7 अप्रैल 2015

सदियों की ख़ता और लम्हों को सज़ा-5


(पिछला भाग)
यहां देखिए, नायिका को सीधी बात में मज़ा नहीं आ रहा, वह चाहती है कि नायक कुछ घुमा-फिराकर कहे। यह तो फ़िल्मी सिचुएशन है मगर बाहर की दुनिया में भी घुमाने-फिराने को बड़ी प्रतिष्ठा मिली हुई है। घुमाने-फिराने के सबसे ज़्यादा शौक़ीन हमारे कवि और साहित्यकार हैं। इन्होंने पक्का मान लिया है कि घुमाना-फिराना बड़ी कला है। हुज़ूरेवाला, घुमाना-फिराना सिर्फ़ कला नहीं है, यह ठगी भी है, धोखाधड़ी भी है, बदमाशी भी है। हो सकता है लड़कियों को यह अच्छा लगता हो, हालांकि आज की स्त्रियां उन सब बातों से इंकार कर रहीं हैं जिन्हें कल तक स्त्रियों की पसंद बताया जाता रहा, फ़िर भी मान लें कि लड़कियों को यह अ़च्छा लगता है मगर किन्हीं लड़कों को यह ‘कला’ नहीं आती तो वे इसका कोर्स करने जाएं क्या !? आखि़र सीधी बात में दिक्क़त क्या है ? सही बात तो यह है कि भारतीय समाज की स्थिति ऐसी नहीं है कि ज़्यादा ‘कलाबाज़ी’ दिखाई जाए। यहां तो साहित्य और प्रेम, दोनों जगह सीधी-साफ़ बात और नीयत की ज़रुरत है।

ईश्वर पर न जाने कितनी कविताएं और लघुकथाएं उसने ऐसी पढ़ीं हैं कि कुछ समझ में ही नहीं आता कि रचनाकार कहना क्या चाहता है, ईश्वर है, कि नहीं है, कि छुट्टी पर गया है, कि सामने नहीं आना चाहता, कि शर्मीला है, कि नहाने गया है.......!? या कि रचनाकार डरपोक है, अपने डर को छुपाने के लिए बिंबों, उपमाओं, प्रतीकों और अलंकारों का सहारा ले रहा है!? दूसरी तरफ़ सोशल मीडिया पर लोग साफ़ बात कर रहे हैं और उसका असर भी दिख रहा है। जो समाज ‘घुमाने-फिराने’ की ‘कलाबाज़ी’ की ही वजह से पतन के कगार पर पहुंच गया हो और आगे पारदर्शिता की चाह रखता हो उसमें साफ़ बात करनेवालों की क़द्र ज़्यादा हो तो क्या बेहतर नहीं होगा? जिनको ‘कला’ पसंद है वे ‘कला’ देखें-दिखाएं।
(गीतविशेष से कोई दुश्मनी नहीं है, अपनी बात कहने के लिए जो भी पहला गीत याद आया, ले लिया है)

07-04-2015
कई बार तो लगता है कि लोग मुद्दों को भी घुमाए-फिराए दे रहे हैं। वर्णव्यवस्था से बड़ा वी आईपी का, छुआछूत से बड़ा काले-गोरे का और दहेज़ से बड़ा लाल बत्ती का मुद्दा हो गया है। टीवीवाले असली मुद्दों से घबराते क्यों हैं ? भारतीय न्यूजचैनलों पर ब्राहमणवाद, नास्तिकता, वर्णव्यवस्था, छुआछूत जैसे शब्द सुनाई ही नहीं पड़ते! धर्म से जुड़े मुद्दों से ये चैनल बचते क्यों हैं ? एक कारण यह भी हो सकता है कि जिस वर्णविशेष के कब्ज़े में सारा मीडिया है, धर्मविरोधी बहसें चलीं तो उस वर्णविशेष की सत्ता उखड़ जाने की पूरी संभावना है। क्योंकि धर्म से नब्बे प्रतिशत फ़ायदे उसी वर्णविशेष के लोगों को मिलते दिखाई देते हैं।

रंगभेद पर एक स्टिंगनुमां कार्यक्रम में ज़्यादातर स्त्रियां रंगभेद के विरोध में यह दलील देतीं सुनाई पड़ीं कि ‘हमें तो भगवान ने काला बनाया है’। ऐसी दलीलें अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने जैसी हैं। सामनेवाला भी कह सकता है कि हमें भी रंगभेद करने की मानसिकता भगवान ने दी है, हम क्या कर सकते हैं। वैसे भी, जैसाकि बताया जाता है, धार्मिक पुस्तकों में जो कुछ लिखा है वह स्त्री के विरोध में ही ज़्यादा है, उसे ग़ुलाम या सामान बनाए रखने का हिसाब-क़िताब है। यूं अपनी-अपनी तरह से तर्क देने को हर कोई स्वतंत्र है।

इधर 'मेरी मर्ज़ी' यानि ‘माई चॉइस’ का ऐलान करता दीपिका पादुकोण का एक वीडियो आया है।

(जारी)

07-04-2015

(अगला भाग)


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