभी तो कोई कहेगा......सभी झूठ बोलते रहेंगे तो सच की हालत तो ख़राब ही रहेगी.....<br />
<br />
वो बहुत दुखी हुए.....उन्हें काफ़ी ग़ुस्सा आ गया....उन्होंने मुझसे कहा-<br />
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‘अच्छा होता जो पैदा होते ही तुझे मार देता......’<br />
<br />
लगता है कि उन्हें भी ऐसी बात की उम्मीद नहीं थी, कोई अप्रत्याशित बात सुन ली थी उन्होंने...उन्हें शायद गहरी चोट पहुंची थी......वरना ऐसी प्रतिक्रिया न करते.......<br />
<br />
ये दुनियादार लोग, ये सफ़ल लोग, तथाकथित सामाजिक लोग, बिज़ी लोग......लगता है कि ज़िंदगी की कई सच्चाईयां कभी इनके ज़हन में आई ही नहीं.....इन्हें छूकर भी नहीं गुज़री.....<br />
<br />
आज भी मैं देखता हूं...टीवी पर, फ़िल्मों में, डिबेट्स् में.....<br />
<br />
क्या कहूं कि कैसा लगता है.....<br />
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लेकिन मैं हर हाल में सच बोलूंगा....<br />
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15-01-2019<br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-80717338327365163092018-06-21T01:23:00.000+05:302019-01-14T11:11:36.442+05:30वो तो लड़के भी करते हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">लड़के को मैं भली-भांति जानता था, इसलिए उसके भोलेपन और मासूमियत का मुझे अंदाज़ा था। तबियत भी ख़राब रहती थी उसकी, लेकिन वो रसोई के काम बिना किसी मेल ईगो को बीच में लाए कर देता था। उसकी ऐसी ईगो दूसरे कुछ मामलों में ज़रुर देखने को मिलती थी। उसकी बहिनों के ब्वॉय-फ्रेंडस् थे, उसकी कोई गर्लफ्रेंड नहीं थी। मेरे मन में एक कसक-सी उठती थी जब मैं अपनी एक झलक, पूरी तो नहीं, मैं तो बहुत विद्रोही रहा हूं, कुछ-कुछ उसमें देखता था, मुझे उसके भविष्य की चिंता होने लगती थी। मैंने उसकी बहिनों से पूछा तो उन्होंने बताया कि एक लड़की इस में बहुत इंट्रेस्टेड है, पर यह उसे भाव नहीं देता।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैंने एक दिन अकेले में उससे इस बारे में बात की, उसने कहा कि ‘लड़कियां झूठ बोलतीं हैं, चुगली लगातीं हैं, एक-दूसरे में लड़ाई करवा देतीं हैं.....</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मेरे पास दो रास्ते थे, एक-कि उससे कहूं कि लड़कियां बहुत महान होतीं हैं, उनका सम्मान करना चाहिए, उनसे सीखना चाहिए.....</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">पर मैंने दूसरी, अपने अनुभव के अनुसार सच्ची और व्यवहारिक बात कही क्योंकि मुझे लगा कि लड़के की शिक़ायतें बिलकुल ग़लत भी नहीं हैं......</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैंने कहा कि चुगलियां तो लड़के भी करते हैं, झगड़े भी करते-कराते हैं, जब ऐसे लड़कों से दोस्ती में कोई दिक्क़त नहीं है तो लड़कियों से क्यों.....</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बात बन गई थी। बाद में मुझे पता चला कि लड़के की दोस्ती उसी लड़की से हो गई थी।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बाद में कई साल मैं उनसे मिला नही, मौक़ा ही नहीं मिला, वरना क्या पता</span> <span style="font-size: large;">मुझे उनसे ईर्ष्या होने लगती।</span><br />
<br />
-संजय ग्रोवर<br />
21-06-2018<br />
<br />
<br /></div>
Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-92075893882346512992018-05-23T20:28:00.000+05:302018-05-24T20:34:41.046+05:30हॉस्टेल और हस्तमैथुन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">उस दिन सीनियर्स ने सुबह 10-11 बजे ही बुला लिया था। एक वजह से तो मुझे ख़ुशी भी हुई कि आज क्लास में नहीं जाना पड़ेगा। मगर सीनियर्स ने भी कोई पिकनिक के लिए नहीं, रैगिंग के लिए बुलाया था। उन्होंने दो-चार सवाल पूछे फिर अचानक एक सीनियर बोला-‘ग्रोवर, चल पैंट उतार!’ मैं बहुत ज़्यादा तो नहीं घबराया क्योंकि रैंगिंग के बारे में पहले ही सुन रखा था। मैंने धीरे-धीरे पैंट के बटन खोल दिए। ‘चल नीचे खिसका’, एक सीनियर ने आदेश दिया। मैंने घुटनों तक सरका दी। ‘चल अंडरवीयर उतार’, एक सीनियर ने मर्दाने लहज़े में कहा। मैंने अंडरवीयर भी घुटनों तक सरका दिया।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">‘अबे ये क्या ! तू लंगोटी भी पहनता है !?’</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">‘मैं कुछ नहीं बोला।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">‘तू इतना पतला कैसे है, मुट्ठ ज़्यादा मारता है क्या ?’</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैं क्या जवाब दूं ? मुझे उस वक़्त तक ठीक से पता ही नहीं था कि ‘मुट्ठ’ मारना होता क्या है! </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अलग-अलग नामों से इस क्रिया का ज़िक्र मैंने लड़को से सैकड़ों बार सुना था मगर ठीक-ठीक पता नहीं था कि क्या है। मज़े की बात यह भी है कि उलझन, अनिर्णय और तनाव की स्थिति में कई बार मुझे लगता कि जब इतना कमज़ोर हूं, अकसर बीमार भी रहता हूं और कई लोग मुझपर ऐसा शक़ करते हैं तो शायद हो सकता है कि मैं करता होऊं, शायद स्वप्न-स्खलन का ही दूसरा नाम हस्तमैथुन हो!</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैं चुप ही रहा।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">उन्होंने पता नहीं क्या-कुछ मुआयना किया फिर कहा ‘चल पहन ले कपड़े’। मैंने धीरे-धीरे कपड़े वापस ऊपर चढ़ा लिए और राहत की हल्की सांस ली कि लंगोटी नहीं उतरवाई।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कम-अज़-कम मेरे सामने तो उन्होंने मेरे बारे में कोई निर्णय नहीं दिया।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">एक सीनियर जो ख़ासा लंबा-ऊंचा, हैंडसम था, उसने कहा कि ‘ग्रोवर, अगर तू थोड़ी भी हैल्थ बना ले तो लड़कियों की कोई कमी नहीं रहेगी....’ हालांकि उसके सामने मैं पिद्दी-सा लगता था।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">लेकिन उसकी बात बाद के मेरे जीवन में काम आई।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">लंगोटी पहनना मैंने ऐसे किसी भी कारण से शुरु नहीं किया था जैसे कि मैं अब तक सुनता आया था। अगले किसी पन्ने में विस्तार से ज़़िक़्र करुंगा।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">स्वप्न-दोष (Nocturnal emission)</span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"> </span><span style="font-size: large;">तो मुझे होता था, उसकी जानकारी भी थी पर ‘मुट्ठ’ या ‘हथलस’ कैसे मारा जाता है, पता नहीं था। कोई 40 की उम्र के आस-पास मैंने यह काम पहली बार किया।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तब मुझे समझ में आया कि उस वक़्त हॉस्टेल के ज़्यादातर लड़के यह काम करते थे (वे ख़ुद ही बताते रहते थे) मगर उनमें से ज़्यादातर हट्टे-कट्टे थे या ठीक-ठाक थे। मैं यह काम उस वक़्त जानता भी नहीं था फिर भी सबसे दुबला-पतला था। कमज़ोर था।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैं क़िताबें, अख़बार, पत्रिकाएं काफ़ी पढ़ता था। पर मैंने देखा कि क़िताबी, फ़िल्मी और बुज़ुर्गों या दोस्तों से सुनी हुई बहुत-सी बातें कम-अज़-कम मेरी ज़िंदगी के संदर्भ में तो ग़लत साबित हुईं थीं।</span><br />
<br />
(जारी)<br />
<br />
-संजय ग्रोवर<br />
<br />
23-05-2018<br />
<br />
<br />
<div>
<br /></div>
</div>
Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-81667318317645491382017-06-22T23:11:00.002+05:302018-02-26T19:35:55.442+05:30एक चुटकी ुतियापा-2<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2017/05/blog-post.html" target="_blank"><span style="color: red; font-size: x-small;">एक चुटकी ुति</span><span style="color: red; font-size: x-small;">यापा-1</span></a><br />
<br />
<span style="font-size: large;">स्त्रियों का मैं बहुत सम्मान करता हूं।</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं हर स्त्री का सम्मान करता हूं।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">आजकल ऐसे नारे घर-घर में चल निकले हैं। हो सकता है कई लोग करते भी हों। सुबह उठकर मां-बहिनों-पत्नियों का सम्मान करते हों-अरे, तुम अभी तक उठी नहीं ? बताओ, पहले ही इतनी देर हो चुकी है, सम्मान कब करुंगा ? मेरे सम्मान की ख़ातिर थोड़ा जल्दी नहीं उठ सकतीं ? एक तो मैं सुबह-सुबह सम्मान कर रहा हूं और ये हैं कि पड़ी हुई हैं, अपनेआप उठोगी या खींचकर उठाऊं....अभी पिताजी का भी करना है, रोज़ लेट हो जाता हूं। </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">फिर सामने दरवाज़े पर कामवाली महिला खड़ी है, उसका भी सम्मान करना है (क्या आप मानते हैं कि ये लोग कामवाली बाईयों को भी ‘हर स्त्री’ में गिनते होंगे और उनका भी समान रुप से सम्मान करते होंगे!? मुझे तो नहीं लगता कि सभी ‘मालकिन’ स्त्रियां सभी चौका-बरतन-पोचा वाली स्त्रियों को ‘हर स्त्री’ मानकर सम्मान करतीं होंगीं )। रास्ते पर निकलेंगे तो रास्ते भर औरतें मिलेंगी-गली में, सड़क पर, बस में, मेट्रो में, पुल पर, दफ़्तर में, दुकान में......हर औरत का सम्मान.....!? कैसे करते होंगे ? पैर-वैर छूते होंगे, किसीसे हाथ मिलाते होंगे, किसीको हग करते होंगे, फिर दो मिनट बात भी तो करते होंगे, हाल-चाल पूछते होंगे....दफ़्तर कब पहुंचते होंगे ? हर औरत के सम्मान के लिए तो अच्छा-ख़ासा वक़्त चाहिए। हमारे कई तथाकथित प्रगतिशील मित्र तो जब तक होली पर हिंदू के घर गुझिया और ईद पर मुस्लिम के घर सेवईयां खाते हुए फ़ोटो न खिंचा लें तब तक न तो ख़ुदको और न दूसरे को धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील मान पाते हैं। अब आपको भी हर औरत के सम्मान का प्रमाण देना पड़ेगा। मोबाइल हाथ में लेकर रास्ते-भर सेल्फ़ी खींचते चलिए।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">
