26 दिस॰ 2011

क्यों है ज़रुरी, ग़ज़ल हो पूरी !


पड़े रहते हैं कई शेर कि कभी सुधारेंगे, कि कभी करेंगे ग़ज़ल पूरी। कभी हो जातीं हैं तो कभी रह जातीं हैं, होने को। फिर कभी लगता है कि एक-एक अकेला ही दमदार है तो उतार क्यों नहीं देते मैदान में! संकोच भी होता है इस तरह सोचते मगर क्या करें कि जो सोचा उसे कैसे झुठला दें, क्यों सेंसर कर दें!? तो लीजिए फिर....



हथेली पर कोई गर जान रक्खे
तो मुमकिन है कभी ईमान रक्खे 13-11-2010
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पहले रस्ता रोकेंगे फिर राह बनाना सिखलाएंगे
जीते-जी मारेंगे तुझको और फिर जीना सिखलाएंगे 24-11-2010
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सारी दुनिया में नहीं है सच से भी सच्ची जगह
मैं यहीं पर ठीक हूं हां, जाओ तुम अच्छी जगह 16-07-2010
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धुंधली-धुंधली सूरतें हैं, चीख़ती कठपुतलियां
इस घिनौनी शक्ल को मैं हाय! कैसे दूं ज़ुबां 26-03-2011
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बिके हुए लोग छाती तान के चले
नासमझ थे हम कि ज़िंदा मान के चले 20-08-2011
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इक मैं हूं और इक तुम हो
अच्छे लोग बचे हैं दो
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चेहरों जैसे लगे मुखौटे
बंदर कपड़े पहन के लौटे 20-08-2011
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अपनी हिम्मत के कुछ तो मानी कर 27-04-2011
बेईमानों से बेईमानी कर

पहले बच्चों को बच्चा रहने दे 02-05-2011
क़ौम के नाम फिर जवानी कर

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अपने-अपने अंधियारों में, कैसा पेचो-ख़म लगता था
वो मुझको ज़ालिम लगता था उसको मैं ज़ालिम लगता था 24-05-2011
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मेरे तो हाल रहते थे बहुत ज़्यादा ही संजीदा
मुझे पहली हंसी छूटी, मिले जब लोग संजीदा 29-05-2011
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चालाक़ियों की उम्र भले हो हज़ार साल
बारीक़ियां कभी-कभी कर जातीं हैं कमाल 29-05-2011
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तुम्ही बताओ इसे किसकी मैं कमी समझूं
वो चाहते हैं बिजूके को आदमी समझूं

भरम का धुंआं जिसे ख़ुद उन्हींने छोड़ा था
उसे मैं कैसे उनकी आंख की नमी समझूं 11-10-2011
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तमाशा ख़त्म होने जा रहा है
कि जोकर खोपड़ी खुजला रहा है

मज़ा लेने की आदत डर गयी है
मज़ा अब पास आता जा रहा है 20-12-2011
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जिस दिन सारा खेल सामने आएगा
क्या खेलेगा! तुझपर क्या रह जाएगा 21-02-2011
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वो जो मुझको सुधारने आए
मिरा ज़मीर मारने आए

हाए! रोशन-दिमाग़, मुश्क़िल में
तीरग़ी को पुकारने आए 12-01-2011
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मैं तो गूंगा था निरा बचपन से
सच ने मुझको ज़ुबान बख़्शी है 12-01-2011
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रात को दे दी ख़ुशी इक दोस्त ने
सुबह को इक दोस्त आकर ले गया 15-01-2011
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राम के नाम हराम की तोड़ी छी छी छी
लाश पे बैठके खाई कचौड़ी छी छी छी 22-07-2011
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दीदी-दीदी, भैया-भैया करते हैं
अंदर जाकर ता ता थैया करते हैं 22-07-2011
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तुम मुझको पागल कहते हो! कह लो कह लो
जब तक सपनों में रहते हो, रह लो रह लो 23-07-2011
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वो रोता था तो उसकी आंख चाकू-सी चमकती थी
मैं हंसता था तो मेरी आंख से आंसू निकलते थे

वो कैसा दौर, कितनी उम्र, सब छोड़ो कि ये जानो
हमारा अपना ढब था, अपनी धज थी, अपने रस्ते थे 08-08-2011
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तुम तो कहते थे कि चोरों की निकालो आंखें
और ख़ुद पकड़े गए हो तो चुरा लो आंखें ! 27-06-2011
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रात का हौवा दिखा कर ऐसी मत तुम सहर दो-
चींटियों को आटा दो और आदमी को ज़हर दो!!









