(पिछला भाग)
चंद रोज़ पहले उसने सुना कि एक भीड़ ने क़ानून अपने हाथ में लेकर एक बलात्कारी की हत्या कर दी। सोचने की बात यह है कि हत्या और बलात्कार में फ़र्क़ क्या है ? दोनों ही तरह के लोग बातचीत में या तो यक़ीन नहीं रखते या उनमें इतना धैर्य नहीं होता। कहीं न कहीं उन दोनों में दूसरों को लेकर एक मालिक़ाना रवैय्या है, जैसे दूसरे इंसान नहीं हैं, सामान हैं। यह भाव कहां से आया ? यह क्या एक ही दिन में पैदा हो गया ? नहीं, कुछ न कुछ बुनियादी गड़बड़ है। अगर यह पूरी भीड़ बलात्कार की विरोधी थी तो उस आदमी की हिम्मत ही कैसे हुई कि वह ऐसा सोच भी लेता ?
क्या कोई बच्चा जन्म से यह तय करके पैदा होता होगा कि मैं एक दिन बलात्कार करुंगा!? तो !?
बच्चे के पास अपनी कोई सोच नहीं होती। वह सब कुछ इसी दुनिया से सीखता है। उसके मां-बाप, रिश्तेदार, टीचर, पड़ोसी, अख़बार, पत्रिकाएं, फ़िल्में, धर्म, धर्मगुरु, राजनीति......ये सब मिलकर एक बच्चे का व्यक्तित्व बनाते हैं। सही बात तो यह है कि जिस भीड़ ने बलात्कारी को मारा वो पूरी भीड़ उस बलात्कार में हिस्सेदार थी।
मज़े की बात, असलियत समझने का अब से अच्छा मौक़ा कभी आया ही नहीं। अभी 3-4 साल पहले इस देश में एकाएक आंदोलन शुरु हो गया जिसे एक साथ सभी न्यूज़-चैनलों ने रात-दिन दिखाना शुरु कर दिया। तथाकथित भ्रष्टाचार-विरोधी इस आंदोलन के करनेवाले कह रहे थे कि देश की पूरी सवा अरब जनता भ्रष्टाचार-विरोधी है और सब हमारे साथ हैं।
तो भैय्या फिर भ्रष्टाचार कर कौन रहा है ?
ये लोग भ्रष्टाचार-विरोध को ईश्वर से जोड़ रहे थे, धर्म की दुहाई दे रहे थे, सभ्यता और संस्कृति का हवाला दे रहे थे। इनकी एक-एक हरक़त से साफ़ दिखता था कि ये उन्हीं लोगों के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने इस देश पर एक सड़ियल और अतिपाखंडी संस्कृति थोपी है जिसकी वजह से एक लगभग पूरा समाज सीज़ोफ़्रीनिक हो चुका है।
केबल टीवी और इंटरनेट जैसे माध्यमों से जनता के रुख़ में आए बदलाव को भांपकर अब यही लोग बदलाव का क्रेडिट लेने में जुट गए हैं।
वरना जिस देश के सवा अरब लोग और पूरा मीडिया भ्रष्टाचार-विरोधी हो वहां भ्रष्टाचार घुस भी कैसे सकता है ?
(जारी)
02-04-2015
(अगला भाग)
चंद रोज़ पहले उसने सुना कि एक भीड़ ने क़ानून अपने हाथ में लेकर एक बलात्कारी की हत्या कर दी। सोचने की बात यह है कि हत्या और बलात्कार में फ़र्क़ क्या है ? दोनों ही तरह के लोग बातचीत में या तो यक़ीन नहीं रखते या उनमें इतना धैर्य नहीं होता। कहीं न कहीं उन दोनों में दूसरों को लेकर एक मालिक़ाना रवैय्या है, जैसे दूसरे इंसान नहीं हैं, सामान हैं। यह भाव कहां से आया ? यह क्या एक ही दिन में पैदा हो गया ? नहीं, कुछ न कुछ बुनियादी गड़बड़ है। अगर यह पूरी भीड़ बलात्कार की विरोधी थी तो उस आदमी की हिम्मत ही कैसे हुई कि वह ऐसा सोच भी लेता ?
क्या कोई बच्चा जन्म से यह तय करके पैदा होता होगा कि मैं एक दिन बलात्कार करुंगा!? तो !?
बच्चे के पास अपनी कोई सोच नहीं होती। वह सब कुछ इसी दुनिया से सीखता है। उसके मां-बाप, रिश्तेदार, टीचर, पड़ोसी, अख़बार, पत्रिकाएं, फ़िल्में, धर्म, धर्मगुरु, राजनीति......ये सब मिलकर एक बच्चे का व्यक्तित्व बनाते हैं। सही बात तो यह है कि जिस भीड़ ने बलात्कारी को मारा वो पूरी भीड़ उस बलात्कार में हिस्सेदार थी।
मज़े की बात, असलियत समझने का अब से अच्छा मौक़ा कभी आया ही नहीं। अभी 3-4 साल पहले इस देश में एकाएक आंदोलन शुरु हो गया जिसे एक साथ सभी न्यूज़-चैनलों ने रात-दिन दिखाना शुरु कर दिया। तथाकथित भ्रष्टाचार-विरोधी इस आंदोलन के करनेवाले कह रहे थे कि देश की पूरी सवा अरब जनता भ्रष्टाचार-विरोधी है और सब हमारे साथ हैं।
तो भैय्या फिर भ्रष्टाचार कर कौन रहा है ?
ये लोग भ्रष्टाचार-विरोध को ईश्वर से जोड़ रहे थे, धर्म की दुहाई दे रहे थे, सभ्यता और संस्कृति का हवाला दे रहे थे। इनकी एक-एक हरक़त से साफ़ दिखता था कि ये उन्हीं लोगों के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने इस देश पर एक सड़ियल और अतिपाखंडी संस्कृति थोपी है जिसकी वजह से एक लगभग पूरा समाज सीज़ोफ़्रीनिक हो चुका है।
केबल टीवी और इंटरनेट जैसे माध्यमों से जनता के रुख़ में आए बदलाव को भांपकर अब यही लोग बदलाव का क्रेडिट लेने में जुट गए हैं।
वरना जिस देश के सवा अरब लोग और पूरा मीडिया भ्रष्टाचार-विरोधी हो वहां भ्रष्टाचार घुस भी कैसे सकता है ?
(जारी)
02-04-2015
(अगला भाग)
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रुके-रुके से क़दम....रुक के बार-बार चले...