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चलो यह तो हुआ थोड़ा हास्य-व्यंग्य, लेकिन क्या दुनिया में ऐसा कोई एक आदमी भी होगा जो हर मर्द का या हर औरत का या चलिए इन्हें भी छोड़िए, हर बच्चे का भी सम्मान करता होगा ? क्या यह संभव है ? यह बिलकुल अव्यवहारिक बात है। मुझे तो हैरानी होती है कि ये किस तरह के लोग होते हैं जो बेवजह हर किसीसे सम्मान चाहते हैं। जान न पहचान, फिर भी सम्मान !? मुझे तो ऐसे लोग अहंकारी और तानाशाह ही समझ में आते हैं फिर चाहे वे मर्द हों, औरतें हों, माता-पिता हों या कोई और हों। ध्यान रखना कि हिटलर, मुसोलिनी, चंगेज़ आदि इसी चाह से पैदा होते हैं, विश्वगुरु होने की चाहत का आधार भी हर किसीको झुकाने और ख़ुदको श्रेष्ठ घोषित करने की हवस ही होती है। मुझे तो याद आता है बचपन में जब माता-पिता ज़बरदस्ती किसीसे नमस्कार कराते थे तो उस शख़्स के प्रति एक अनादर या ग़ुस्से का भाव ही पैदा होता था....। कई लोग तो लगता है शादी और बच्चे करते हीं इसलिए हैं कि और कुछ नही तो कम से कम अपने बच्चों से तो सम्मान करा ही लेंगे।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">‘हर स्त्री का सम्मान’ की हक़ीक़त देखनी हो तो टीवी पर सबसे ज़्यादा हिट बताए जा रहे कॉमेडी शो देखिए। वहां स्त्री के ओंठ हंसने की चीज़ हैं, स्त्री का बाप हंसने की चीज़ है, स्त्री का भाई हंसने की चीज़ है, स्त्री का पुराना परिवार हंसने की चीज़ है, स्त्री का बोलना, चलना, आना, जाना, हंसना सब हंसने की चीज़ है। हर स्त्री की हर बात हंसने की चीज़ है। और तो और अगर अपने प्रिय लड़के भी लड़कियों के कपड़े पहनकर आ जाएं तो वो भी हंसने की चीज़ हैं। हमें क्या मालूम था कि उपहास का ही दूसरा नाम सम्मान है। सम्मान करने-कराने वालों की बात ही कुछ और है। </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इंटरनेट पर सम्मान कराते हुए थोड़ी ज़्यादा सावधानी बरतनी होती है। पट्ठे दायें नाम से ट्रॉल करेंगे, बाएं नाम से सम्मान करने आ जाएंगे। एक नाम से आपको उपहास का पात्र बनाएंगे, दूसरे से लाड़ लड़ाने लगेंगे। </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और जब ऐसी बातें ऐसे लोग करते हैं जिन्होंने वर्णव्यवस्थाएं बनाईं, हिंदू-मुस्लिम बनाए....जिन्होंने ‘बड़ा आदमी’ बनने के लिए हर तरह के फ़ॉर्मूले आज़माए, वे हर किसीका सम्मान कर सकेंगे !? जिन्हें अपना सम्मान हर किसीसे कराने की इतनी जल्दी थी कि सम्मान का सही मतलब भी भूल गए.......।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हर स्त्री का सम्मान ? मायावती पर कितने लेख लिखे गए, कितने व्यक्तिचित्र, रेखाचित्र, वृतचित्र(डॉक्यूमेंट्रीज़) उनपर हर स्त्री का सम्मान करनेवालों ने बनाए ? कितने लोग उनके ऑटोग्राफ़ लेते हैं ? कितने उनके साथ फ़ोटो खिंचाते हैं ? वैसे जाली डिग्री के मामले में स्मृति ईरानी और बाबरी मामले में साध्वियों उमा भारती, रितंभरा आदि का, विदेशी मूल के मामले में सोनिया गांधी का भी काफ़ी ज़ोरदार सम्मान किया गया था तथाकथित विपक्षियों द्वारा।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">पहले हमने हर मर्द का सम्मान किया, फिर हर ब्राह्मण का सम्मान किया, </span><span style="font-size: large;">फिर हर जीजाजी का सम्मान किया, </span><span style="font-size: large;">अब हर स्त्री की बारी है। पहला फंदा छूटता नहीं कि नया तैयार हो जाता है।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अत्याचार अगर परंपरा में शामिल हों तो लोग उनका भी सम्मान करने लगते हैं। भारत में जीजा-साला और सास-बहू संबंध इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">वैसे ‘हर स्त्री का सम्मान’ में नया कुछ भी नहीं है- अष्टमी पर लड़कियों के पैर धोना, रक्षाबंधन पर धागा बंधाकर असली पैसों के साथ रक्षा का नक़ली वायदा देना, स्त्री को देवी बताना, तरह-तरह की देवियों की पूजा करना....ये सब हम कबसे देखते आ रहे हैं। इससे स्त्रियों को मिला क्या, वह समझने की बात है।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हमारी तो आदत ही है कि जो भी काम हमें ठीक से समझ में नहीं आता या असल में उसे करने की नीयत या हिम्मत नहीं होती, उसके लिए कुछ कर्मकांड बना लेते हैं, चौपाईयां लिखकर दीवार पर टांग देते हैं, कोई न कोई नाटक खड़ा कर लेते हैं।</span><br />
<div>
<br />
<i>(त्यागी, संतोषी, ममतामयी तो स्त्री को पहले ही कहा जाता था, अब इस संदर्भ में ‘सम्मान’ का एक नया अध्याय और जुड़ गया है, इस बारे में और जानना चाहें तो यहां <span style="color: red;"><a href="https://play.google.com/store/books/details/Sanjay_Grover_%E0%A4%B8_%E0%A4%9C%E0%A4%AF_%E0%A4%97_%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A4%B0_NARIMUKTI_KI_UKTI_%E0%A4%A8_%E0%A4%B0_%E0%A4%AE?id=eejWDQAAQBAJ" target="_blank">‘5.पुरुष की मुट्ठी में बंद है नारीमुक्ति की उक्ति’</a></span> को भी पढ़ सकते हैं)</i></div>
<div>
<br /></div>
<br />
-संजय ग्रोवर<br />
<br />
22-06-2017<br />
<br />
<div>
<br /></div>
</div>
Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-34840323146304556152017-05-29T15:19:00.001+05:302018-02-26T19:35:08.776+05:30एक चुटकी ुतियापा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">‘चुन्नी कहां हैं ? मेरी चुन्नी कहां है ?’ बाहर से घंटी बजती और माताजी घबरा जाते ; हालांकि सलवार-कमीज़ पहने हैं, स्वेटर पहने हैं, ज़ुराबें पहने हैं, कई-कई कपड़े पहने हैं मगर संस्कार, डर, कंडीशनिंग....मैं तो कहूंगा कि बुरी आदत, थोपा गया आतंक.... और चुन्नी भी कई बार बिलकुल पतली, कांच के जैसी, आर-पार सब दिखाई दे....बस समझिए कि मनोवैज्ञानिक चुन्नी, मानसिक चुन्नी.....लड़कियां चुन्नी के बिना बाहर निकलतीं तो लोगों के कान खड़े हो जाते, पूछते कि ये किसकी लड़की है.....</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अब जाकर ज़रा छूटी है, सालों लग गए एक चुन्नी से मुक्त होने में....जिसने बनाई उसने तो यही कहा होगा कि ज़रा-सी तो बात है, थोड़ी देर की बात है, दो मिनट के लिए डाल लो सर पर.....उसे क्या मालूम होगा कि हटाने में सदियां लग जातीं हैं, ज़िंदगियां बर्बाद हो जातीं हैं.....</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">
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गाना तो सुना ही होगा न.....‘मेरे दिल में आज क्या है तू कहे तो मैं बता दूं ; तेरी ज़ुल्फ़ फिर संवारुं, तेरी मांग फिर सजा दूं....’ मांग तो सजा दो भैया पर क्या तुम्हे मालूम है कि यह प्रतीकबाज़ी कितनी भारी पड़ती है ? ज़रा-सा लाल बुरादा है पर पीछे क्या इरादा है ? लड़कियां बिना इसके, घर से निकलने में डरतीं हैं, तलाक़शुदा औरतें अकेले रहने के नाम पर कंपकंपातीं हैं और एक गधे से छूटतीं है तो कई गधों में फंस जातीं हैं।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">‘एक चुटकी सिंदूर की क़ीमत तुम क्या जानो बाबू.....’ तो तुम तो जानते हो न क़ीमत, अपने सर में क्यों नहीं लगा लेते ? ख़ुद तो घूमोगे बनियान फाड़कर, दूसरे को चवन्नी के लाल पाउडर में बरबाद कर दोगे। सदियां दब जाएंगीं इस चम्मच-भर चमचागिरी के नीचे। </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">लोग बुरा मान जाते हैं जब मैं कहता हूं कि बेवजह औरत का सम्मान नहीं कर सकता। अजीब बात है! अगर आपकी आंखें छोटी-छोटी हैं और मैं कहूं कि बिलकुल हिरनी जैसी हैं, ऐसी तो पहले कभी देखी नहीं! तो आपको नहीं पता होना चाहिए कि आपकी आंखें कैसी हैं ? यह सम्मान है ? यह तो झूठ है। आपको शक़ होना चाहिए कि यह आदमी बेवजह तारीफ़ क्यों कर रहा है ? चाहता क्या है ? कुछ तो गड़बड़ है। और जहां चुन्नी और चुटकी हटाने में सदिया ख़राब हो जाएं, वहां परिवर्तन के नाम पर बार-बार ऊटपटांग स्थापनाएं करने से पहले कुछ तो सोचना चाहिए!</span><br />
<br />
(जारी)<br />
<br />
<span style="color: red; font-size: x-small;"><a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2017/06/2.html" target="_blank">एक चुटकी ुतियापा-2</a></span><br />
<br />
-संजय ग्रोवर<br />
29-05-2017<br />
<br />
<br /></div>
Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-15991524276207679022017-03-14T23:10:00.000+05:302017-03-15T01:01:24.667+05:30 तीसरा बच्चा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बच्चों की भलाई के लिए काम करनेवाली एक संस्था से आज एक फ़ोन आया। काफ़ी नाम वाली संस्था है। एक भली लड़की बच्चों की किसी योजना का विवरण देने लगी। बच्चों के लिए आर्थिक मदद मांगनेवाले फ़ोन कई बार आते हैं। मैंने भली लड़की से कहा कि मैं आपको बीच में टोक रहा हूं पर आपको बता दूं कि मैंने बच्चों की भलाई के लिए एक काम यह किया है कि बच्चे पैदा ही नहीं किए। भली लड़की थोड़ा उखड़ गई, बोली मैं आपके बच्चों की बात नहीं कर रही। मैंने कहा बात कैसे करेंगी, मेरे बच्चे हैं ही नहीं। भली लड़की ने फ़ोन काट दिया।<br />
<br />
भली लड़की की जगह भला लड़का भी हो सकता था, सवाल वह है ही नहीं। बच्चों को लेकर हमारी जो पूरी मानसिकता है, मेरी समझ से क़तई बाहर है। भली लड़की को शायद ही पता हो कि मैंने सच्ची, वास्तविक और ईमानदार ज़िंदगी बिताने के लिए कई फ़ायदे, कई चीज़ें छोड़ दीं। मैंने कभी गाड़ी नहीं ख़रीदी, एसी क्या कूलर तक इस्तेमाल नहीं किए, फ़ाइव स्टार होटल नहीं देखे, स्टेडियम में जाकर क्रिकेट मैच नहीं देखे, बर्थडे नहीं मनाए......मैं बहुत ही सीमित पैसे में गुज़ारा करता हूं, मैं दूसरों के बच्चों के लिए पैसे क्यों खर्च करुं!? आप लोग क्यों नहीं यह समझते और समझाते कि बच्चे पैदा ही तब करने चाहिए जब आपके पास उनके लिए ठीक-ठाक कुछ इंतज़ाम हो।<br />
<br />
मुझे याद है जब मेरे एक पड़ोसी नाजायज़ कमरा बनाने की कोशिश कर रहे थे, मैंने शिक़ायत कर दी ; तब समाज की सुरक्षा के लिए बनी एक महत्वपूर्ण संस्था के एक कर्मचारी ने मुझसे कहा कि ‘क्या आपको पता है कि उनके लड़के की शादी है! मैं परेशानी की हालत में हैरान भी हुआ और थोड़ा हंसने को भी हो आया। मैंने सोचा कि भाईसाहब, क्या आपको पता है कि आपको शादियां कराने के लिए नहीं, क़ानून बनाए रखने के लिए रखा गया है!?<br />
<br />
अद्भुत सोच है! यानि मैं तो इसलिए बिना शादी और बच्चों के रह रहा हूं, ताकि क़ानून का पालन कर सकूं और अपनी समझ के हिसाब से कोई ग़ैरज़िम्मेदाराना काम न करुं मगर हमारा समाज चाहता है कि मैं उनके बच्चों के लिए पैसे भी ख़र्च करुं और क़ानून भी तोड़ने में उनकी मदद करुं! <br />
<br />
(जारी)<br />
<br />
-संजय ग्रोवर<br />
<br />
14-03-2017</div>
Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-5310555335705709572016-11-20T23:15:00.002+05:302017-01-16T00:09:56.204+05:30ऐसा भी होता है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
क्या आपने बाल सीक्रेट एजेंट अमित, असलम और अल्बर्ट के नाम सुने हैं ? <br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlLoPL9p0NGU1adG1SITAkuA0HqcEfrBeBQ_ymR2tIn_lwnetwYWAKVprDUtwOKVLJXEn6uezua7Tsp_fTzj6joU40FqLd3g-MdEbiUiEIB_kougglFR0XOMBVOMOS7Ak-Ef0mK5PUENf7/s1600/abhh_frontcoverr.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlLoPL9p0NGU1adG1SITAkuA0HqcEfrBeBQ_ymR2tIn_lwnetwYWAKVprDUtwOKVLJXEn6uezua7Tsp_fTzj6joU40FqLd3g-MdEbiUiEIB_kougglFR0XOMBVOMOS7Ak-Ef0mK5PUENf7/s200/abhh_frontcoverr.jpeg" width="160" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="https://play.google.com/store/books/details?id=hzGHDQAAQBAJ" target="_blank">CLICK</a></td></tr>
</tbody></table>
<br />
<br />
चिंता न करें, संभावना यही है कि मैंने भी ये नाम तभी सुने होंगे जब मैंने इस उपन्यास को लिखने की सोची होगी। अंदाज़न क़रीब 35-36 साल पहले की ही बात.......। अजीब दिन थे मगर उनके बारे में सोचना दिलचस्प लगता है। कभी मैं ख़्यालों-ख़्यालों में कर्नल विनोद की तरह ख़ुदको किसी मुसीबतज़दा के पास अचानक मौजूद हुआ पाता तो कभी खाट या मेज पर चढ़कर स्लो मोशन में कूदने की कोशिशें और तरक़ीबें किया करता। फ़िल्मों और क़िताबों का गहरा असर उनके बीच में रहते-रहते और उन्हें पढ़ते देखते हो रहा/गया था। कोई देख न ले, पिताजी डांट न मार दें, इस डर से कभी अकेले, कमरे के अंधेरों में तो कभी बुख़ार में रात को रज़ाई और मंद पीली रोशनी में पढ़ते-लिखते अनगिनत दिन काटे। आप सोचिए, एक तरफ़ यह डर कि पिताजी न आ जाएं तो दूसरी तरफ़ छाती में बजती धुकधुकी कि उपन्यास के अंधेरे में कब कोई साया कूद पड़े......। आपमें से भी कई दोस्त इस तरह की ‘मुश्क़िलों’ और ‘संघर्षों’ से ग़ुज़रे होंगे।<br />
<br />