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तुमपे तो ज़िन्दगी के सभी राहो-दर हैं बंद
हम ही दीवाने होंगे क्योंकि हम हैं अक्लमंद  05-07-2001
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हंगामा जब चोर करे है    25-01-2011
बासी साजिश बोर करे है

बात करे ताक़तवर जैसी   31-01-2011
हरकत क्यूं कमज़ोर करे है

ताज़ा करवट इधर को ली है  31-01-2011
देखो मुंह किस ओर करे है
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यार तू होगा मर्द का बच्चा
मैं तो अकसर रो लेता हूं  19-01-2011
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झूठों की बात झूठ से बच-बचके पूछिए
झूठों में दम है कितना, ज़रा सच से पूछिए 31-08-2010
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बूंद आंखों से धुंएं में गिर पड़ी
रोशनी अंधे कुंए में गिर पड़ी

आदमी मंज़िल बना खुद एक दिन
और मंज़िल रास्ते में गिर पड़ी
*
फिर से ज़हरीली फज़ां में महक सी आने लगी
फिर खुदाओं के शहर में आया कोई आदमी

गोकि भगवानों के जंगल में बेचारा खो गया
फिर भी कहने को शहर में आदमी ही आदमी
*
कुछ हरे-भरे पत्ते, लो, ठूंठ पे ज़िन्दा हैं
वो धर्म के मालिक हैं जो झूठ पे ज़िन्दा हैं

गर बड़ों का बौनापन जो देखना है तुमको
उस कूबड़ को देखो जो ऊँट पे ज़िन्दा है
*
गर वो झुक-झुक के सलामी करता
शहर भर उसकी ग़ुलामी करता
*
जितना तुम रोकोगे मुझको उतना ज़ोर लगाऊंगा
जिनका तुमको इल्म नही मैं उन रस्तों से आऊंगा

आग लगाने वाले सारे पानी-पानी हो लेंगे
अंगारों के बीच खड़ा मैं जब आंसू बरसाऊंगा
*
करुण कथा की गायक थी
चुप्पी बहुत भयानक थी

सुख नालायक बेटे थे
दुख इक बेटी लायक थी

आसमान बंजर निकला
धरती तो फ़लदायक थी    14-01-2007
*









*
एक हिन्दू मिला और एक मुसलमां निकला
हाय ये दिन कि कोई दोस्त न इंसा निकला
*
मिले हमको खुशी तो हम बहुत नाशाद होते हैं
कि शायर अपनी बरबादी से ही आबाद होते हैं
*
जो बात सिर्फ ख़ास दोस्तों से थी कही गई
वो ख़ास बात ख़ास दुश्मनों तलक चली गई
*
ये क्या किया कि हिन्दू-मुसलमां सिखा दिया       01-05-2005
तुमने जवान बच्चों को बूढ़ा बना दिया
*
कई बार सोचा मैंने कि लोगों जैसा हो जाऊँ 07-12-2005
लेकिन वही पुरानी मुश्किल, खुदको कैसे समझाऊँ

इंसां की तरह दिखते थे, फ़नकार बहुत थे
इंसानियत के गिरने के आसार बहुत थे       13-06-06
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मेरे बारे में इरादे उनके बिलकुल साफ़ थे
ख़ुदको गर मैं मार डालूं मेरे सौ खून माफ़ थे 13-06-06
*
वो जो जीना मुझे सिखाता है
ख़ुदको चुपके से बेच आता है                13-06-06
*
सितम वालों से बच-बचके, मददगारों से बच-बचके
वो जीवन काटता था इस कदर यारों से बच-बचके  23-06-06
*
मैं व्यवस्था से लड़ा और सर पटक कर रह गया
वे व्यवस्था में लगे और आके सर पे चढ़ गए       22-08-06
*
ऐ दोस्त मकड़ियों को भी संजीदगी से लो
दो पल भी ठहर जाएं तो बुन देती हैं जाले     27-08-06

मेरी दिलचस्पी न हिन्दू न मुसलमान में है
मैं हूँ इंसान अक़ीदा मेरा इंसान में है    19-12-2006
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पिन मारा तो पता चला
कितना कुछ था भरा हुआ                    11-01-2002

अंधियारे में झांका तो
मैं ही मैं था डरा हुआ

ख़ाली कैसे मैं होता
ख़ालीपन था भरा हुआ                  03-02-2007
*
घुसा व्यवस्था के अंदर तो भेद समझ में यह आया
जिसकी जितनी नीच सोच थी उतना उच्च वो कहलाया  24-02-2007
*
एक तरफ़ ग़ज़लों का मेला
एक तरफ़ इक शेर अकेला
***

