(पिछला भाग)
जब सानिया मिर्ज़ा जीतती हैं, साइना नेहवाल जीतती हैं, सचिन तेंदुलकर रिकॉर्ड बनाते हैं, धोनी वर्ल्ड कप दिलाते हैं तो तुम कहते हो कि ये हमारे आदमी हैं, हमें इनपर गर्व है। तुम्हारे बेटे-बेटी क्लास में सबसे ज़्यादा नंबर लाते हैं, अच्छी नौकरी पाते हैं तो तुम कहते हो कि अहा देखा हमारे बच्चे कितने होनहार हैं। तुम मोहल्ले और देश में मिठाईयां बांट-बांटकर खाते हो। मगर जब ममता कुलकर्णी अफ़्रीका में ड्रग्स के धंधे में पकड़ी जातीं हैं तब वो तुम्हारी नहीं होती क्या ? तब वो किसी और की हो जाती है !? जब तिवारी जी डीएनए टेस्ट में पकड़े जाते हैं तो वो तुम्हारे क्यों नहीं होते ? जब कोई बच्चा छेड़छाड़ या बलात्कार के केस में पकड़ा जाता है तो वो तुम्हारा ही आदमी क्यों नहीं होता ? मिठाई तुम बांटकर खाओगे और सज़ा कोई और भुगतेगा ? सज़ा में भी थोड़ा हिस्सा बंटाओ ना।
तुम्हारे घर में तकिए के नीचे से जो मनोहर कहानियां और सत्यकथा की प्रतियां बरामद होतीं थीं वो वहां कौन रखकर जाता था ? क्या कोई भूतप्रेत ? कोई चमत्कारी बाबा ? तुम ख़ुद ही लेकर आते थे कहीं न कहीं से, अंकलजी, आंटीजी। दीदीजी और भैयाजी। चाचाजी और चाचीजी। ताऊजी और ताईजी। मामाजी और मामीजी। तुम क्यों पढ़ते थे उन्हें ? उनमें बलात्कारों या अन्यत्र यौन-संबंधों के चटख़ारेदार विस्तृत वर्णन के सिवाय और क्या होता था ? तुमने कभी ऐसी कोशिश की क्या कि आदमी की सहज-सामान्य प्राकृतिक इच्छाएं सीधे और पारदर्शी तरीक़ों से पूरी हो जाएं, उसे किन्हीं टेढ़े-मेढ़े अंधेरे रास्तों पर न भटकना पड़े!?
और वो ‘सरिता’, ‘मुक्ता’, ‘मेरी सहेली’, ‘तेरी सहेली’ क्या बच्चे फेंक जाते थे घरों में!? जिनके ‘कांसे कहूं’, ‘आपकी समस्याएं’ कॉलमों में अस्सी प्रतिशत समस्याएं इनसेस्ट संबंधों की होतीं थीं। ये कखग और एक पाठक के नाम से छपनेवाली समस्याएं क्या संपादक ख़ुद ही लिख लेते थे!? अगर हां तो समझ लीजिए कि संपादक कैसे होते थे। और अगर नही ंतो साफ़ ज़ाहिर है कि आधे से ज़्यादा लोग अपने ही आसपास कहीं अंधेरे कोनों में अपने लिए आसान रास्ते ढूंढ लेते थे। किसी-किसी को कभी अपराधबोध होने लगता था, या रंगे हाथ पकड़े जाते थे या नौबत ब्लैकमेल की आ जाती थी तो वे एबीसी बनकर ऐसी पत्रिकाओं में समाधान ढूंढने लगते थे। यहां याद रखने की बात यह भी है कि ऐसे सभी लोग शिक्षित नहीं होते, हों तो सबकी पहुंच पत्रिकाओं तक नहीं होती, हो भी तो सब चिट्ठियां नहीं भेजते यानि कि ऐसे लोगों की संख्या जितनी पत्रिकाओं में दिखती थी/है उससे ज़्यादा ही रही होगी।
मगर सामने समाज में तो कहीं वे दिखते नहीं! यहां तो जिसको देखो वही बलात्कार और भ्रष्टाचार का विरोध कर रहा है!
तो फिर इस देश में भ्रष्टाचार और व्याभिचार(!) के बीज आखि़र डाले किसने ?
कहां ग़ायब हो गया है वह आदमी ?