इस बाल उपन्यास को कई सालों बाद फिर से पढ़ते हुए यह तो समझ में आ ही रहा है कि इसपर उस वक़्त के कई लोकप्रिय जासूसी और सामाजिक उपन्यासकारों का प्रभाव है, साथ ही यह भी अच्छा लग रहा है कि अंधविश्वासों, टोनों-टोटकों, बाबाओं और तथाकथित भगवानों आदि को लेकर शुरु से ही एक ख़ुला दृष्टिकोण मेरे पास उपलब्ध था।<br />
<br />
उस वक़्त कई जासूसी सीरीज़ चला करतीं थीं जैसे आशु-बंटी-निशा, राजन-इक़बाल, राम-रहीम, कृष्ण-क़रीम, विनोद-हमीद, मेजर बलवंत एंड कंपनी.....। मैंने भी, संभवतः ‘भारतीय धर्मनिरपेक्षता’ के ‘प्रभाव’ में भी, अमित-असलम-अल्बर्ट की सीरीज़ गढ़ ली। अनुप्रास अलंकार से भाषा को सजाने में मेरी रुचि भी आप इन नामों में देख सकते हैं। कभी अनंत तो कभी किसी और नाम से मैं उस समय लिखा करता और अन्य क्रिएटिव काम भी करता रहता।<br />
<br />
<br />
35-36 साल पुरानी इस हस्तलिखित क़ाग़ज़ी मूल प्रतिलिपि की हालत पहले भी बहुत अच्छी नहीं थी तो कुछ स्कैनिंग के दौरान भी ढीली हो गई। तसल्ली यही है कि (लगभग)एक-एक शब्द साफ़ पढ़ने में आ रहा है। इसलिए मुखपृष्ठ को ज़रा-सा सुधारने के अलावा बाक़ी कहीं मैंने हाथ भी नहीं लगाया, जैसा का तैसा पब्लिश कर दिया है।<br />
<br />
अपने समय के कई लटकों-झटकों से भरी यह क़िताब अब आपके सामने है। <br />
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-संजय ग्रोवर <br />
19-11-2016<br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-30793125349758829402016-05-22T19:32:00.000+05:302016-05-24T15:15:31.801+05:30जिन्होंने औरत को कभी रंडी नहीं कहा-<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
छोटा ही था। उन दिनों स्टील के बर्तन बहुत ज़्यादा प्रचलन में नहीं आए थे। लोग पीतल के बर्तन ज़्यादा रखते थे जिनमें समय-समय बाद कलई करानी पढ़ती थी। गर्मियों की एक ऐसी ही दोपहर में जब कलईवाला हमारे बर्तन कलई कर रहा था, माताजी ने मुझसे वहीं खड़ा होकर ध्यान रखने को कहा। कलईवाला निरा बुज़ुर्ग था, वह अपनी सहायता के लिए एक छोटे बच्चे को साथ लाया था। बच्चे ने न जाने क्या ग़लती की कि बाबा एकाएक चिल्लाया-‘एक बार में समझ नहीं आता बेटीच्च......<br />
<br />
मैं घबरा गया। ‘बहिनच्च...’, ‘मादरच्च...’ आदि तो सुन रखे थे लेकिन यह शब्द मैंने पहली बार सुना था। सोचा तो पहली बार मुझे इन ग़ालियों के मतलब समझ में आने शुरु हुए। घबराहट और बढ़ने लगी। संभवतः उस वक़्त तक मैंने ग़ालियां बकना शुरु नहीं किया था। बाद में मैं कई दिन तक इसपर सोचता रहा। काफ़ी बाद में मैं एक दिन इस नतीजे पर पहुंचा कि बाबा बेहोशी में इस तरह की ग़ाली उस बच्चे को दे रहा था। मुझे याद है कि मैंने उनका रिश्ता पूछा था, वे बाप-बेटे थे। मुझे नहीं लगता कि ठीक उस वक़्त जब बाबा ग़ाली बक रहा था, ग़ाली का ठीक-ठीक मतलब भी समझ रहा था।<br />
<br />
हमारे घर में तो यार शब्द पर भी अच्छी-ख़ासी डांट पड़ जाती थी। फिर भी मेरे अंदर न जाने कैसे अ़च्छी-ख़ासी गंदी-गंदी ग़ालियां जमा हो गईं थीं जो अचानक कहीं भी फूट पड़ती थीं। शारीरिक और मानसिक कई समस्याएं थीं, स्वभाव आसानी से किसीसे मिलता नहीं था, चुप्पा था, आवाज़ आसानी से निकलती नहीं थी, ऊपर से ग़ुस्सा आता था तो भयानक आता था। या तो बिलकुल चुप रहता, घुटता और कुढ़ता रहता या किसी दिन ज्वालामुखी फटता तो बस गंदी-गंदी ग़ालियां....। उन दिनों नायलोन की निक्करें नई-नई चली थीं, रंग-बिरंगी, तरह-तरह के डिज़ाइनों वाली निक्करें जिनके ऊपरी हिस्से में बटन या बेल्ट के बजाय मुलायम-सा इलास्टिक डला रहता था। मेरे एक दोस्त के बड़े भाई का यही शौक़ था कि वह पीछे-से दबे पांव आता और किसी बच्चे की निक्कर पैरों तक उतार देता। फिर दूसरों के साथ खड़ा हो हंसने लगता। लबे-सड़क एक बार उसने मेरे साथ भी यह किया। मेरे भीतर से गंदी-गंदी ग़ालियों का ऐसा फ़व्वारा छूटा कि बस। बाद में मुझे हैरानी भी होती कि आखि़र यह होता कैसे है कि मेरा ऐसा कोई इरादा होता नहीं और फिर भी यह हो जाता है! कई बार पिटने की भी नौबत आ जाती।<br />
<br />
हाईस्कूल पास करते-करते तक मैंने ग़ालियां बकना इंटेशनली सीख लिया था। कई लोग ऐसा-ऐसा सताते कि पीछे-से उन्हें ग़ाली बक लेना ही एकमात्र राहत होती। सामने ही मुंह से निकल जाए तो कोई नयी मुसीबत खड़ी हो जाने की पूरी संभावना होती। आज तो अकसर अपनी ही टेबल या कुर्सी से टकरा जाऊं तो परेशानी या झल्लाहट के अतिरेक में मुंह से कई बार ‘बैणचो’ निकल जाता है। अब सोचने की बात है कि टेबल या सिलेंडर की कौन-सी ‘बैण’ है जो मैं इंटेशनली, कुछ विशेष (जेंडर/स्त्री/पुरुष) सोचकर ग़ाली दूंगा। बहुत पहले जब ज़मीन पर पड़ी किसी चीज़ से ठुड्डा टकराता तो मुंह से ‘हाय राम’ निकलता तो बाद में ‘ओ माई गॉड’ निकलने लगा। मैं बचपन से नास्तिक हूं। ज़ाहिर है कि ये शब्द किन्हीं और कारणों से, सुनते-सुनते या बोलते-बोलते ज़ुंबान पर चढ़ गए होंगे।<br />
<br />
मैं नहीं कहता कि ग़ालियों में स्त्रियों के प्रति दुर्भावना नहीं है, बिलकुल है, ग़ाली बनाने में तो सौ प्रतिशत है लेकिन ग़ाली देने का मामला भी ठीक वैसा ही है, नहीं कह सकते। मुझे याद आता है कि वह महिला जो आए दिन हमारे घर टट्टी फिंकवाती थी, एक दिन जब मैं उसके घर पूछने गया तो उसने टट्टी फेंकना तो नहीं स्वीकारा लेकिन कोई विशेष ज्ञान देने के अंदाज़ में बोली कि ‘तुम ये सोचो कि ये तुम्हारे ही घर में क्यों गिरती है, इसमें राज़ क्या है !?’ अब मैं कोई चमचानुमां अंधविश्वासी तो हूं नहीं कि इम्प्रैस हो जाता, बल्कि इन घटनाओं से ही तो मुझे ‘निराकार’ की कायरता, साज़िशाना स्वभाव और माफ़ियानुमां ‘सामाजिक सरंचना’ का पता समझ में आना शुरु हुआ था। एक दिन उस महिला ने अपने घर में काम करनेवाली बच्ची के हाथ कुछ भेजा, दरवाज़ा मैंने ही खोला। उसके हाथ में थाली देखकर मैंने कहा, ‘इसमें टट्टी है क्या ? ये लोग टट्टी के अलावा किसीको क्या दे सकते हैं?’ महिला अपने परकोटे में खड़ी सुन रही थी, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी, तरह-तरह के इल्ज़ाम लगाने लगी। मैं पहले-से ही परेशान था, ग़ुस्से में था, मैं भी अपनी छत पर चढ़ गया और जो मुंह में आया बका। मुझे याद नहीं कि मैंने क्या-क्या कहा, संभवतः उसमें ‘रंडी’ शब्द भी आया था। उस वक़्त तक नारी-मुक्ति पर मेरे कई लेख अख़बारों में छप चुके थे। बहरहाल, आज मैं इस बारे में सोचता हूं तो मुझे क़तई कोई अफ़सोस नहीं होता। मैंने एक बदमिज़ाज़, अत्याचारी, मनुवादी, कुत्सित और षड्यंत्रकारी व्यक्ति को ग़ाली दी थी, सारी दुनिया की स्त्रियों को नहीं।<br />
<br />
क्रोध/आक्रोश या दुख के अतिरेक में कई बार जब हम अंट-शंट बक रहे होते हैं तो हमें क़तई ध्यान नहीं होता कि हमारे होंठ किस तरह कांप रहे हैं, चेहरा कैसा बन रहा है, मुंह से क्या-क्या निकला जा रहा है, आदि। हम बस भारी से भारी, भद्दी से भद्दी कोई बात कहना चाहते हैं जिससे सामनेवाले को भी उतना ही कष्ट पहुंचे जितना हमें पहुंचा है। संभव हो तो वह डर जाए और शायद आगे से इस तरह की हरक़तें न करे। <br />
<br />
थोड़ा और आगे बढ़ते हैं। क्या आप समझते हैं कि जो लोग औरतों को कभी रंडी नहीं बोलते, कभी ग़ाली नहीं बकते, कभी उनसे मारपीट नहीं करते, वे सबके सब बड़े भले लोग हैं, स्त्रीवादी हैं !? क्या आप समझते हैं कि जो मर्द खाना बना लेते हैं, कपड़े धो देते हैं, सबके सब स्त्रीवादी हैं !? इस मानसिकता से बाहर आ जाईए, इसकी वजह से बड़े घपले हो जाते हैं। ढाबों और दुकानों पर मर्द सालों से रोटियां भी थाप रहे हैं और कपड़े भी सिल रहे हैं। ऐसे लोग हैं जो घर के अंदर रोटी भी बना देते हैं और कपड़े भी धो देते हैं लेकिन औरत को बारात में नाचते देख या डाकखाने में अपनेआप रजिस्ट्री कराते देख चिढ़ जाते हैं। वे डाइनिंग टेबल से अपना खाना खाकर उठ जाते हैं, स्त्री से नहीं पूछते कि तूने खाया कि नहीं? जो लोग स्त्री को उबलते दूध में डुबोकर मारते रहे, जो दहेज और अन्य लेन-देन करके स्त्रियों की हीनभावना को बढ़ाते रहे, जो ससुराल में पिटती बहिनों से राखी बंधाकर ख़ुदको संपूर्ण पुरुष मानते रहे, जो अल्ट्रासाउंड का इस्तेमाल अपने तरह-तरह के मुनाफ़ों के लिए करते रहे, ज़रुरी तो नहीं कि वे सबके सब स्त्री को रंडी या दूसरे अपशब्द भी कहते ही रहे हों। <br />
<br />
एक बहुत शरीफ़ सज्जन याद आते हैं जिन्होंने अपने बेटों-बेटियों को एक ही तरह से खिलाया-पिलाया और पढ़ाया-लिखाया था। उनकी नवविवाहिता पुत्री जब पहली बार ससुराल से लौटी तो कुछ ससुरालवाले भी साथ में थे। उन्होेंने लड़की की तरह-तरह की शिक़ायतें करनी शुरु कर दीं। उस भले बुज़ुर्ग ने बिना बेटी से कुछ पूछे ससुरालवालों के सामने ही कह डाला,‘‘ बेटा, आइंदा चाहे दम घुट जाए पर मुंह से आवाज़ न निकले।’ बेटी का चेहरा पीला पड़ गया। बुज़ुर्ग सज्जन की कोई न कोई मजबूरी तो रही होगी कि उन्होंने बिना ग़ाली दिए अपनी ही बेटी का ऐसा नुकसान कर डाला। <br />
<br />
तरह-तरह के लोग देखे - ऐसे जो अपने घर की स्त्रियों के लिए कभी कोई अपशब्द इस्तेमाल नहीं करते लेकिन बाहर की किसी स्त्री के बारे में कुछ भी कह सकते हैं। ऐसे भी जो अपशब्द किसीके भी लिए इस्तेमाल नहीं करते। ऐसे जो अपशब्द सभी स्त्रियों के लिए इस्तेमाल करते हैं। ऐसे जो स्त्रियों के पक्ष में कोई तर्क सुनने को तैयार नहीं। ऐसे जो स्त्रियों के खि़लाफ़ कोई तर्क सुनने को तैयार नहीं। लेकिन इनमें से कोई भी व्यवहार इस बात की गारंटी नहीं हो सकता कि वे स्त्रियों की स्वतंत्रता के समर्थक हैं। स्त्रियों के लिए अपशब्द न इस्तेमाल करनेवाले ज़्यादातर लोग भी स्त्रीविरोधी रीतिरिवाजों को पूरी निष्ठा और तत्परता के साथ निभाते और आगे बढ़ाते रहे हैं। लोगों को दो तरह से स्त्रियों से अपने काम निकालते देखा है - एक तो डरा-धमका कर, दूसरे पोदीने के पेड़ पर चढ़ाकर, झूठी तारीफ़ करके। ज़ाहिर है कि स्त्रियों को दूसरा तरीक़ा ज़्यादा पसंद आता है। और यह दूसरा काम नारीमुक्ति के नाम पर भी किया जा सकता है। <br />
<br />
और हिंसा सिर्फ़ वही नहीं होती जो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है, वह भी होती है जो शातिर है, जो किसी और के कंधे पर रखकर बंदूक चलाती है। गांधी ने अंबेडकर के साथ कोई हिंसा नहीं की थी, बस अनशन पर लेट गए थे। बस, अंबेडकर के पास कोई चारा न बचा सिवाय उनकी बात मानने के। अंबेडकर अपने पूरे समाज के साथ इस अप्रत्यक्ष हिंसा मे जा फंसे। वर्णव्यवस्था भी एक ऐसी ही शातिर हिंसा है जिसके जाल में फंसे लोगों की पीढ़ियों की पीढ़ियां बर्बाद हो गईं।<br />
<br />
पुरानी कई फ़िल्मों में एक दृश्य दिखाई पड़ता था कि हीरो अदालत के कटघरे में खड़ा है, गवाहियां चल रहीं हैं। सब उसीके खि़लाफ़ हैं। लेकिन कुछेक गवाहों पर उसे भरोसा है जो या तो सच्चे हैं या उसके अपने हैं। लेकिन एक के बाद एक, जब वे भी उसके खि़लाफ़ बोलते हैं तो वह विश्वासघात के इस आकस्मिक रुप, बेबसी, घृणा और क्रोध के अतिरेक में पगलाया-सा, अपने कटघरे से बाहर कूदकर या तो किसीका गला पकड़ लेता है या हत्या कर देता है या भाग जाता है। मैं समझता हूं कि झूठ, पाखंड और बेईमानी से भरे एक समाज में यह स्थिति किसी भी भले, लापरवाह, कम दुनियादार या कम चालाक़ व्यक्ति के साथ घटित हो सकती है।<br />
<br />