-संजय ग्रोवर

27 मई 2011

ईमानदार बाल मामाजी की बेईमान यादें-2

आखिरी बार तो मैं उनसे तब मिला था जब उनकी छोटी बेटी की शादी में उनके घर पहली बार गया। तब भी उनकी मानसिक स्थिति अच्छी नहीं थी। लेकिन उससे पहले एक बार जब वे हाथरस आए तो काफ़ी ठीक-ठाक थे। मैं भी बड़ा हो चुका था और चीज़ों को समझने का अपना एक नज़रिया मुझमें विकसित हो रहा था। वे कुछ दिन मैंने उनके साथ एक दोस्त की तरह काटे और अच्छे काटे। मैंने पाया कि बाल मामाजी एक बहुत ईमानदार और आदर्शवादी व्यक्ति थे। ईमानदार होना ही उनकी ज़्यादातर मुसीबतों और तक़लीफ़ों की जड़ था। लेकिन आश्चर्य की बात मुझे यह लगी कि अब तक उनका जो ज़िक्र मैं सुनता आया था उसके केंद्र में उनकी ईमानदारी की बात कहीं होती ही नहीं थी। अब सोचता हूं कि क्या ईमानदारी उस वक्त भी कोई क़ाबिले-ज़िक्र उपलब्धि या मूल्य नहीं था ! बाद में जो कुछ अनुभव मुझे ख़ुद हुए, मैंने पाया कि सच्चाई वाक़ई बेहद कड़वी है।
बहरहाल, बाल मामाजी कुछ रुढ़ क़िस्म के आदर्शवादी ज़रुर थे। जैसे, वे कहते कि लड़के और लड़की का संबंध आग़ और पैट्रोल की तरह होता है। सहशिक्षा के वे खि़लाफ़ थे। मैं उस वक्त तक अन्य साहित्य के साथ रजनीश को भी पढ़ने लगा था। मेरी बाल मामाजी से ख़ासी बहस होती। गांधीजी उन्हें बहुत पसंद थे और उनकी आलोचना उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। उन्हें काका हाथरसी भी बहुत प्रिय थे। मुझे याद है जिस दिन वे काका से मिलकर आए, कितने प्रसन्न थे। इसपर भी मेरी उनसे बहस हो जाती। काका की किसी कविता की एक पंक्ति ‘रिश्वत पकड़ी जाए, छूट जा रिश्वत देकर’ उन्हें ख़ासी पसंद थी।
बाल मामाजी एक मुखर स्वभाव के व्यक्ति थे, संकोची कतई नहीं थे। घर पर आने वाले लोगों से वे स्वयं पहल करके बात करते थे। हां, जब उनकी बेरोज़गारी का ज़िक्र आता वे असहज हो जाते।
वे पक्के आस्तिक थे। नानाजी आर्यसमाजी थे और सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। बाल मामाजी के आदर्श और आस्तिकता भी संभवतः वहीं से आए थे। किसी राजनीतिक दल, किसी वाद-विशेष, किसी समाज सेवी संस्था आदि-आदि से बाल मामाजी का कोई लेना-देना नहीं था।

उस दौरान पहली बार उन्होंने मुझे नौकरी छोड़ने का कारण बताया। बाल मामाजी मध्य प्रदेश में किसी ऐसी जगह सरकारी स्कूल में टीचर थे जहां भयानक अकाल पड़ता था। सरकारी मदद के तौर पर जो अनाज (जो कि शायद निहायत ही सस्ती सी कोई चीज़ होती थी) और पैसे आते थे, उनका वितरण स्कूलों के द्वारा भी होता था। बाल मामाजी ने बताया कि वहां भारी घपलेबाज़ी होती थी। ईमानदारी और आदर्शों के मारे बाल मामाजी से यह बर्दाश्त नहीं होता था। वे अकसर विरोध करते और शायद शिकायत भी करते थे। अंतत नतीजा वही हुआ कि बाल मामाजी को तरह-तरह से परेशान किया जाने लगा। विस्तार से तो नहीं पता, पर कुछ ऐसा हुआ कि वे बहुत डर गए और गए और नौकरी छोड़कर चले आए।
ख़ैर, यह सब बताकर, कुछ दिन और रहकर बाल मामाजी चले गए। फिर एक दिन ख़बर आयी कि बाल मामाजी ने आत्म-हत्या कर ली है। अगर मैं कहूं कि यह सुनकर मुझे दुख हुआ या मैं रोता रहा तो यह झूठ होगा। जैसी कष्टपूर्ण ज़िंदगी उनकी थी, उसमें उनके चले जाने में ही उनके और दूसरों के लिए राहत दिखाई पड़ती थी।