(जारी)
02-04-2015
(अगला भाग)
जब सानिया मिर्ज़ा जीतती हैं, साइना नेहवाल जीतती हैं, सचिन तेंदुलकर रिकॉर्ड बनाते हैं, धोनी वर्ल्ड कप दिलाते हैं तो तुम कहते हो कि ये हमारे आदमी हैं, हमें इनपर गर्व है। तुम्हारे बेटे-बेटी क्लास में सबसे ज़्यादा नंबर लाते हैं, अच्छी नौकरी पाते हैं तो तुम कहते हो कि अहा देखा हमारे बच्चे कितने होनहार हैं। तुम मोहल्ले और देश में मिठाईयां बांट-बांटकर खाते हो। मगर जब ममता कुलकर्णी अफ़्रीका में ड्रग्स के धंधे में पकड़ी जातीं हैं तब वो तुम्हारी नहीं होती क्या ? तब वो किसी और की हो जाती है !? जब तिवारी जी डीएनए टेस्ट में पकड़े जाते हैं तो वो तुम्हारे क्यों नहीं होते ? जब कोई बच्चा छेड़छाड़ या बलात्कार के केस में पकड़ा जाता है तो वो तुम्हारा ही आदमी क्यों नहीं होता ? मिठाई तुम बांटकर खाओगे और सज़ा कोई और भुगतेगा ? सज़ा में भी थोड़ा हिस्सा बंटाओ ना।
तुम्हारे घर में तकिए के नीचे से जो मनोहर कहानियां और सत्यकथा की प्रतियां बरामद होतीं थीं वो वहां कौन रखकर जाता था ? क्या कोई भूतप्रेत ? कोई चमत्कारी बाबा ? तुम ख़ुद ही लेकर आते थे कहीं न कहीं से, अंकलजी, आंटीजी। दीदीजी और भैयाजी। चाचाजी और चाचीजी। ताऊजी और ताईजी। मामाजी और मामीजी। तुम क्यों पढ़ते थे उन्हें ? उनमें बलात्कारों या अन्यत्र यौन-संबंधों के चटख़ारेदार विस्तृत वर्णन के सिवाय और क्या होता था ? तुमने कभी ऐसी कोशिश की क्या कि आदमी की सहज-सामान्य प्राकृतिक इच्छाएं सीधे और पारदर्शी तरीक़ों से पूरी हो जाएं, उसे किन्हीं टेढ़े-मेढ़े अंधेरे रास्तों पर न भटकना पड़े!?
और वो ‘सरिता’, ‘मुक्ता’, ‘मेरी सहेली’, ‘तेरी सहेली’ क्या बच्चे फेंक जाते थे घरों में!? जिनके ‘कांसे कहूं’, ‘आपकी समस्याएं’ कॉलमों में अस्सी प्रतिशत समस्याएं इनसेस्ट संबंधों की होतीं थीं। ये कखग और एक पाठक के नाम से छपनेवाली समस्याएं क्या संपादक ख़ुद ही लिख लेते थे!? अगर हां तो समझ लीजिए कि संपादक कैसे होते थे। और अगर नही ंतो साफ़ ज़ाहिर है कि आधे से ज़्यादा लोग अपने ही आसपास कहीं अंधेरे कोनों में अपने लिए आसान रास्ते ढूंढ लेते थे। किसी-किसी को कभी अपराधबोध होने लगता था, या रंगे हाथ पकड़े जाते थे या नौबत ब्लैकमेल की आ जाती थी तो वे एबीसी बनकर ऐसी पत्रिकाओं में समाधान ढूंढने लगते थे। यहां याद रखने की बात यह भी है कि ऐसे सभी लोग शिक्षित नहीं होते, हों तो सबकी पहुंच पत्रिकाओं तक नहीं होती, हो भी तो सब चिट्ठियां नहीं भेजते यानि कि ऐसे लोगों की संख्या जितनी पत्रिकाओं में दिखती थी/है उससे ज़्यादा ही रही होगी।
मगर सामने समाज में तो कहीं वे दिखते नहीं! यहां तो जिसको देखो वही बलात्कार और भ्रष्टाचार का विरोध कर रहा है!
तो फिर इस देश में भ्रष्टाचार और व्याभिचार(!) के बीज आखि़र डाले किसने ?
कहां ग़ायब हो गया है वह आदमी ?
(जारी)
02-04-2015
(अगला भाग)
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