मेरा तो निष्कर्ष है कि किसी एक घटना, किसी एक थप्पड़, किसी एक ग़ाली, किसी एक आर्शीवाद, किसी एक विनम्रता, किसी एक भलाई, किसी एक दान, किसी एक लक्षण, किसी एक प्रतीक के आधार पर किसीके पूरे चरित्र या व्यक्तित्व को नहीं आंकना चाहिए; किसी घटना में शामिल सभी व्यक्तियों से जुड़े एक-एक पहलू को ठीेक-से जांचना चाहिए और तब किसी निर्णय, राय या न्याय पर पहुंचना चाहिए, वरना धोखे, गड़बड़ या अन्याय की पूरी संभावना है। <br />
<br />
-संजय ग्रोवर<br />
22-05-2016<br />
<br />
(किसी सामयिक घटनाविशेष से इस लेख का कोई संबंध नहीं है)<br />
<br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-24097955235153649062015-09-24T18:35:00.004+05:302015-09-24T19:29:59.684+05:30सदियों की ख़ता, लम्हों को सज़ा-10<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/08/9.html" target="_blank"><span style="color: red;">(पिछला भाग)</span></a><br />
<br />
क्या लोग आधुनिक हो गए हैं ! ख़ासकर स्त्रियां !?<br />
<br />
वह किसी काम से लाइन में लगा होता है और कई बार एक घटना घट जाती है। हवा में कोई ऐसी गंध अपनी जगह, थोड़ी देर के लिए ही सही, बना लेती है कि बड़े-बड़े सहनशील अपनी सहनशीलता भूलने लगते हैं। बोलता कोई कुछ नहीं हैं मगर किसीका हाथ अपनी नाक पर चला जाता है, कोई अपनी सांस रोक लेता है, कोई अपना चेहरा आसमान की तरफ़ कर लेता है........<br />
<br />
कोई कितना भी छुपाए पर जो चीज़ इंसान बर्दाश्त नहीं कर पाता उसके प्रति नाराज़गी के, अरुचि के, चिढ़ के भाव उसके चेहरे पर, उसकी भाषा में, उसकी भाव-भंगिमाओं/बॉडी-लैंग्वेज में कहीं न कहीं प्रकट हो ही जाते हैं।<br />
<br />
फ़िर यह कैसे होता है किसी शादी में, सगाई में, लेन-देन की अन्य अजीबो-ग़रीब रस्मों में मौजूद लोगों में से किसीको भी वहां चल रहे कारोबार पर कोई ऐतराज़ नहीं होता, उन्हें कुछ भी अजीब और कष्टप्रद नहीं लगता। वे घर से पूरे उत्साह के साथ हंसते-गाते इन समारोहों में जाते हैं, हंसते-गाते सारी गतिविधियों का हिस्सा बनते हैं, हंसते-गाते लौट आते हैं।<br />
<br />
इतनी सारी औरतें वहां मौजूद होती हैं, वीडियो रिकॉर्डिंग चल रही होती है, वे सब मिलकर इस सबका बहिष्कार क्यों नहीं कर देतीं !? वीडियो रिकॉर्डिंग इस बात का पक्का सबूत होगी कि यहां क्या चल रहा था।<br />
<br />
लौटकर इनमें से कुछ लोग सेमिनार में जाएंगे, स्टेटस लिखेंगे, लेख लिखेंगे, भाषण देंगे, फ़िल्म बनाएंगे यानि कि हर तरह से ख़ुदको प्रगतिशील और किन्हीं दूसरों को (जो इनकी ऑडिएंस/पाठकों में मौजूद नहीं है) कट्टरपंथी बताएंगे। इनमें स्त्री-पुरुष, यह धर्म, वह धर्म, फ़लां जाति, ढिकां जाति सब पाए जाते हैं, कोई कम पड़ता नहीं दिखता....<br />
<br />
दरअस्ल लालच किसीमें भी हो सकता है-मर्द में भी, औरत में भी ; ब्लैक-मनी यानि हराम का पैसा लेने में हमारी विशेष रुचि रहती है; फ़िर भले वह दहेज़ से मिलता हो चाहे पुलों की सीमेंट में ज़्यादा से ज़्यादा रेत मिलाकर, चाहे खाने के सामानों में ज़हरीला रॉ-मॅटीरियल मिलाकर। ये सब चीज़ें मर्दों और औरतों की आंखों की वोल्टेज समान मात्रा में बढ़ा देतीं हैं। टीए/डीए बनाने से लेकर स्टेशनरी कब्ज़ाने और रॉयल्टी मारने से लेकर पब्लिशर का ‘दोस्त’ बनकर नये लोगों का शोषण करने में स्त्री और पुरुष में क्या-क्या भेद हैं, हो सकता है इसपर भी कोई सर्वे हो जाए।<br />
<br />
जहां तक रीति-रिवाजों और लेन-देन की बात है, इसमें क़तई संदेह की गुंजाइश नहीं है कि स्त्रियां इसमें बराबर की भागीदार हैं।<br />
<br />
हिस्सेदार कितनी हैं, यह तो वही जानते होंगे जो उनके साथ हिस्सा बांटते हैं।<br />
<br />
सबसे ज़्यादा तक़लीफ़ तब होती है जब ऐसे लोग ख़ुदको प्रगतिशील और इस गंदगी में हिस्सा न बंटानेवालों को ऑर्थोडॉक्स या आउटडेटेड घोषित करने लगते हैं !!<br />
<br />
ख़ुदके ही बस का कुछ नहीं है तो दूसरों पर दोष डालना तो छोड़ो! कुछ तो शर्म करो!<br />
<br />
क्या इस तरह से कुछ ठीक हो सकता है ?<br />
<br />
इससे तो यही समझ में आता है कि अंग्रेज न आए होते तो सतीप्रथा जारी रहती, क्योंकि हम तो दहेज भी ले-दे रहे हैं, ऐसी प्रथाओं में दांत फाड़-फाड़कर शामिल भी हो रहे हैं और साथ में प्रगतिशीलता और मुक्ति पर भाषण भी झाड़ रहे हैं।<br />
<br />
24-09-2015<br />
<br />
(जारी)<br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-61158350905363792182015-08-06T15:43:00.001+05:302015-08-06T17:30:24.301+05:30सदियों की ख़ता, लम्हों को सज़ा-9<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/07/8.html" target="_blank"><span style="color: red;">(पिछला भाग)</span></a><br />
<br />
स्त्रियां आज़ाद हो रहीं हैं, होंगी।<br />
<br />
मगर उसके लिए न सिर्फ़ उन्हें अपनी पारंपरिक भूमिका को छोड़ना होगा बल्कि पुरुष को भी उसकी पारंपरिक भूमिका से मुक्त करके देखना होगा, जो कि अभी तक कम ही होता दिखाई दिया है।<br />
<br />
कितनी स्त्रियां हैं जो अपने पतियों, भाईयों, पिताओं से भारी सामान उठाने की उम्मीद न करतीं हों ?<br />
<br />
यूं कोई भी कमज़ोर, थका, बीमार व्यक्ति किसीसे भी मदद मांग सकता है, इंसानियत के नाते कोई भी किसीकी सहायता कर सकता है, मगर किसी लैंगिक भेदभाव या पारंपरिक रिश्तों के आधार पर स्त्री या पुरुष की भूमिकाएं फ़िक्स कर देना समानता नहीं हो सकती।<br />
<br />
कितनी स्त्रियां हैं जो पुरुष द्वारा कार का दरवाज़ा खोले जाने और फ़िल्मी अंदाज़ में ‘लेडीज़ फ़र्स्ट’ का उच्चारण सुन कर या सुनने के इस ख़्याल पर ख़ुश न होतीं हों। ‘लेडीज़ फ़र्स्ट’ कभी भी समानता का उद्घोष नहीं हो सकता। इसके दो-तीन ही मतलब समझ में आते हैं, एक-स्त्रियों का वर्चस्व, दो-स्त्रियों की ख़ुशामद और तीन स्त्रियों की निरीहता। उक्त में से किसी में भी समानता जैसी कोई बात नज़र नहीं आती।<br />
<br />
कितनी स्त्रियां हैं जो ‘मैं तो हर स्त्री का सम्मान करता हूं’ जैसे जुमले सुनकर ख़ुश न होतीं हों ? उसे याद आता है जब वह बहुत छोटा, अबोध और कमज़ोर-सा बच्चा था कि एक दिन किसी खेल के दौरान एक दादा टाइप लड़के ने बेकार की कोई तीन-पांच निकाली और उसे दो-तीन झापड़ रसीद कर दिए। वह अभी इन झापड़ों का रहस्य समझने की कोशिश ही कर रहा था कि दादा ने सामने किसी दरवाज़े पर खड़ी किसी लड़की का वास्ता देते हुए कहा कि ‘फ़लां’ की ‘इज़्ज़त’ करता हूं, इसलिए तुझे छोड़ रहा हूं वरना.......<br />
<br />
बाद में उसे स्त्रियों के इस ‘आदर’ का रहस्य समझ में आया और उसके भी बाद उसने इस आदर के कई-कई रुप देखे। अब तो वह भली-भांति जानता है कि स्त्रियों का ‘आदर’ करनेवालों में भी बड़ी ‘वैराइटी’ है, इनमें लड़की पटानेवालों से लेकर भीड़ पटानेवाले यानि लोकप्रियतावादियों तक सब तरह की क़िस्में पाई जातीं हैं।<br />
<br />वैसे भी बिना किसी वजह का आदर पाकर कोई भी ढंग का आदमी कैसे ख़ुश हो सकता है!?<br />
<br />
कितनी स्त्रियां है जो लड़का न ढूंढने, अपनी शादी न हो पाने या शादी के बाद ससुरालियों की अच्छी देखभाल, रखरखाव(संबंधों की मेंटीनेंस) न हो पाने का दोष अपने भाईयों को न देतीं हों ?<br />
<br />
लड़कियों की शादी न हो पाने का दोष माता-पिता को दिया जाए यहां तक बात समझ में आती है क्योंकि माता-पिता ने अपने होशो-हवास में बच्चों को पैदा किया होता है और वे जानते रहे होते हैं कि इस समाज में लड़कियों की शादी किस तरह से होती है। मगर भाई-बहिन पर परस्पर इस तरह की कोई भूमिकाएं आरोपित करना लगभग शर्मनाक़ ही माना जाना चाहिए। ख़ासकर तब तो और भी जब ये लोग ख़ुदको प्रगतिवादी और समानतावादी मानते हों। भाई-बहिन एक ही घर में संयोग से पैदा होते हैं। किसी बहिन पर भाई की देखभाल की ज़िम्मेदारी डालना या किसी भाई पर बहिन की शादी वगैरह की ज़िम्मेदारी डालना समान रुप से अतार्किक और अनैतिक है। इंसानियत के नाते कोई किसीके लिए अपनी जान भी दे सकता है मगर स्त्री या पुरुष के नाते, एक तयशुदा पारिवारिक ढांचे के तले, इस तरह के रोल फ़िक्स करना कहीं से भी समानता में नहीं आता। और स्त्री के विवाह की कोशिशों, विवाह के दौरान और बाद में हमारे समाज में जिन गंदे, अमानवीय, भेदभावयुक्त और कई बार अश्लील रीति-रिवाज़ों, मानसिकताओं और व्यवहार से गुज़रना पड़ता है उसे जानते हुए भी कोई प्रगतिशील(!) व्यक्ति इसे महानता, सामाजिकता, ज़िम्मेदारी, उपलब्धि वग़ैरह मान सकता है, सोचकर भी हैरानी होती है!!<br />
<br />
कितनी स्त्रियां हैं जो पुरुष से, यूंही, ख़ामख़्वाह, आर्थिक मदद, वाहन में लिफ़्ट आदि की उम्मीद नहीं रखतीं ?<br />
<br />
ऐसे बहुत-से सवाल हैं।<br />
<br />
समानता के लिए एक सुझाव समझ में आता है-<br />
<br />
जब कोई स्त्री और पुरुष, किसी समझौते, किसी व्यवस्था जैसे विवाह, लिव-इन या अन्य कोई जीवन-शैली, के तहत साथ-साथ रहना चाहें तो दोनों के परिवार वाले उन्हें एक तीसरी जगह बसाकर दें, दोनों ही उसमें बराबर या अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार सहयोग करें, दोनों अपनी-अपनी प्रॉपर्टी से हिस्सा दें। या लड़कियां अभी भी पुरुष के साथ उसके घर जानेवाली व्यवस्था से ख़ुश हैं तो वह तो जारी है ही। कोई पुरुष भी अगर स्त्री के साथ जाकर उसके परिवार के साथ रहना चाहे तो उसे भी हिक़ारत की नज़र से क्यों देखना चाहिए !?<br />
<br />
समानता तो समानता है।<br />
<br />
06-08-2015<br />
(जारी)<br />
<br />
<span style="color: red;">(अगला भाग)</span> <br />
<br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-89648920997484916492015-07-08T16:32:00.000+05:302015-07-08T21:20:25.630+05:30सदियों की ख़ता और लम्हों को सज़ा-8<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/04/7.html" target="_blank"><span style="color: red;">(पिछला भाग)</span></a><br />
<br />
भारतीय एक ही सांस में, एक ही वक़्त में कितनी सारी विरोधाभासी बातें एक साथ सोच और कर सकते हैं, इसका एक और उदाहरण अभी-अभी देखा। ‘तनु वेड्स् मनु रिटर्न्स्’ की शुरुआत में ही नायिका/पत्नी नायक/पति के लिए कहती है-‘यह आदमी अदरक की तरह कहीं से भी बढ़ता जा रहा है‘....। यह डायलॉग मशहूर हुआ, महिलाओं ने इसे काफ़ी पसंद किया। ऐसी ही एक दूसरी, लगभग नारीवादी (सुविधा के लिए एक शब्द) फ़िल्म को देखकर बहुत-सी महिलाएं ठीक इसके विपरीत एक स्थिति को भी उतना ही पसंद कर रहीं हैं। यह फ़िल्म है-‘दम लगाके हईशा’। इसमें एक ऐसी स्त्री जिसे कि अब तक प्रचलित भाषा में ‘मोटी’ संबोधन दिया जाता रहा है, से एक आम स्वास्थ्य वाले युवक की शादी हो जाती है और धीरे-धीरे वह उसे स्वीकार कर लेता है।<br />
<br />
अजीब बात है कि इन दोनों बिलकुल विपरीत स्थितियों पर एक साथ ख़ुश कैसे हुआ जा सकता है !? एक स्त्री मोटे पुरुष को छोड़ रही है तो दूसरी तरफ़ एक पुरुष मोटी स्त्री को अपना रहा है। (हालांकि माधवन अदरक तो कहीं से भी नहीं लगते, उसके लिए यह रोल परेश रावल या बोमन ईरानी वगैरह को दिया जा सकता था)<br />
<br />
आज की तारीख़ में हर कोई नारीवादी है, हर कोई प्रगतिशील है, हर कोई अपने हक़ मांग रहा है, हर कोई बदलाव चाहता है !<br />
<br />
तो फिर वो कौन है जो लोगों को हक़ लेने से रोक रहा है !?<br />
<br />
स्त्री जहां भी लड़ रही है, किसी समकालीन/आजकल की पीढ़ी के किसी पुरुष से लड़ रही है, वह उसका पति हो सकता है, उसका भाई हो सकता है, पिता हो सकता है, पड़ोसी हो सकता है, दोस्त हो सकता है, कुलीग़ हो सकता है, बॉस हो सकता है, और कोई हो सकता है.....।<br />
<br />
यह लड़ाई लड़नी पड़ेगी, यह ज़रुरी है।<br />
<br />