मगर कुछ सवाल वे छोड़ गए। जिनमें सबसे बड़ा सवाल मेरे लिए यह है कि क्या सीज़ाफ्रीनिया के सारे रोगी एक जैसे होते हैं और सबको एक ही नज़रिए से देखा जाना चाहिए ? मुझे नहीं याद आता कि कभी किसीने मुझे यह बताया हो कि बाल मामाजी बचपन से ही ऐसे थे। वे बात-बात पर शक किया करते थे या अपने विचारों को ठीक से व्यक्त नहीं कर पाते थे। मेरा मानना है कि हमें आम आदमी और एक ईमानदार आदमी के सीज़ोफ्रीनिया को एक ही निगाह से नहीं देखना चाहिए। जिस आदमी ने भी कभी अकेले दम भ्रष्टाचार से लड़ने या भीड़ के खि़लाफ़ खड़ा होने की कोशिश की है, वह समझ सकता है कि ऐसे में किस सामूहिक मानसिकता का सामना करना पड़ता है। हमारी हक़ीकत उम्मीद से कहीं ज़्यादा कड़वी है। यहां ईमानदार आदमी को पहले उपहास, दया और अपमान का पात्र बनाया जाता है, उसके बाद उससे तरह-तरह के सवाल पूछे जाते हैं। आप ईमानदारी की सिर्फ़ बातें करें, हर कोई आपसे ख़ुश रहेगा। मगर जैसे ही आप व्यवहारिक रुप से ईमानदारी पर उतरेंगे, वे लोग भी आपसे कतराने लगेंगे जिन्होंने बचपन से आपको आदर्श सिखाएं हैं। संगठित बेईमान आपको कटघरे में खड़ा कर देंगे। हांलांकि बाल मामाजी के साथ ऐसा नहीं था। नानाजी और नानीजी उनके प्रति नरम रवैय्या रखते थे। मगर मुश्क़िल शायद यह भी थी कि गांधीजी से प्रभावित नानाजी ने उन्हें आदर्श तो दे दिए थे मगर उन आदर्शों को पालने के लिए जो साहस चाहिए था, वह कहीं छूट गया था। मुश्क़िल यह भी थी कि बाल मामाजी सीघे, सरल और कुछ हद तक सपाट आदर्शवादी थे, रणनीतियां उन्हें नहीं आती थीं और इसमें शायद उनका विश्वास भी नहीं था। जबकि बेईमान व्यक्तियों/माफ़ियाओं की मानसिकता ऐसी होती है कि उन्हें अगर यह मालूम हो जाए कि यह आदमी मानसिक रोगी है तो वे इसका भी पूरा लाभ उठाने की कोशिश करते हैं। वे इतने संगठित, मनोविकृत, क्रूर और बदनीयत होते हैं कि ठीक-ठाक आदमी को भी पागल कर देने की क्षमता रखते हैं। ऐसे में एक अकेले पड़ गए ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति को समझने और उसकी मदद करने की बजाय सारा दोष उसके सीजोफ्रीनिया पर डालकर मामले को बिलकुल एकतरफ़ा बना देना क्या क्रूरता और नासमझी नहीं है !? क्या यह सीधे-सीधे बेईमान पक्ष को बढ़ावा या खुली छूट देना नहीं है ? 
दूसरा सवाल यह है कि बाल मामाजी अगर अपनी ईमानदारी के चलते बाहर ऐडजस्ट नहीं कर सकते थे तो क्या उन्हें घर के काम नहीं दिए जा सकते थे ? उन्हें मेहनत वाला कोई काम करने में ऐतराज़ नहीं था। आखि़र मर्द का बाहर जाकर 9 टू 5 नौकरी करना या 10 टू 10 व्यवसाय करना इतना ज़रुरी क्यों है ? यह कोई कुदरत की बनाई व्यवस्था तो है नहीं, इंसान ने ही बनाई है। तो फ़िर किसी इंसान की भलाई के लिए इसे तोड़ा या बदला क्यों नहीं जा सकता ? स्त्रियां भी तो आज घर से बाहर निकलकर काम कर रहीं हैं। ऐसा हमेशा से तो नहीं था।
तीसरा, जो मां-बाप अपने आदर्शवादी बच्चों का साथ नहीं दे सकते वे उन्हें आदर्श सिखाते ही क्यों हैं ?
ये सवाल जितने दूसरों के लिए हैं, उतने ही मेरे लिए भी सोचने के हैं।
आज अगर बाल मामाजी होते तो कोई वजह नहीं थी कि वह अन्ना हज़ारे के साथ जंतर-मंतर पर जाकर न बैठ जाते। वे एक बच्चे जैसे भोलेपन के साथ श्रद्धा किया करते थे।
आज जब भ्रष्टाचार-विरोध और ईमानदारी के नारों की धूम है, क्या दुनिया में ऐसा भी कोई व्यक्ति होगा जो बाल मामाजी को पागल नहीं बल्कि एक ईमानदार शख़्स के तौर पर याद करता होगा ?

-संजय ग्रोवर

पिछला हिस्सा

3 मई 2011

ईमानदार बाल मामाजी की बेईमान यादें-1

आज सोचता हूं तो शर्म आती है कि मैं बाल मामाजी को घूरता था।
इस हद तक घूरता था कि वे डर जाएं। और वे डर भी जाते थे। डरते न तो क्या करते ? हर कोई उन्हें पागल, डरपोक, मूर्ख और निठल्ला साबित करनें में जो लगा रहता था।
और मैं भी वही कर रहा था जो बाद में मैंने बड़े-बड़े ‘बहादुरों’ को करते देखा। जहां कोई सॉफ्ट टारगेट दिख जाए, बहादुरी दिखाना शुरु कर दो।
होश संभालने के बाद से ही बाल मामाजी से जो परिचय हुआ, कुछ ऐसा ही हुआ कि मन में उनकी छवि एक पागल या जान-बूझकर काम से जी चुराने वाले निकम्मे आदमी की बन गयी थी।
जब हमें पता लगता कि बाल मामाजी हमारे यहां रहने आ रहे हैं, हमारी जैसे जान निकल जाती। मैं और मेरी पांच बहिनें। मां और पिताजी। हम आठों में उस वक्त कोई फ़र्क था तो बस इतना कि कोई ज़्यादा डरपोक था कोई कम। कोई ज़्यादा शर्मीला था कोई कम। किसीमें हीन भावनाएं कुछ ज़्यादा थीं तो किसीमें कुछ कम। सबसे बुरे हाल मेरे ही हुआ करते थे। जितने दिन बाल मामाजी घर में रहते, हमारी हालत और ख़राब हो जाती। कब कौन बाल मामाजी की कोई शिकायत लेकर हमारे दरवाज़े आ खड़ा होगा, ऐसी आशंका से हम हर वक्त घबराए रहते।
कभी कोई ठेलेवाला किसी परिचित या पड़ोसी को लेकर आ खड़ा होता और पूछता कि वो जो चश्मा लगाते हैं और फ़लां तरह के कपड़े पहनते हैं, क्या इसी घर में रहते हैं ? हम समझ जाते कि मामाजी ने इसकी ठेली से कुछ उठा लिया होगा और पैसे नहीं दिए होंगे। एक बार तो मामाजी ने किसी बैंक से पैसे तक उठा लिए थे। पिताजी की जानकारियों और सज्जन छवि ने बचा लिया था वरना हमें तो कांपने के अलावा कुछ सूझ नहीं रहा था। सुना था कि एक बार बाल मामाजी ने बड़े मामाजी के बेटे को खिड़की से बाहर लटका दिया था कि ‘फेंकता हूं अभी’। पता नहीं बाद में क्या हुआ पर ज़ाहिर है कि उस वक्त वहां मौजूद सभी लोगों के प्राण हलक में आ गए होंगे।
मां कोई चालाक और ज़्यादा व्यवहार कुशल महिला नहीं थीं और उन्हें अपने भाई को लेकर परिचितों के तरह-तरह के सवालों का सामना करना पड़ता। ‘बाल आजकल क्या कर रहा है?’, ‘कोई नौकरी मिली?’, ‘पहलेवाली क्यों छोड़ दी ?’, ‘क्या कोई दिमाग़ी परेशानी है ?’ आदि-आदि।
आखिरी सवाल ऐसा था जिससे हम हर बार बचना चाहते पर कभी बच न पाते। जैसा कि उस वक्त सामाजिक माहौल भी था, हमारे मन पर भी ‘पागल’ शब्द का प्रभाव ऐसा ही था।
यूं तो बाल मामाजी में छोटे-बड़े कई हुनर थे पर वे गाना बहुत अच्छा गाते थे। ख़ासकर रफ़ी के गाए देशप्रेम के गीत। गाना गाते हुए वे मुझे भी बहुत भले लगते। वे शौकिया गाते पर अकसर ऐसे गीत गाते जिनमें आदर्शों की बात हो। वे पेंटिंग भी ठीक-ठाक कर लेते थे। हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी का ख़ासा साहित्य उन्होने पढ़ रखा था। एम.एस.सी. करने के बाद स्कूल टीचर की सरकारी नौकरी उन्हें मिल गयी थी जिसे वे न जाने क्यों छोड़कर चले आए थे और मारे-मारे फिर रहे थे।
मेरे कई मित्र बाल मामाजी के साथ क्रिकेट खेलकर आनंदित होते। उन्हें कसरत और तेल मालिश का भी ख़ासा शौक था। कई बार कहते, पप्पू चल छत पर चल तेरी भी मालिश करुंगा। मैं इतना शर्मीला था कि घर के बंद कमरे के अलावा कहीं कपड़े उतारने की सोच भी नहीं सकता था, ख़ुली छत पर नंगे बदन मालिश करवाना तो मेरे लिए बहुत दूर की कौड़ी थी।
किसी भी किस्म की शारीरिक मेहनत से बाल मामाजी को कोई शर्म या परहेज़ नहीं था। वे बरतन मांजने को भी तैयार रहते और ख़ूब चमका-चमका कर मांजते। मगर घर के बाहर उन्हें जिस भी काम पर लगाया जाता, थोड़े ही दिन में छोड़कर चले आते। कई बार वे रसोई से चीज़ें चुराकर खा जाते और पकड़े जाने पर माताजी से तरह-तरह के तर्क करते। तो कई बार वे खाने में कुछ मिला होने का शक करते हुए खाने से इंकार कर देते। बाद में मुझे पता चला कि वे सीज़ीफ्रीनिया नामक मनोरोग का शिकार थे। उनकी पत्नी यानि हमारी मामी की नौकरी और रिश्तेदारों-परिचितों की मदद से किसी तरह उनका घर चलता। कभी वे नाना-नानी के पास रहते, कभी अपने बड़े भाई, कभी हमारे यहां तो कभी अपने पत्नी-बच्चों के पास। जिस किसी के पास भी वे रहते उसे भारी मानसिक तनाव और अन्य परेशानियों से गुज़रना पड़ता। उनकी अजीबो-ग़रीब हरकतें जारी रहतीं। साथ ही काम की तलाश, नौकरियां करना-छोड़ना भी  चलता रहता। बीच-बीच में उनकी मानसिक चिकित्सा भी चलती। कई बार बिजली के झटके भी दिए जाते। हममें से किसीकी भी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि उनके जीवन को अपनी ज़िम्मेदारी बना ले। मां का अपने भाई के प्रति स्नेह व कुछ हद तक साहस और पिताजी के प्रगतिशील विचार थे कि वे कई-कई महीने हमारे घर रह जाते।
-संजय ग्रोवर