मगर यह भी समझना होगा कि करवाचौथ, दहेज, सती, बलात्कार, छेड़ख़ानी.....आज के पुरुषों ने नहीं बनाए....... जिस तरह स्त्री की सारी मानसिकता पुरानी परंपराओं, संस्कारों आदि से बनी, ठीक वैसे ही पुरुष की भी बनी। ठीक जैसे ‘इज़्ज़त’ नाम की अजीबो-ग़रीब शय ने स्त्री का जीना हराम कर दिया, वैसे ही ‘मर्दानगी’ नाम के हव्वे ने मर्दों की नाक में दम किए रखा। सुहागरात के यानि पहले ही दिन स्त्री/पत्नी पर विजय पा लेने के निर्देशों/सलाहों से भरे, डरे हुए पुरुष बहुत लोगों ने देखे होंगे। <br />
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08-07-2015<br />
(जारी)<br />
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(अगला भाग)</div>
Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-85641267319927518812015-04-22T16:05:00.000+05:302015-04-24T14:38:49.617+05:30सदियों की ख़ता और लम्हों को सज़ा-7<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/04/6.html" target="_blank"><span style="color: red;">(पिछला भाग)</span></a><br />
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<br />
आजकल जगह-जगह सुनने को मिलता है कि औरतें तो समझदार हो गईं हैं अब तो बस मर्द को बदलना है।<br />
क्या वाक़ई ऐसा है? क्या हम ज़रा-सा सच सुनने या पढ़ने को तैयार हैं ? वे कौन औरतें हैं जो यह सुनकर ख़ुश हो रहीं हैं कि ‘हर औरत का सम्मान करना चाहिए’ या ‘मैं स्त्रियों का बड़ा सम्मान करता हूं......’<br />
<br />
झूठी तारीफ़ सुनकर ख़ुश हो जाना स्त्रियों और पुरुषों दोनों की कमज़ोरी है। मगर हर किसी का सम्मान करना क्या व्यवहारिक रुप से संभव है ? क्या स्त्रियां स्वयं सभी स्त्रियों का सम्मान कर सकतीं हैं ? क्या पुरुष सभी पुरुषों का सम्मान करते हैं ? क्या सम्मान इतनी सतही और सस्ती चीज़ है ?<br />
<br />
अगर ‘मैं सभी स्त्रियों का सम्मान करता हूं’ जैसे जुमले छोड़नेवाले लोग बहुत महान और स्त्रीवादी हैं तो वे कौन लोग थे जो ‘स्त्रियां त्यागी होतीं हैं’, ‘स्त्रियां संतोषी होतीं हैं’, ‘स्त्रियां समर्पिता होतीं हैं’ जैसे झांसे दे-देकर स्त्रियों से सालोंसाल मुफ़्त में काम निकालते रहे? और वे कौन लड़के थे जो लड़कियों को ‘फंसाने/पटाने’ के लिए कैसा भी झूठ बोलने को तैयार रहते थे ? क्या ये सब स्त्रीवादी थे ?<br />
<br />
अगर आप किसीसे ज़बरदस्ती आदर लेंगे, उसपर अपनी इच्छाएं थोपेंगे तो क्या वह आपसे ख़ुश होगा? ख़ुद स्त्रियां जिन्हें ज़बरदस्ती मर्द का आदर करना पड़ा, अब मौक़ा मिलते ही मर्दों को भर-भरके ग़ालियां दे रहीं हैं। <br /><br />और ज़बरदस्ती के इस 'स्त्री-सम्मान' के परिणाम भी कुछ अलग़ होंगे, मुश्क़िल ही लगता है।<br />
<br />
आखि़र आप ख़ामख्वाह हर किसीसे सम्मान चाहते ही क्यों हैं ? ऐसा क्या कर दिया आपने ? अगर कोई आपका सम्मान नहीं कर रहा तो इसका मतलब यह कैसे हुआ कि वह आपका अपमान या नुकसान कर रहा है ?<br />
<br />
उसे लगता है कि जिस भी किसीको, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, अकारण ही ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से सम्मान पाने की चाह है, उसे एक बार मनोचिकित्सक से भी मिल लेना चाहिए।<br />
<br />
क्या वे स्त्रियां भी समझदार हो गईं हैं जो स्त्रीविरोधी कॉमेडी शोज़ में पूरे उत्साह के साथ शामिल होतीं हैं !? यह कैसी समझदारी है कि आपकी स्त्रीमुक्ति में जागृति सिर्फ़ वहां-वहां उभरकर आती है जहां कुछ बोलने में कोई ख़तरा नहीं है!? या जिन लोगों/वर्गों/वर्णों को जलील करना आसान है, जिनका उपहास लोग इस तरह करते आ रहे हैं जैसे उन्हें उपहास के लिए ही बनाया गया हो, उन्हींके सामने एकाएक आपमें सारी नारीमुक्ति जागृत हो जाती है ? इसकी एक वजह है कि भारत में स्त्रियां अकसर धार्मिक हैं इसलिए जातिवादी भी हैं। एक दिन उसने अथीज़्म शब्द यूट्यूब में डालकर सर्च किया तो पाया कि अच्छी-ख़ासी मात्रा में दुनिया-भर की स्त्रियां नास्तिकता पर खुलकर चर्चा करतीं हैं जबकि भारतीय पुरुषों तक के वीडियो वहां गिनी-चुनी मात्रा में हैं।<br />
<br />
क्या वे स्त्रियां भी समझदार हैं जो हर वक्त सारा दोष पुलिस और नेताओं को देतीं हैं? क्या उन्हें इतना भी नहीं पता कि ऐसी क़िताबें जिनमें ‘एक मर्द की गवाही दो औरतों के बराबर होती है’, पुलिसवालों ने नहीं लिखी ? क्या उन्हें यह नहीं पता कि आज तक ऐसी कोई घटना देखने में नहीं आई जहां किसी नेता ने किसी आम आदमी को दहेज़ लेने या देने को मजबूर किया हो ?<br />
<br />
आजकल कई जगह यह भी पढ़ने में आ रहा कि पुरुष बड़े बदतमीज़ हैं, वे रास्तों पर हमारे क्लीवेज़ देखने लगते हैं। हो सकता है बहुत-सी स्त्रियों ने क्लीवेज का फ़ैशन सिर्फ़ स्त्रियों को दिखाने के लिए अपनाया हो, मगर यह जानने में कोई बुराई नहीं है कि देखना, घूरना, छेड़ना और बलात्कार करना सब अलग़-अलग़ बातें हैं। किसी व्यक्ति या ऑबजेक्ट के किसी हिस्से को हमें देखना चाहिए या नहीं देखना चाहिए, यह निर्णय भी तो आप तभी लेंगे जब एक बार देख लेंगे। क्या स्त्रियां अच्छे मसल्स् या सिक्स पैक एब्स् वाले पुरुषों को ग़ौर से नहीं देखती? वैसे क्लीवेज़ जैसे फ़ैशन स्त्रियां सिर्फ़ स्त्रियों को दिखाने को करती होंगी, यह मानना ज़रा मुश्क़िल ही है।<br />
<br />
एक ही वक़्त में आप तरह-तरह के (विरोधाभासी) फ़ायदे एक साथ अपने लिए चाहेंगे तो क्या यह संभव हो पाएंगा ?<br />
<br />
एक विज्ञापन में एक स्त्री एक शर्मीले पुरुष को प्रेमनिमंत्रण की पहल करने के लिए उकसाते हुए कहती है-‘बी अ मैन’! क्या आपको लगता है कि इस स्त्री का आशय यहां ‘मानव’ या ‘इंसान’ से है? यह स्त्री जब इतना कह सकती है तो ख़ुद पहल क्यों नहीं कर सकती ? ‘मर्दानगी’ ने पहले ही दुनिया-भर की मुसीबतें खड़ी कर रखीं हैं और आप आगे फ़िर वही हरक़तें कर रहे हो ?<br />
<br />
निर्भया कांड के कई महीने बाद तक एक विज्ञापन दिखता रहा जिसमें कोई मशहूर युवा आयकन कह रहा था कि ‘मर्द वही है जो स्त्री की रक्षा करे।’ इसमें क्या नई बात कहदी आपने ? यह तो वही पुरानी बीमारी है। मर्द से मतलब क्या है आपका? जिसका शरीर तगड़ा है? बाक़ी जिनका नहीं है वे यूंही खि़सक जाएं !? स्त्रियां, स्त्रियों की रक्षा न करें क्या ? वे तो मर्द हैं नहीं। ये आप उनका उत्साह बढ़ा रहे हैं कि डिस्करेज कर रहे हैं ? और जो किन्हीं कारणों से स्त्री की रक्षा नहीं कर पाते वे सब नामर्द हैं क्या? यह क्या कंपलसरी है कि हर मर्द को सड़क पर होनेवाले हर लफ़ड़े, झगड़े, दंगे में पड़ना ही पड़ना चाहिए ? लोगों को और भी बहुत-से काम होते हैं।<br />
<br />
वैसे भी विज्ञापन या फ़िल्म में स्त्री की रक्षा करने और उनके बाहर, वास्तव में रक्षा करने में फ़र्क़ होता है। आंकड़ों के शौक़ीन चाहें तो पता लगा सकते हैं कि हीरो लोग वास्तविक ज़िंदग़ी में कितनी रक्षाएं वगैरह करते हैं। सड़क पर स्त्री की रक्षा की साल-भर में इक्का-दुक्का ख़बरें पढ़ने को मिलतीं हैं। सारी रक्षा रेडियो-टीवी पर चलती है।<br />
<br />
और यह किसने कहा कि स्त्री की तरफ़ बोलनेवाला हर मर्द महान, संवेदनशील इंसान होता है, स्त्रीमुक्ति की गहरी समझ रखता है?<br />
<br />
उसे याद आती है एक घटना जब वह एक भीड़वाले रुट पर रोज़ सफ़र करता था। कई बार कुछ लड़कियां दिखाई देतीं थी जो आराम से जाकर कंडक्टर के पास बैठ जाया करतीं थी। उनकी उससे दोस्ती रही होती होगी या जो भी संबंध होता होगा। ऐसे ही एक दिन एक लड़की उठकर पिछले दरवाज़े से उतरने को बढ़ी। बस के जो नियम हैं उनके अनुसार भी यह ग़लत था और भीड़ भी भयानक थी। एक प्रौढ़ आदमी अनचाहे ही उस लड़की के रास्ते में इस तरह फंस गया कि उसके हटे बिना निकलना संभव ही नहीं था। मगर वह भी इस क़दर बुरी तरह फंसा था कि उसके लिए हिलना भी संभव नहीं था। धीरे-धीरे भीड़ उस आदमी के पीछे पड़ने लगी। लड़की सुंदर थी, कंडक्टर का सपोर्ट था और हर कोई हीरो बन रहा था। अंत में जब लगा कि लोग उसे पीटने लगेंगे तो सरल ने हस्तक्षेप किया। बिलकुल रुंआसे हो गए उस आदमी ने बहुत आभार माना कि एक आदमी तो उसकी तरफ़ बोला।<br />
<br />
इसी तरह एक बार जब वह परिवार के साथ कहीं जाने के लिए बस में बैठा था कि एक मां-बाप एक बहुत ख़ूबसूरत बेटी के साथ बस में चढ़े। सीट ढूंढते हुए वे वहीं आ पहुंचे जहां सरल के आगेवाली सीट पर एक कमज़ोर फ़टेहाल शराबी बेसुध पड़ा था। मां-बाप अभी कुछ सोच ही रहे थे कि पड़ोस की सीट से अचानक एक ‘हीरो’ उठा और उस मरियल शराबी को तड़ातड़ थप्पड़ मारने शुरु कर दिए। फिर प्रभावशाली डायलॉगबाज़ी करते हुए उस मरियल, ग़रीब, बेसुध शराबी को बस से बाहर धकेल दिया। पता नहीं उसकी इस ‘हीरोपंती’ से लड़की इम्प्रैस हुई या नहीं मगर सरल इस बात से कई दिन निराश रहा कि उस दिन वह कुछ बोल ही नहीं पाया।<br />
<br />
समझदार स्त्रियां किन लोगों से प्रभावित होतीं हैं, कैसे पुरुषों को पसंद करतीं हैं ? सामान्यतः लड़कियां उन लड़कों को पसंद करती पाई जातीं हैं जो उनके काम तुरत-फ़ुरत करवा कर दे दें। और ऐसे काम बेईमान और जुगाड़ू लोग ही करा पाते हैं, ईमानदार आदमी इस मुल्क़ में अपने ही काम नहीं निपटा पाता, दूसरों के लिए क्या कर पाएगा ? आपको यह तरीक़ा, ऐसे लोग पसंद हैं तो इसका भी आपको पूरा हक़ है। मगर तब भ्रष्टाचार-विरोध के कार्यक्रमों में ईमानदारी के नारे लगाते हुए आप अजीब-से लगते हैं। दूसरों से, पुलिस से, नेताओं से क़ानून को ठीक से लागू करने की मांग करते हुए भी आप विचित्र ही लगते हैं।<br />
<br />
क्या समस्याएं झूठ बोलने और अव्यवहारिक बातें करने से हल हो जाएंगी !?<br />
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22-04-2015<br />
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(जारी)<br />
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(अगला भाग)<br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-81802675176398918042015-04-07T14:59:00.000+05:302015-04-07T15:04:36.312+05:30सदियों की ख़ता और लम्हों को सज़ा-6<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/04/5.html" target="_blank"><span style="color: red;">(पिछला भाग)</span></a><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span style="color: red;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-TJO0s6hjG6i248h_Sf-TclXXxRoJ0gdx_mvek4uQgF3UvMLdg2iHVK10NG7oAyJeDbB6_qzCy6xmcex1Ve6StQI9iKVqvodMxq5kA-nfKtnlC4ctFlT73tZj265LWvdjhdM3oqFRpKFg/s1600/saralkidiary-betartib.bmp" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-TJO0s6hjG6i248h_Sf-TclXXxRoJ0gdx_mvek4uQgF3UvMLdg2iHVK10NG7oAyJeDbB6_qzCy6xmcex1Ve6StQI9iKVqvodMxq5kA-nfKtnlC4ctFlT73tZj265LWvdjhdM3oqFRpKFg/s1600/saralkidiary-betartib.bmp" height="111" width="200" /></a></span></div>
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इस वीडियो में ज़्यादा आपत्तिजनक तो कुछ नहीं है मगर नया भी कुछ नहीं है। दुनिया-भर में, भारत में भी पत्र-पत्रिकाओं, इंटरनेट की बहसों और टीवी सीरियलों में पिछले कई सालों से ये बातें कही जा रहीं हैं और इस वीडियो से बेहतर ढंग से कही जा रहीं हैं। इस वीडियो का सबसे कमज़ोर पहलू यह है कि इतने गंभीर और जटिल मुद्दे पर कहीं भी तर्क देने की कोई ज़रुरत ही नहीं समझी गई है। बल्कि पुराने ब्राहमणवादी अंदाज़ में घोषणाएं की गईं हैं। इतने ख़र्चे और इतनी तैयारी के साथ थोड़ा ध्यान ‘रीज़निंग’ पर भी दिया गया होता तो वीडियो का प्रभाव शायद कुछ और होता। इसे देखते हुए, अनायास ही चीची गोविंदा का पुराना हिट गीत ‘मेरी मर्ज़ी’ बार-बार याद आता रहा।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe allowfullscreen="" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/6HnW7CGcFDw/0.jpg" frameborder="0" height="266" src="http://www.youtube.com/embed/6HnW7CGcFDw?feature=player_embedded" width="320"></iframe></div>