अगला हिस्सा

13 अप्रैल 2011

या फ़ेसबुक! तेरा ही आसरा

रुढ़ अर्थों में जिसे चमत्कार कहते हैं, उसे मैं बिलकुल नहीं मानता। लेकिन पहले इंटरनेट फिर ब्लॉग और अब फ़ेसबुक, चमत्कार की नयी परिभाषा हैं। विज्ञान ने मानव स्वभाव को समझने और बदलने का इतना बड़ा ज़रिया इससे पहले शायद ही दिया हो। ख़ासकर  मौलिक और ईमानदार लोगों के लिए तो यह छोटे-मोटे ख़ज़ाने से कम नहीं। ब्लॉग ने जिस लोकतंत्र को झाड़-बुहार कर साफ़-सुथरा बनाया, फ़ेसबुक उसके चरित्र को ही उसका चेहरा बनाने की कोशिश कर रही है और कुछ हद तक सफ़ल हो रही है। कल तक जो नायक अपने-अपने क्षेत्रों में निर्विवाद और अपरिहार्य माने जाते थे, आज हम पा रहे हैं कि उनमें से कई या तो प्रायोजित थे या इसलिए थे कि विकल्प नहीं थे। विकल्प इसलिए नहीं थे कि उनके लिए रास्ते ही बहुत कम होते थे। ब्लॉग और फ़ेसबुक हमें लगातार नए चेहरों के साथ नए विचार दे रहे हैं। ये स्टार सिस्टम को तोड़ रहे हैं। चूंकि संख्या, पहुंच और उपलब्धता के आधार पर इलैक्ट्रिॉनिक मीडिया का वर्चस्व अभी भी अधिक है और लोग वहां से जुड़े लोगों के सामीप्य और उनसे मिलने वाले संभावित फ़ायदों के चलते भी उनसे ‘प्रभावित’ रहते हैं इसलिए फ़ेसबुक पर कई बार इलैक्ट्रिॉनिक मीडिया के लोगों को प्रतिक्रिया जल्दी और ज़्यादा मिलती है। मगर ज्यों-ज्यों इंटरनेट की पहुंच और उपलब्धता बढ़ेगी, यह स्थितियां भी ख़त्म हो जाएंगी। संपादकों और प्रकाशकों के नखरे भी संभवतः बहुत हद तक ढीले होंगे।
ब्लॉग के बारे में सोचते ही आश्चर्य, ख़ुशी, उत्तेजना, राहत, कौतुहल,जैसे कई भाव एक साथ मुझे घेर लेते हैं। व्यक्तिगत बात करुं तो मेरी समस्या यह रही कि संपर्क कम थे और मैं संपर्कों के आधार पर छपना भी नहीं चाहता था। यूं लगभग हर छोटे-बड़े पत्र-पत्रिका में रचना छपी मगर हर बार रचना भेजते हुए, नए लेखक की तरह नए सिरे से संघर्ष करना पड़ता था। कुछ इस तरह के तो कुछ व्यक्तिगत कारणों से लेखन छोड़ने का मन बना लिया था कि एक मित्र ने ब्लॉग बनाने की सलाह दी। ब्लॉग बनाया और मेरे लेखक का नवीनीकरण/पुनर्जन्म हो गया। मेरे जैसे स्वभाव के व्यक्ति के लिए तो यह कोई खज़ाना हाथ लग जाने जैसी बात थी। दूसरों की क़िताबों, पुराने विचारकों के उद्धरणों के हवाले से बात करना मुझे जमता नहीं था, मौलिक, पूर्वाग्रह मुक्त चिंतन मे हमेशा से रुचि थी। और मैंने पाया कि कुछ लोग उसे भी ख़ुले दिल से सुनने को तैयार हैं।
कौन-सा विषय होगा जिसपर ब्लॉगर न लिख रहे हों ! कच्चे-पक्के सभी तरह के लेखक हैं यहां और सभी तरह के पाठक। यहां दिल्ली, झुमरी तलैया और सिडनी के लेखक एक ही वक्त में, एक साथ बैठकर बहसिया सकते हैं। गृहणियां जो किन्हीं कारणों से बाहर नहीं निकल पातीं थीं, आज धड़ल्ले से अपनी बात कह रहीं हैं, कलाओं का प्रदर्शन कर रहीं हैं। अपनी रचना पर प्रतिक्रिया आपको तुरंत मिलती है। दूसरे की रचना पर आप तुरंत टिप्पणी दे सकते है। अपवादों को छोड़ दें तो विवादास्पद विषयों पर भी ज़्यादातर ब्लॉगर दूसरों की तीखी टिप्पणियों को अविकल प्रकाशित करते हैं। बहस करते वक्त आप, हाथ के हाथ, आंकड़े सर्च करके, अपनी बात के साथ रख सकते हैं। आपकी रचना आपके अलावा कोई ऐडिट नहीं कर सकता। कहां पहले प्रिंट मीडिया के संपादक छः छः महीने बाद आपकी प्रतिक्रिया काट-पीटकर छापा करते थे और आपके पास कुढ़कर रह जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता था। अब मज़ा यह कि इस सबके लिए आपको चाहिए बस एक अदद पी.सी., एक नेट कनेक्शन और थोड़ी-सी तकनीकी योग्यता। फिर सारी दुनिया आपकी पहुंच में है, बस आपको माध्यम ढूंढ निकालने हैं कि कैसे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचा जाए।
ब्लॉग की कुछ कमियां फ़ेसबुक ने दूर कर दी हैं। ब्लॉग ऐग्रीगेटर समेत तमाम सुविधाओं के बावजूद लोगों को उलझन होती थी कि हज़ारों ब्लॉगों की हज़ारों पोस्टों में से कौन-सी पढ़ें कि बाद में वक्त और मूड ख़राब हुआ न लगे। फ़ेसबुक एक ही प्लेटफॉर्म पर एक ही वक्त में आपके सारे दोस्तों (और उनके भी दोस्तो, अगर वे चाहें) के स्टेटस उपलब्ध करा देती है। तरह-तरह के विकल्प हैं। अगर आप चाहते हैं कि आपके विचार फ़ेसबुक के सभी सदस्य देखें तो वह भी संभव है। आपके पास अपनी बात को नए तर्कों, नयी समझाइश और नए अंदाज़े-बयां के साथ कहने की क्षमता है तो विपरीत विचारों के लोग भी सुनने को तैयार हो जाते हैं। इस बात का ज़्यादा मतलब यहां नहीं है कि अपनी बात आपने दो पंक्तिओं में कही या दो पन्नों में। यहां लोग बहस करते हैं, धमकियां देते है, लड़ते हैं और कई बार फिर से दोस्त हो जाते हैं। यहां अपने ऐडीटर आप ख़ुद होते हैं इसलिए अपने ज़िम्मेदार भी ख़ुद ही होते हैं।
भ्रष्टाचार और तानाशाही के खि़लाफ़ अरब और भारत में चली लड़ाईयों में फ़ेसबुक की भूमिका ने भी उदासीन लोगों को झकझोरा है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि जैसी भूमिका फ़ेसबुक की अरब दुनिया की क्रांतियों में रही, भारत के मौजूदा आंदोलन मे नहीं है। यह पहली बार अरब में ही संभव हुआ कि लोगों ने लगभग बिना नायकों के ही सत्ता को खदेड़ दिया। जबकि भारत में रातों-रात नायक (रामदेव से अन्ना) बदल जाने के बावजूद जितनी भर भीड़ जुटी, इलैक्ट्रिॉनिक मीडिया के ज़रिए ही संभव था।
फिर भी यह इतना लोकतांत्रिक और प्रगतिशील माध्यम है कि फ़ेसबुक की जगह कब कौन-सी दूसरी साइट या विधा ले लेगी, कहना मुश्किल है।

-संजय ग्रोवर
9/12-04-2011

21 जन॰ 2011

मोहे अगला जनम ना दीजो-3

(पिछला पन्ना पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


‘‘ ांडू है।’’ ं
‘‘ ांडू है।’’
कौन हैं ये बच्चे ! क्यों सरल के पीछे लगे हैं !? क्या कह रहे हैं सरल को !?
‘‘ ांडू आ गया।’’
‘‘ओए ! ांडू आ गया।’’
पसीना-पसीना सरल अपने घर में घुसेगा और घर वालों की नज़रों से ख़ुदको बचाता हुआ बिस्तर पर औंधे मुंह पड़ रहेगा। अपराधबोध का मारा करवटे बदलेगा।
क्या कोई अपराध किया है सरल ने ?
क्या पता ?
क्या सरल दलित है ?
क्या पता ?
क्या सरल स्त्री है ?
क्या पता ?
क्या सरल लैंगिक विकलांग है ?
क्या पता ?

सरल के दोस्त हैं ये सारे बच्चे। पर सरल के पास फ़िलहाल यह जानने का कोई उपाय नहीं कि हर बार ये सब उसीके खि़लाफ़ मिलकर एक क्यों हो जाते हैं ?

‘‘ ांडू है।’’
‘‘ ांडू आ गया।’’

क्या सरल की सारी ज़िन्दगी यूंही बीतने वाली है ! क्या हताशा, झेंप, अवसाद, कुण्ठा, तन्हाई और अपराधबोध ही उसके स्थाई दोस्त होंगे ?

‘‘पिंटू किसीसे नहीं बोलता, किसी के सामने नहीं आता, लड़की है लड़की।’’ ये सरल के मामा हैं। पढ़े लिखे हैं, ख़ुले दिमाग के हैं, प्यार करते हैं सरल को, बचपन में खिलौने लेकर आया करते थे, कहानियां सुनाते थे, मगर......
मेहमानों के सामने ऐसी बातें क्यों करते हैं मामाजी ? सरल का कलेजा चाक-चाक हो जाता है। मामाजी को क्या पता पहले से टूटे-बिखरे सरल की क्या हालत हो जाती है ऐसी बातें सुनकर ! उसे समझ नहीं आता अपना मुंह कहां जाकर छुपाए ? लाख कोशिश करे पर उसकी नज़रें नहीं उठतीं मेहमानों के सामने। सही बात तो यह है कि कोशिश करने से पहले ही हारा हुआ शख़्स है वह। तिसपर किसीने प्लेट से एक बिस्किट उठाने को कह दिया तो ! कैसे वह अपने हाथ को प्लेट तक ले जाएगा और कैसे हाथ की कंपकंपी को छुपाएगा ? उठा लेगा तो एक जन्म लग जाएगा खाने में। सरल की हालत पूछे कोई तो वह यह भी नहीं बता पाएगा कि बिस्किट मीठा था या नमकीन। मेहमानों के सामने एक पूरा बिस्किट खा लिया उसने यही क्या कम बड़ी बात है।
‘‘ ओ पिंटू, तेरी दाढ़ी-मंूछ कब आएगी यार ! इस उम्र में तो.....’’
नाईं के उस्तरे से भी क्रूर लगतीं हैं कई बार मामाजी की बातें। पर सरल कहे तो कहे क्या उनसे !
वह तो अपने ही अपराध-बोध में इस क़दर क़ैद है कि कभी ध्यान ही नहीं दिया कि ख़ुद मामाजी का दाढ़ी-मूंछ के साथ एक भी फ़ोटो नहीं है !
(जारी)