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<br />
अंततः जब दीपिका कहतीं हैं कि ‘आय एम द यूनिवर्स....’ तो यह वीडियो पूरी तरह ब्राहमणवादी अमूर्त्तन को टक्कर देने लगता है और डर लगने लगता है कि इतने सारे मर्द-भगवानों के बोझ-तले करा रहे भारत को क्या अब कुछ नयी स्त्री-भगवानों को भी झेलने की तैयारी कर लेनी चाहिए। चाहे सचिन तेंदुलकर हों, भारत का तथाकथित ‘सबसे अक़्लमंद बच्चा’ कौटिल्य हो या कार्टूनिस्ट त्रिवेदी हों, अपने लोगों को तुरत-फ़ुरत आयकन या भगवान बना देने का ब्राहमणवाद का यह शौक़ भारतीयों को बहुत भारी पड़ता रहा है। यूं भी पिछले काफ़ी समय से यह देखने में आ रहा है कि फ़िल्मइंडस्ट्री बदलाव के आगे कम और पीछे ज़्यादा चलती है। और अपने आर्थिक पक्ष का ख़ास ख़्याल रखती है।<br />
<br />
शादी से पहले, शादी के समानांतर या शादी के बाद यौन-संबंध बनाने का हक़ किसीको भी हो सकता है, मगर भारतीय शादी का काँसेप्ट चूंकि अलग तरह का है इसलिए ये बातें प्रेमसंबंधों के दौरान या अरेंज्ड् मेरिज में रिश्ता तय करते समय साफ़ कर ली जाएं तो बेहतर होगा। वरना अब तक भारतीय शादी को लेकर जो मान्यताएं और धारणाएं रहीं हैं, उनके चलते किसीको भी ऐसे संबंधों पर आपत्ति और कष्ट हो सकता है। और उस आपत्ति और कष्ट को नाजायज़ कतई नहीं कहा जा सकता।<br />
<br />
इसमें कोई शक़ नहीं कि पुरुष भी अब तक ऐसी हरक़तें बिना बताए करते आए हैं मगर बेहतर तो यही होगा कि पिछली भूलों से सबक लेकर आगे जो रास्ते बनाए जाएं वो पहले की तरह उलझे हुए, भ्रमित करनेवाले, कन्फ़्यूज़ करनेवाले न हों बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा स्पष्ट, साफ़-संुथरे और पारदर्शी हों।<br />
<br />
(जारी)<br />
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07-04-2015<br />
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(अगला भाग)<br />
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<br /></div>
</div>
Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-49355718849782219252015-04-07T12:00:00.000+05:302015-04-07T15:02:28.421+05:30सदियों की ख़ता और लम्हों को सज़ा-5<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span style="text-align: left;"><a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/04/4.html" target="_blank"><span style="color: red;">(पिछला भाग)</span></a></span></div>
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<iframe allowfullscreen="" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/30tnmyzgRSI/0.jpg" frameborder="0" height="266" src="http://www.youtube.com/embed/30tnmyzgRSI?feature=player_embedded" width="320"></iframe></div>
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/04/4.html" target="_blank"><span style="color: red;">(पिछला भाग)</span></a><br />
यहां देखिए, नायिका को सीधी बात में मज़ा नहीं आ रहा, वह चाहती है कि नायक कुछ घुमा-फिराकर कहे। यह तो फ़िल्मी सिचुएशन है मगर बाहर की दुनिया में भी घुमाने-फिराने को बड़ी प्रतिष्ठा मिली हुई है। घुमाने-फिराने के सबसे ज़्यादा शौक़ीन हमारे कवि और साहित्यकार हैं। इन्होंने पक्का मान लिया है कि घुमाना-फिराना बड़ी कला है। हुज़ूरेवाला, घुमाना-फिराना सिर्फ़ कला नहीं है, यह ठगी भी है, धोखाधड़ी भी है, बदमाशी भी है। हो सकता है लड़कियों को यह अच्छा लगता हो, हालांकि आज की स्त्रियां उन सब बातों से इंकार कर रहीं हैं जिन्हें कल तक स्त्रियों की पसंद बताया जाता रहा, फ़िर भी मान लें कि लड़कियों को यह अ़च्छा लगता है मगर किन्हीं लड़कों को यह ‘कला’ नहीं आती तो वे इसका कोर्स करने जाएं क्या !? आखि़र सीधी बात में दिक्क़त क्या है ? सही बात तो यह है कि भारतीय समाज की स्थिति ऐसी नहीं है कि ज़्यादा ‘कलाबाज़ी’ दिखाई जाए। यहां तो साहित्य और प्रेम, दोनों जगह सीधी-साफ़ बात और नीयत की ज़रुरत है। <br />
<br />
ईश्वर पर न जाने कितनी कविताएं और लघुकथाएं उसने ऐसी पढ़ीं हैं कि कुछ समझ में ही नहीं आता कि रचनाकार कहना क्या चाहता है, ईश्वर है, कि नहीं है, कि छुट्टी पर गया है, कि सामने नहीं आना चाहता, कि शर्मीला है, कि नहाने गया है.......!? या कि रचनाकार डरपोक है, अपने डर को छुपाने के लिए बिंबों, उपमाओं, प्रतीकों और अलंकारों का सहारा ले रहा है!? दूसरी तरफ़ सोशल मीडिया पर लोग साफ़ बात कर रहे हैं और उसका असर भी दिख रहा है। जो समाज ‘घुमाने-फिराने’ की ‘कलाबाज़ी’ की ही वजह से पतन के कगार पर पहुंच गया हो और आगे पारदर्शिता की चाह रखता हो उसमें साफ़ बात करनेवालों की क़द्र ज़्यादा हो तो क्या बेहतर नहीं होगा? जिनको ‘कला’ पसंद है वे ‘कला’ देखें-दिखाएं।<br />
(गीतविशेष से कोई दुश्मनी नहीं है, अपनी बात कहने के लिए जो भी पहला गीत याद आया, ले लिया है)<br />
<br />
07-04-2015<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRvJjwVsylSYp7UpM_wQPDqa41c8r3CUG7AB8VhyphenhyphendCdw_gzDc2xU2yg810s-GZAD2VYvejQdAL_nxZep20s20tJNcHcds0MzZfjsUxmAfIYbnnI5TEqj4WuTTL9G8737iqLSaY3WyrECWU/s1600/saralkidiary-betartib.bmp" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRvJjwVsylSYp7UpM_wQPDqa41c8r3CUG7AB8VhyphenhyphendCdw_gzDc2xU2yg810s-GZAD2VYvejQdAL_nxZep20s20tJNcHcds0MzZfjsUxmAfIYbnnI5TEqj4WuTTL9G8737iqLSaY3WyrECWU/s1600/saralkidiary-betartib.bmp" height="111" width="200" /></a></div>
कई बार तो लगता है कि लोग मुद्दों को भी घुमाए-फिराए दे रहे हैं। वर्णव्यवस्था से बड़ा वी आईपी का, छुआछूत से बड़ा काले-गोरे का और दहेज़ से बड़ा लाल बत्ती का मुद्दा हो गया है। टीवीवाले असली मुद्दों से घबराते क्यों हैं ? भारतीय न्यूजचैनलों पर ब्राहमणवाद, नास्तिकता, वर्णव्यवस्था, छुआछूत जैसे शब्द सुनाई ही नहीं पड़ते! धर्म से जुड़े मुद्दों से ये चैनल बचते क्यों हैं ? एक कारण यह भी हो सकता है कि जिस वर्णविशेष के कब्ज़े में सारा मीडिया है, धर्मविरोधी बहसें चलीं तो उस वर्णविशेष की सत्ता उखड़ जाने की पूरी संभावना है। क्योंकि धर्म से नब्बे प्रतिशत फ़ायदे उसी वर्णविशेष के लोगों को मिलते दिखाई देते हैं।<br />
<br />
रंगभेद पर एक स्टिंगनुमां कार्यक्रम में ज़्यादातर स्त्रियां रंगभेद के विरोध में यह दलील देतीं सुनाई पड़ीं कि ‘हमें तो भगवान ने काला बनाया है’। ऐसी दलीलें अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने जैसी हैं। सामनेवाला भी कह सकता है कि हमें भी रंगभेद करने की मानसिकता भगवान ने दी है, हम क्या कर सकते हैं। वैसे भी, जैसाकि बताया जाता है, धार्मिक पुस्तकों में जो कुछ लिखा है वह स्त्री के विरोध में ही ज़्यादा है, उसे ग़ुलाम या सामान बनाए रखने का हिसाब-क़िताब है। यूं अपनी-अपनी तरह से तर्क देने को हर कोई स्वतंत्र है।<br />
<br />
इधर 'मेरी मर्ज़ी' यानि ‘माई चॉइस’ का ऐलान करता दीपिका पादुकोण का एक वीडियो आया है।<br />
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(जारी)<br />
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07-04-2015<br />
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<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/04/6.html" target="_blank"><span style="color: red;">(अगला भाग)</span></a><br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-21534616027383606112015-04-04T14:39:00.000+05:302015-04-07T12:08:45.614+05:30सदियों की ख़ता और लम्हों को सज़ा-4<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: left;">
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/04/3.html" target="_blank"><span style="color: red;">(पिछला भाग)</span></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: left;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both;">
हे देश के पवित्र महात्मागणों, फूफा-फूफिओं, दादा-दादिओं, नाना-नानिओं, जीजा-जीजिओं, पिताओं-माताओं, तुम जो ये झंडे ले-लेके एकाएक क्रांतिकारी हो उठे हो, ये न सोच बैठना कि जो लोग बलात्कार नहीं करते वे बहुत महान हैं। उन्हींमें से बहुत-सारे लोग सरिता-मुक्ता-मेट्रो नाऊ के कॉलमों में घुसे बैठे हैं। उनके अलावा बहुत-सारे तुम्हारे वे पारंपरिक पुत्र हैं जो लड़की पटाने का पारंपरिक हुनर और ‘धैर्य’ रखते हैं। जो ‘प्यार और युद्ध में सब जायज़ है’ नामक भजन पर पूरी श्रद्धा रखते हैं, किसी राम की मर्यादा की बात भी करते हैं और साथ-साथ किसी कृष्ण के नुस्ख़े भी आज़माते रहते हैं। व्यक्तित्व के इसी विघटन/दोमुंहेपन को सीज़ोफ्रीनिया कहा जाता है। दूसरों को कुछ समझाने से पहले ख़ुद ठीक से समझ लो कि हर कोई इतना पाखंड एक साथ नहीं साध सकता। तुम कितने भी अच्छे नाम इन्हें दो पर दरअसल ये बेईमानों के हुनर हैं। तुमने तो खिड़कियों-रोशनदानों के ज़रिए अपना काम निकाल लिया पर जो तुम्हारी तरह पाखंडी, बेईमान और सीज़ोफ्रीनिक नहीं हैं वो क्या करेंगे ? </div>
<div class="separator" style="clear: both;">
तुम क्या करते रहे वो तुम ज़रा इस गीत में देखो। ‘भारत की बेटियां’ में आज का कथित सबसे बड़ा अपराधी जो कह रहा है, यह गीत उससे कितना अलग है? तुम्हारी फ़िल्में, तुम्हारी कहानियां, तुम्हारे उपन्यास ऐसी मानसिकता से भरे पड़े हैं। ऊपर से अब यही लोग उपदेश भी बांच रहे हैं।</div>
<div>
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe allowfullscreen="" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/5w-ivvJRUdE/0.jpg" frameborder="0" height="266" src="http://www.youtube.com/embed/5w-ivvJRUdE?feature=player_embedded" width="320"></iframe></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both;">
याद करो वे चुटकुले जो रिश्तों की मर्यादा, पवित्रता की बात करनेवाले दोस्त और सहेलियां अकेले में मज़े ले-लेकर सुनाते थे कि किस तरह एक आदमी कहीं से एक छूत की बीमारी लेकर लौटा और कैसे वो बीमारी कुछ ही दिन में सारे परिवार में फैल गई। अंदर जिस चीज़ में तुम रस लेते रहे, बाहर उसीके खि़लाफ़ नारे लगाने लगे? इसीको सीज़ोफ्रीनिया कहते हैं महामनाओं। ज़रा ध्यान से देख लो, तुम्हारे आस-पास क्रांति की तख़्तियां लिए खड़े लोग वही चुटकुले सुनाकर तो नहीं निकले।</div>
<div class="separator" style="clear: both;">
<br />आज तुम्हे, पुलिस और क़ानून की बड़ी याद आ रही है कि पुलिस और क़ानून कुछ नहीं करते, नेता कुछ नहीं करते। मगर तुम्हे यह याद नहीं आ रहा कि तुम्हारे बच्चे पुलिस ने नहीं पाले। ख़ुद पुलिसवाले तुम्हारे ही जैसे किन्हीं घरों में पले हैं। और तुम्हे दहेज़ लेते-देते वक़्त तो क़ानून याद नहीं आता ? तुम्हे गली और सड़क पर दूसरों के रास्ते में कमरे बनाते और दुकान बढ़ाते वक़्त तो क़ानून याद नहीं आता ? तुम्हे सड़क पर गड्ढे खोदकर तम्बू तानते समय तो क़ानून याद नहीं आता ? न तुम्हे टैक्स मारते में क़ानून की याद आती है! न तुम्हे टीए डीए के नक़ली बिल बनाते हुए क़ानून याद आता है! क्या तुम्हारे अख़बारों में रचना छापने को लेकर कोई स्पष्ट नियम-क़ानून हैं ? तुम्हारा कौन-सा चैनल है जो अख़बार में विज्ञापन निकालता हो कि हमें फ़लां-फ़लां विषयों पर डिबेट के लिए फ़लां-फ़लां योग्यता वाले डिबेटर चाहिएं? सबने ख़ुद धक्कमपेल चला रखी है और दूसरों को ईमानदारी सिखा रहे हैं!?</div>
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<br />ख़ुद कोई क़ानून मानेंगे नहीं और अपने लिए बिलकुल ठीक-ठीक न्याय चाहिए!? क्यों चाहिए !? तुमने क़ानून का पालन करनेवालों का कितनी बार साथ दिया जो अब दूसरों से शिक़ायत कर रहे हो कि दूसरे साथ नहीं देते ? तुम्हे याद है कि क़ानून का पालन करनेवालों की तुम क्या-क्या कहकर हंसी उड़ाते रहे-भोंदू, अव्यवहारिक, फ़ालतू, पागल, निठल्ला, सनकी!</div>
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<br />अब ख़ुद यही सब बनना चाहते हो!?</div>
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<br /></div>
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(जारी)</div>
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04-04-2015</div>
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<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/04/5.html" target="_blank"><span style="color: red;">(अगला भाग)</span></a></div>
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-68351901105572788532015-04-02T18:18:00.000+05:302015-04-04T14:42:08.082+05:30सदियों की ख़ता और लम्हों को सज़ा-3<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/04/2.html" target="_blank"><span style="color: red;">(पिछला भाग)</span></a><br />
<br />
जब सानिया मिर्ज़ा जीतती हैं, साइना नेहवाल जीतती हैं, सचिन तेंदुलकर रिकॉर्ड बनाते हैं, धोनी वर्ल्ड कप दिलाते हैं तो तुम कहते हो कि ये हमारे आदमी हैं, हमें इनपर गर्व है। तुम्हारे बेटे-बेटी क्लास में सबसे ज़्यादा नंबर लाते हैं, अच्छी नौकरी पाते हैं तो तुम कहते हो कि अहा देखा हमारे बच्चे कितने होनहार हैं। तुम मोहल्ले और देश में मिठाईयां बांट-बांटकर खाते हो। मगर जब ममता कुलकर्णी अफ़्रीका में ड्रग्स के धंधे में पकड़ी जातीं हैं तब वो तुम्हारी नहीं होती क्या ? तब वो किसी और की हो जाती है !? जब तिवारी जी डीएनए टेस्ट में पकड़े जाते हैं तो वो तुम्हारे क्यों नहीं होते ? जब कोई बच्चा छेड़छाड़ या बलात्कार के केस में पकड़ा जाता है तो वो तुम्हारा ही आदमी क्यों नहीं होता ? मिठाई तुम बांटकर खाओगे और सज़ा कोई और भुगतेगा ? सज़ा में भी थोड़ा हिस्सा बंटाओ ना।<br />
<br />
तुम्हारे घर में तकिए के नीचे से जो मनोहर कहानियां और सत्यकथा की प्रतियां बरामद होतीं थीं वो वहां कौन रखकर जाता था ? क्या कोई भूतप्रेत ? कोई चमत्कारी बाबा ? तुम ख़ुद ही लेकर आते थे कहीं न कहीं से, अंकलजी, आंटीजी। दीदीजी और भैयाजी। चाचाजी और चाचीजी। ताऊजी और ताईजी। मामाजी और मामीजी। तुम क्यों पढ़ते थे उन्हें ? उनमें बलात्कारों या अन्यत्र यौन-संबंधों के चटख़ारेदार विस्तृत वर्णन के सिवाय और क्या होता था ? तुमने कभी ऐसी कोशिश की क्या कि आदमी की सहज-सामान्य प्राकृतिक इच्छाएं सीधे और पारदर्शी तरीक़ों से पूरी हो जाएं, उसे किन्हीं टेढ़े-मेढ़े अंधेरे रास्तों पर न भटकना पड़े!?<br />
<br />
और वो ‘सरिता’, ‘मुक्ता’, ‘मेरी सहेली’, ‘तेरी सहेली’ क्या बच्चे फेंक जाते थे घरों में!? जिनके ‘कांसे कहूं’, ‘आपकी समस्याएं’ कॉलमों में अस्सी प्रतिशत समस्याएं इनसेस्ट संबंधों की होतीं थीं। ये कखग और एक पाठक के नाम से छपनेवाली समस्याएं क्या संपादक ख़ुद ही लिख लेते थे!? अगर हां तो समझ लीजिए कि संपादक कैसे होते थे। और अगर नही ंतो साफ़ ज़ाहिर है कि आधे से ज़्यादा लोग अपने ही आसपास कहीं अंधेरे कोनों में अपने लिए आसान रास्ते ढूंढ लेते थे। किसी-किसी को कभी अपराधबोध होने लगता था, या रंगे हाथ पकड़े जाते थे या नौबत ब्लैकमेल की आ जाती थी तो वे एबीसी बनकर ऐसी पत्रिकाओं में समाधान ढूंढने लगते थे। यहां याद रखने की बात यह भी है कि ऐसे सभी लोग शिक्षित नहीं होते, हों तो सबकी पहुंच पत्रिकाओं तक नहीं होती, हो भी तो सब चिट्ठियां नहीं भेजते यानि कि ऐसे लोगों की संख्या जितनी पत्रिकाओं में दिखती थी/है उससे ज़्यादा ही रही होगी।<br />
<br />
मगर सामने समाज में तो कहीं वे दिखते नहीं! यहां तो जिसको देखो वही बलात्कार और भ्रष्टाचार का विरोध कर रहा है!<br />
<br />
तो फिर इस देश में भ्रष्टाचार और व्याभिचार(!) के बीज आखि़र डाले किसने ?<br />
<br />
कहां ग़ायब हो गया है वह आदमी ?<br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 16px; line-height: 22.3999996185303px;">(जारी)</span><br />
<br />
02-04-2015<br />
<br />
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/04/4.html" target="_blank"><span style="color: red;">(अगला भाग)</span></a><br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-17403651120791511902015-04-02T15:27:00.001+05:302015-04-04T15:49:46.961+05:30सदियों की ख़ता और लम्हों को सज़ा-2<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="http://www.saralkidiary.blogspot.in/2015/04/blog-post.html" target="_blank"><span style="color: red;">(पिछला भाग)</span></a><br />
<br />
चंद रोज़ पहले उसने सुना कि एक भीड़ ने क़ानून अपने हाथ में लेकर एक बलात्कारी की हत्या कर दी। सोचने की बात यह है कि हत्या और बलात्कार में फ़र्क़ क्या है ? दोनों ही तरह के लोग बातचीत में या तो यक़ीन नहीं रखते या उनमें इतना धैर्य नहीं होता। कहीं न कहीं उन दोनों में दूसरों को लेकर एक मालिक़ाना रवैय्या है, जैसे दूसरे इंसान नहीं हैं, सामान हैं। यह भाव कहां से आया ? यह क्या एक ही दिन में पैदा हो गया ? नहीं, कुछ न कुछ बुनियादी गड़बड़ है। अगर यह पूरी भीड़ बलात्कार की विरोधी थी तो उस आदमी की हिम्मत ही कैसे हुई कि वह ऐसा सोच भी लेता ?<br />
<br />
क्या कोई बच्चा जन्म से यह तय करके पैदा होता होगा कि मैं एक दिन बलात्कार करुंगा!? तो !?<br />
<br />
<a href="http://samwaadghar.blogspot.in/2010/07/blog-post_09.html" target="_blank"><span style="color: red;">बच्चे के पास अपनी कोई सोच नहीं होती।</span></a> वह सब कुछ इसी दुनिया से सीखता है। उसके मां-बाप, रिश्तेदार, टीचर, पड़ोसी, अख़बार, पत्रिकाएं, फ़िल्में, धर्म, धर्मगुरु, राजनीति......ये सब मिलकर एक बच्चे का व्यक्तित्व बनाते हैं। सही बात तो यह है कि जिस भीड़ ने बलात्कारी को मारा वो पूरी भीड़ उस बलात्कार में हिस्सेदार थी।<br />
मज़े की बात, असलियत समझने का अब से अच्छा मौक़ा कभी आया ही नहीं। अभी 3-4 साल पहले इस देश में एकाएक आंदोलन शुरु हो गया जिसे एक साथ सभी न्यूज़-चैनलों ने रात-दिन दिखाना शुरु कर दिया। तथाकथित भ्रष्टाचार-विरोधी इस आंदोलन के करनेवाले कह रहे थे कि देश की पूरी सवा अरब जनता भ्रष्टाचार-विरोधी है और सब हमारे साथ हैं।<br />
<br />
तो भैय्या फिर भ्रष्टाचार कर कौन रहा है ?<br />
<br />
ये लोग भ्रष्टाचार-विरोध को ईश्वर से जोड़ रहे थे, धर्म की दुहाई दे रहे थे, सभ्यता और संस्कृति का हवाला दे रहे थे। इनकी एक-एक हरक़त से साफ़ दिखता था कि ये उन्हीं लोगों के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने इस देश पर एक सड़ियल और अतिपाखंडी संस्कृति थोपी है जिसकी वजह से एक लगभग पूरा समाज सीज़ोफ़्रीनिक हो चुका है।<br />
<br />
केबल टीवी और इंटरनेट जैसे माध्यमों से जनता के रुख़ में आए बदलाव को भांपकर अब यही लोग बदलाव का क्रेडिट लेने में जुट गए हैं।<br />
<br />
वरना जिस देश के सवा अरब लोग और पूरा मीडिया भ्रष्टाचार-विरोधी हो वहां भ्रष्टाचार घुस भी कैसे सकता है ?<br />
<div>
<br /></div>
<br />
(जारी)<br />
02-04-2015<br />
<br />
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2015/04/3.html" target="_blank"><span style="color: red;">(अगला भाग)</span></a><br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-38939465336085242312015-04-01T14:15:00.001+05:302015-04-02T15:30:14.924+05:30सदियों की ख़ता और लम्हों को सज़ा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एन डी टी वी इंडिया अकसर रविवार को मुहिम जैसा कुछ चलाता रहता है।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvqNASHGn7mdKp3M__n7jX5DxIENwlq1fDQtfiB4JYlSHGLFQYahgC8GLcq1cz982qRq1qz91RwjOixbHtF8AeR3M5V-N_Oic4ek9D1Fv6ig1PdxZMt_u4qPlFfAe0oOZMX1-0SBhp_xvc/s1600/diary+betartib.bmp" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvqNASHGn7mdKp3M__n7jX5DxIENwlq1fDQtfiB4JYlSHGLFQYahgC8GLcq1cz982qRq1qz91RwjOixbHtF8AeR3M5V-N_Oic4ek9D1Fv6ig1PdxZMt_u4qPlFfAe0oOZMX1-0SBhp_xvc/s1600/diary+betartib.bmp" height="158" width="200" /></a></div>
<br />
साल-भर हुआ होगा शायद। स्त्रियों की स्थिति को लेकर बातचीत चल रही थी।<br />
<br />
किसी गांव में मौजूद एक संवाददाता स्टूडियो में मौजूद अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा की बातचीत किसी ख़ाप पंचायत के मुखिया से करा रहा था। मुखिया हैरान-परेशान सुन रहा था। प्रियंका टीचर की तरह उसे समझा रहीं थीं। सरल को यह खटक रहा था।<br />
<br />
मुखिया संभवतः अनपढ़ रहा होगा। वह गांव के बाहर की दुनिया को कितना जानता होगा ? जो कुछ उसने बचपन से अपने गांव-घर में देखा-सीखा, वही वह कर रहा होगा। अगर वह आधुनिक होना चाहे तो उसे यह अतिरिक्त प्रयास करके अर्जित करना होगा। वह इस उम्र में क्या-क्या सीख पाएगा ? क्या-क्या सोच-समझ पाएगा ?<br />
<br />
ख़ुद प्रियंका की जो आधुनिकता है उसमें से कितनी उनकी ख़ुदकी अर्जित की हुई है और कितनी माहौल और परिवार से तोहफ़े में मिली हुई !?<br />
<br />
संभवतः वह कांवेट में पढ़ीं हैं।<br />
<br />
फ़िर फ़िल्म इंडस्ट्री में तो स्कर्ट पहनना उतना ही सामान्य है जितना गांव में धोती पहनना। इस इंडस्ट्री में मित्रता या अन्यत्र यौनसंबंध बनाने में कोई साहस या प्रगतिशीलता जैसी बात है ही नहीं। वहां तो पचासियों सालों से लोग एक-दूसरे के दोनों गाल चूमकर स्वागत करते हैं।<br />
<br />
और प्रियंका व अन्य नायिकायों को कपिल शर्मा के शो में क्या हो जाता है !? वहां कपिल अपनी पत्नी के होंठों और रिश्तेदारों का मज़ाक़ उड़ाते नहीं थकते। उनकी एक बुआ है जो शादी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है। एक दादी है जो शराब पीकर अजीब हरक़तें करती है। वहां जितने भी स्त्री-पात्र हैं, लगता है जैसे स्त्री-अस्मिता का मज़ाक़ उड़ाने के लिए ही रखे गए हैं। मगर वहां कोई फ़िल्मकार चूं भी नहीं करता। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम नारी-मुक्ति के मुद्दों और प्रयासों का आकलन भी जातिवाद का फ़िल्टर लगाकर कर रहे हों!<br />
<br />