संवादघर पर पूर्व-प्रकाशित

13 जन॰ 2011

मोहे अगला जनम ना दीजो-2

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भला किसी को ग़ज़लें भी फ़ुल वॉल्यूम पर सुनते देखा है कभी !
सरल सुनता है कि पूरे मोहल्ले को सुनाता है !?
‘‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वे काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।’’

जगजीत सिंह की आवाज़ जैसे कोई डोर है। सरल उसपर चढ़ता है और पतंग बन जाता है। यूं मुक्त आकाश में लहराना कितना अच्छा लगता है सरल को।

25 का हुआ सरल। 30 का हुआ सरल। 35 का हुआ सरल।

मगर वही कमरा। वही बंद दरवाज़ा। वही ऊंची आवाज़ में ग़ज़लें। कभी जगजीत की जगह मेंहदी हसन ले लेते हैं तो कभी हरिहरन। कभी ग़ुलाम अली आ जाते हैं तो कभी हुसैन बंधु। कभी-कभार भूपेन हज़ारिका भी आते हैं। लता, रफ़ी, किशोर भी आते हैं...

’’कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.......’’

मगर जगजीत की आवाज़ में आवाज़ मिलाना इतना अच्छा क्यों लगता है सरल को !

‘‘ न दुनिया का डर था न रिश्तों के बंधन’’

और तेज़ ! और ऊंचा। बात-बेबात झेंपने, शरमाने, डरने और घबराने वाला सरल बंद कमरे में अपनी आवाज़ को एकदम खुला छोड़ देता है। कमरा एक स्टेज बन जाता है। अब उसमें और जगजीत सिंह में कोई फ़र्क नहीं। साथ-साथ बैठे कोरस गा रहे हों जैसे।
खुले में जितना छुपना पड़ता है, बंद में ख़ुदको उतना ही खोल देना चाहता है सरल।
‘‘मैं भी कुछ हंू, देखो कितनी कलाएं हैं मुझमें, सुनो...!’’
कैसी है ख़ुदको अभिव्यक्त करने की यह जानलेवा छटपटाहट !?

क्या बाहर कोई मुझे सुन रहा होगा !
‘‘मोहल्ले की सबसे पुरानी निशानी.......’’
एकाएक कुछ याद आ जाता है सरल को। कोई चीज़ है जो कचोट रही है भीतर से।
यह किसके बचपन के बारे में बात चल रही है आखि़र ! ऐसा क्या था जिसे लौटाने के लिए दुआएं, प्रार्थनाएं हो रही हैं ! गिड़गिड़ाया जा रहा है ! होगा यह जगजीत सिंह का बचपन। होगा यह तलत अजीज़ और सुदर्शन फ़ाकिर का बचपन। सरल क्यों इसके गुणगान में इस कदर लीन है ! सरल का बचपन तो नहीं यह। क्या सरल की भी इच्छा होती है अपने बचपन में लौटने की !
सिहर उठता है सरल। धुंधली यादों में मकड़ी के जालों से भरे कमरें हैं। अदृश्य दीमकें हैं जो भीतर-भीतर सारे बचपन को कुतर जाती थीं और बाहर किसी को पता भी नहीं चलता था। अपने ही लिजलिजे अस्तित्व की सीलन से भरे बिस्तर हैं। वे आक्रमणकारी छींकें हैं जो 50-50 की संख्या में एक साथ हमला करतीं थीं और सरल की कमर के साथ मनोबल को भी तोड़ देतीं थीं। और 5-10 घंटों के इंतेज़ार की यादें हैं कि अब बस अब मेहमान जाएंगे और सरल अपनी झेंप को पोंछता-छुपाता कमरे से बाहर निकलेगा। उम्मीद करेगा कि मां ख़ुदबख़ुद ही कुछ खाने को दे दे, उसे कोई याचक मुद्रा न बनानी पड़े। न मां पर हमलावर होना पड़े। फ़िलहाल तो मां से लड़ना ही उसके लिए मर्दानगी है। जिसके लिए सौ-पचास कोड़े अपने-आपको भी मारने होते हैं अंधेरे बंद कमरों में।
और क्या-क्या है सरल के बचपन में।

‘‘ ांडू आ गया। ांडू आ गया।’’
मोहल्ले के बच्चे सरल के पीछे-पीछे आ रहे हैं।
सरल के पैरों में पसीना है। चप्पलें उतर-उतर जाती हैं। क़दम-क़दम पर, गिर जाने के डर से शरीर कांप रहा है। ऊपर छतों पर खड़े लोग उस पर हंस रहे हैं, सरल को लगता है। सात घरों वाली यह गली पार करने में न जाने कितनी उम्र बीत जाएगी। ऊपर से ये बच्चे पीछे लगे हैं,
‘‘ ांडू है।’’ ं
‘‘ ांडू है।’’
कौन हैं ये बच्चे ! क्यों सरल के पीछे लगे हैं !? क्या कह रहे हैं सरल को !?
(जारी) 
संवादघर पर पूर्व-प्रकाशित