सही बात तो यह है कि दूर-दराज़ के किसी गांव के अनपढ़ मुखिया का रुढ़िवादी व्यवहार नितांत स्वाभाविक है (ठीक वैसे ही जैसे रजत शर्मा का अपनी विचारधारा(!) वाली सरकार से पुरस्कार ले लेना स्वाभाविक है ; आपत्तिजनक तो यह है कि तथाकथित प्रगतिशील/वामपंथी रोज़ाना ‘फ़ासीवाद आ गया’, ‘फ़ासीवाद आ गया’ चिल्ला रहे हैं और प्रगतिशील(!) व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी उसी सरकार से पुरस्कार ले रहे हैं. ‘मैं वामपंथी हूं इसलिए कलाकार हूं’ वाले अपनी ‘हैदर’ के लिए पुरस्कार ले रहे हैं) मगर रोज़ाना देश-विदेश घूम रहे और अपने शो में हीरोइनों के साथ उन्मुक्त व्यवहार कर रहे कपिल शर्मा द्वारा अपने स्त्री-पात्रों को इस भद्दे ढंग से पेश करना निहायत आपत्तिजनक है। और ध्यान देने लायक बात यह है कि यह सब कर चुकने के बाद प्रोग्राम के अंत में गुडनाइट के साथ वे यह भी कहते हैं कि ‘स्त्रियों का सम्मान कीजिए’। <br />
<br />
<a href="http://www.saralkidiary.blogspot.in/2015/04/2.html" target="_blank"><span style="color: red;">(अगला भाग)</span></a><br />
<br />
01-04-2015<br />
(जारी)<br />
<div>
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<br />
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-24016429594561792822014-06-15T18:48:00.001+05:302014-07-07T11:52:43.572+05:30मर्द की इज़्ज़त<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlNfmlLcuafGe7I4IaTC4kkaOovq_KRLsQ2pqzpX3neT4kaIoxb6N_nCprCKZ949kWcM0d0aIOxSQYvHwqXya4gnRJ7fwnee6OafYq-dDYqs5Qv7PLuxObHF77oh4wI69xMfW8CryPy2Cf/s1600/diary+betartib.bmp" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlNfmlLcuafGe7I4IaTC4kkaOovq_KRLsQ2pqzpX3neT4kaIoxb6N_nCprCKZ949kWcM0d0aIOxSQYvHwqXya4gnRJ7fwnee6OafYq-dDYqs5Qv7PLuxObHF77oh4wI69xMfW8CryPy2Cf/s1600/diary+betartib.bmp" height="158" width="200" /></a></div>
<br />
<a href="http://samwaadghar.blogspot.in/2010/05/1.html" target="_blank"><span style="color: red;">इज़्ज़त</span></a> के दुपट्टे की छांव के डर और लालच में औरत को क्या-क्या नुकसान सहने पड़े, इसपर बात चल निकली है, आगे भी जाएगी। मगर क्या ऐसा मानना ठीक होगा कि मर्दों को ऐसी किसी समस्या से कभी जूझना नहीं पड़ा!?<br />
<br />
उसे याद आता है कि बस या ट्रेन में सफ़र करते वक़्त कभी खिड़की बंद करनी हो या खोलनी हो तो वह कभी कोशिश नहीं करता था। डर यही होता था कि पता नहीं उससे होगा कि नहीं होगा! अगर नहीं हुआ तो कोई क्या कहेगा, क्या सोचेगा, कैसा लड़का है, कैसा मर्द है, ज़रा खिड़की नहीं खुलती। अगर लड़की होता तो किसी दूसरे से कह सकता था कि ‘प्लीज़...ज़रा....’ मगर यहां तो यह ऑप्शन भी बंद है।<br />
<br />
उसे न जाने कितनी घटनाएं याद आती हैं जब सुनने को मिलता था कि ‘देख, वह लड़की होकर कर लेती है और तुम लड़के होकर भी.......’<br />
<br />
उस वक्त तो कोई जवाब उसे नहीं सूझता था, बस अपराधबोध और ग्लानि......जैसे कोई बड़ा अपराध हो गया हो उससे......ज़रा-ज़रा करके उसकी भी इज़्ज़त तार-तार, कई बार हुई। यह भी तो नहीं कह सकता था कि पतला हूं, दुबला हूं, शर्मीला हूं, कमज़ोर हूं तो मैं क्या करुं!? क्या मैंने अपनी मर्ज़ी से ख़ुदको ऐसा बनाया है ? यह कहेगा तो भी हंसी उड़ेगी, अपने शर्मीले और कमज़ोर होने पर वह ख़ुद ही मोहर लगा देगा। चिढ़ानेवाले और ज़्यादा चिढ़ाएंगे, रुलानेवाले और रुलाएंगे।<br />
<br />
किसीको लेने जाना है, किसीको छोड़ने जाना है, किसीका ऐडमिशन कराना है.......वह क्या करे......उसे तो घबराने और शरमाने के सिवाय और कुछ आता नहीं...<br />
<br />
देखो ज़रा दूसरे लड़कों को देखो, क्या भाग-भागकर फटाफट काम कर लाते हैं....<br />
<br />
वह डूबकर मर जाए क्या ?<br />
<br />
हीन-भावना बढ़ती जाती है मगर उसे यह भी लगता है कि उसके साथ कुछ ज़्यादती हो रही है।<br />
<br />
समझ नहीं पाता। समझा नहीं पाता।<br />
<br />
<a href="http://saralkidiary.blogspot.in/2010/12/blog-post.html" target="_blank">लक्षमण की क्या समस्या थी कि राखी सावंत ने ज़रा फटकारा और उसने ख़ुदकुशी कर ली?</a><br />
<br />
इज़्ज़त के अलावा और क्या? उसकी सच्चाई सार्वजनिक रुप से सामने आई और ‘इज़्ज़त’ चली गई। वरना तो जैसे-तैसे चल ही रहा था।<br />
<br />
अब तो क़रीब दसेक साल हो गए होंगे किसी रीति-रिवाज में शामिल हुए लेकिन पुरानी यादों में से कुछ बतातीं हैं कि लड़के भी कुछ कम डरे हुए नहीं होते थे अपने पहले संबंध को लेकर। इधर-उधर से ज्ञान मांगते फिरते थे कि कैसे पहली रात शानदार न सही, ठीक-ठाक तो गुज़र जाए।<br />
<br />
न जाने यह कैसे हुआ कि किसीने मर्द को यह फ़लसफ़ा दे दिया कि तुम्हे ही, हर हाल में तुम्हे ही जीतना है, वरना ज़िंदगी बेकार है।<br />
<br />
एक ऐसा संबंध, एक ऐसा खेल जिसमें एक प्रतिभागी ऐक्टिव है और एक पैसिव है......एक ऐसी दौड़ जिसमें एक दौड़ाक को दौड़ना है, दूसरे को लगभग दृष्टा बने रहना है, या आंखें ही मूंद लेनी हैं......ऐसी दौड़ तीन घंटे में ख़त्म हो या तीन मिनट में, थकेगा तो वही जो दौड़ रहा है, जो सिर्फ़ दृष्टा है वह हार भी कैसे सकता है?<br />
इस संबंध और सच को अगर ठीक से समझा गया होता और पुरुष को फ़ालतू के अहंकारों में न जकड़ा गया होता तब भी क्या स्त्री-पुरुष संबंध इतने ही जटिल होते? क्या तब भी सभ्यता को बलात्कार जैसी समस्याओं का सामना इतनी ही मात्रा में करना पड़ता ? क्या तब भी प्रेम जैसे संबंध में शारीरिक हार-जीत के इतने बड़े मायने होते?<br />
<br />
मर्द भी जगह-जगह अपनी इज़्ज़त तो नहीं बचाता फिर रहा ?<br />
<br />
-संजय ग्रोवर <br />
15-06-2014<br />
<br />
<div>
<br /></div>
</div>
Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9010437087077385956.post-79397405192563030272013-09-19T18:27:00.003+05:302013-09-19T18:27:52.767+05:30यहां हर कोई नहीं पहुंच सकता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifhGd8IQMDXX77UQEKF7ladJen_IymCOzT0Kb96mqmRS6uNtOmRrOeVzrO_Z0Iw1Kua5JKWHgZp6nr5eqFRl8l71rGj92z9KDBsV7K_wMUdHIiFTopcNmAVo8XlXKhCMNkwnf7L-v3pJp7/s1600/Copy+of+saralkidiary-betartib.bmp" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="111" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifhGd8IQMDXX77UQEKF7ladJen_IymCOzT0Kb96mqmRS6uNtOmRrOeVzrO_Z0Iw1Kua5JKWHgZp6nr5eqFRl8l71rGj92z9KDBsV7K_wMUdHIiFTopcNmAVo8XlXKhCMNkwnf7L-v3pJp7/s200/Copy+of+saralkidiary-betartib.bmp" width="200" /></a><br />
‘आपका मेल मिला, मैं आपकी हर मुहिम में आपके साथ हूं।’<br />
‘चलिए, किसीने तो जवाब दिया।’<br />
$ $ $<br />
‘यह तसवीर कैसी लगा रखी है आपने?’<br />
‘क्यों ठीक नहीं है क्या?’<br />
‘नहीं, नहीं, बहुत गोरे हो रहे हैं आप तो।<br />
$ $ $<br />
‘आपकी क़िताब तो आई नहीं अभी तक। जल्दी भेजिए...’<br />
‘अरे, आप तो.....थोड़ा धैर्य रखा करें। अभी कोरियर कराके ही आ रहा हूं, रास्ते में ही हूं...’<br />
$ $ $<br />
‘हमारे बड़े नेताजी का निधन हो गया है, आप इसपर कमेंट डालिए...<br />
‘मैं क्यों डालूं ? नेता जी आपके हैं, मुझे क्या लेना ?’<br />
‘तो फ़िर मैं आपको ब्लॉक......’<br />
‘ज़रुर कीजिए, आपका तो रोज़ का काम है.....’<br />
$ $ $<br />
‘आज शाम कुछ आतंकवादी जेल से भाग गए हैं, सज़ा पूरी होने में दो-चार दिन ही बाक़ी थे। ज़रुर कोई साजिश है। आप मेरे वॉल पे कमेंट करें....’<br />
‘अरे मैं अभी सोकर उठा हूं, पहले ख़बर तो देख लूं ठीक से....<br />
‘अरे, मैं क्या झूठ बोल रही हूं, टिप्पणी कीजिए......’<br />
‘ठीक है, अभी एक वंचित वर्ग की महिला के साथ बलात्कार हो गया है, पहले आप उसपर टिप्पणी कीजिए.......’<br />
‘हैं!’<br />
$ $ $<br />
‘क़िताब मिल गई आपकी, यह क्या लिखा है आपने, क्या समीक्षा करवानी है...........<br />
‘आप क्या कोई समीक्षक हैं! अरे ये आपका हौसला बढ़ाने के लिए है....’<br />
‘क्यों, हमें क्या हौसले की कमी है?’<br />
‘अरे, पहले ही दिन से क्या-क्या दुखड़े तो सुना रखे हैं आपने अपने......नहीं ठीक लगा तो मिटा दीजिए......’<br />
$ $ $<br />
‘एक साहब लेखकों की डायरेक्ट्री निकाल रहे हैं, मेरा बायोडाटा इंग्लिश में है, आप हिंदी कर देंगे?’<br />
‘भेज दीजिए, देखके बताऊंगा।<br />
$ $ $<br />
‘यह तो बहुत लंबा है, एक पेज़ का मैटर बता दीजिए, कर दूंगा।’<br />
‘एक पेज का....अच्छा मैं बता.....<br />
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‘तीन दिन हो गए आपने बताया नहीं कुछ ?’<br />
‘अभी टाइम नहीं है मेरे पास....’<br />
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‘10 दिन हो गए आपने ट्रांसलेशन नहीं किया। अब उनका फ़ोन आ रहा है, बायोडाटा जल्दी भिजवाएं, अब मैं क्या करुं?’<br />
‘मैंने तो आपसे रोज़ पूछा, आपने बताया ही नहीं, कौन-सा पोर्शन करना है?’<br />
‘आप अपनी क़ाहिली को छुपा रहे हैं.....<br />
‘देखिए, मुझसे आप यह ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ वाली हरकत मत कीजिएगा....मैं उस तरह का आदमी नहीं हूं.......’<br />
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‘आए दिन आप ब्लॉक करते हो, आए दिन फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजते हो, यह क्या नाटक है?’<br />
‘मैंने कब भेजी? आपको यूंही लग रहा है!’<br />
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‘आज फ़िर आपने यह लिंक भेज दिया। मैं भेज देता तो सुनने को मिलता कि अश्लील गाने भेजते हो!’<br />
‘किसने भेजा, मैंने तो नहीं भेजा!’<br />
‘कमाल है, आपको झूठ बोलने में महारत हासिल है या कोई मानसिक समस्या है?<br />
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‘कविताएं नहीं भेजी आपने, प्लीज़ भेज दीजिए, बिलाल साहब रोज़ाना फ़ोन कर रहे हैं।’<br />
‘अरे मेरी कोई रुचि अब रह नहीं गई है भेजा-भाजी में!’<br />
‘मेरी ख़ातिर भेज दीजिए।’<br />
‘अच्छा देखता हूं, मन हुआ तो आपको ही भेज दूंगा।’<br />
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‘आज भी नहीं आईं आपकी कविताएं ; हमने तो पहले ही कहा था कि आप बीच रास्ते ही हमें छोड़ जाएंगे।’<br />
‘छोड़ जाएंगे!? आपने तो हमेशा प्रगतिशील दिखाया है ख़ुदको! फ़िर यह छोड़ना<br />
-पकड़ना कहां से आ गया ?’<br />
‘अच्छा, आप कविताएं तो भेज दीजिए।’<br />
‘भेज दी हैं।’<br />
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‘आप ढूंढके दिखाईए हमें ; यहां हर कोई नहीं पहुंच सकता।’<br />
‘देखिए इस तरह की पैंतरेबाज़ी में मैं यक़ीन नहीं रखता। अगर आपको मुझे बुलाना ही है तो सीधा कहिए। मैं आ जाऊंगा। बार-बार इस तरह की बातें न किया करें।’<br />
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‘मन नहीं लग रहा आज...’<br />
‘तो थाईलैंड में चले जाईए......’<br />
‘मतलब..!?’<br />
‘...............’<br />
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‘फ़लां साहब शादी के पीछे पड़े हैं, हैंडसम हैं, अच्छा ख़ानदान है, जल्दी मचा रहे हैं....’<br />
‘तो कर लीजिए। इसमें मुझे बताने की क्या बात है!? आपका पर्सनल मामला है। पूछना ही है तो अपने साहब से पूछिए.....’<br />
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19-09-2013<br />
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(जारी)<br />
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(लिखी जा रही कहानी से कुछ अंश)</div>
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Sanjay Groverhttp://www.blogger.com/profile/14146082223750059136noreply@blogger.com0