20 नव॰ 2016

ऐसा भी होता है


क्या आपने बाल सीक्रेट एजेंट अमित, असलम और अल्बर्ट के नाम सुने हैं ?
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चिंता न करें, संभावना यही है कि मैंने भी ये नाम तभी सुने होंगे जब मैंने इस उपन्यास को लिखने की सोची होगी। अंदाज़न क़रीब 35-36 साल पहले की ही बात.......। अजीब दिन थे मगर उनके बारे में सोचना दिलचस्प लगता है। कभी मैं ख़्यालों-ख़्यालों में कर्नल विनोद की तरह ख़ुदको किसी मुसीबतज़दा के पास अचानक मौजूद हुआ पाता तो कभी खाट या मेज पर चढ़कर स्लो मोशन में कूदने की कोशिशें और तरक़ीबें किया करता। फ़िल्मों और क़िताबों का गहरा असर उनके बीच में रहते-रहते और उन्हें पढ़ते देखते हो रहा/गया था। कोई देख न ले, पिताजी डांट न मार दें, इस डर से कभी अकेले, कमरे के अंधेरों में तो कभी बुख़ार में रात को रज़ाई और मंद पीली रोशनी में पढ़ते-लिखते अनगिनत दिन काटे। आप सोचिए, एक तरफ़ यह डर कि पिताजी न आ जाएं तो दूसरी तरफ़ छाती में बजती धुकधुकी कि उपन्यास के अंधेरे में कब कोई साया कूद पड़े......। आपमें से भी कई दोस्त इस तरह की ‘मुश्क़िलों’ और ‘संघर्षों’ से ग़ुज़रे होंगे।

इस बाल उपन्यास को कई सालों बाद फिर से पढ़ते हुए यह तो समझ में आ ही रहा है कि इसपर उस वक़्त के कई लोकप्रिय जासूसी और सामाजिक उपन्यासकारों का प्रभाव है, साथ ही यह भी अच्छा लग रहा है कि अंधविश्वासों, टोनों-टोटकों, बाबाओं और तथाकथित भगवानों आदि को लेकर शुरु से ही एक ख़ुला दृष्टिकोण मेरे पास उपलब्ध था।

उस वक़्त कई जासूसी सीरीज़ चला करतीं थीं जैसे आशु-बंटी-निशा, राजन-इक़बाल, राम-रहीम, कृष्ण-क़रीम, विनोद-हमीद, मेजर बलवंत एंड कंपनी.....। मैंने भी, संभवतः ‘भारतीय धर्मनिरपेक्षता’ के ‘प्रभाव’ में भी, अमित-असलम-अल्बर्ट की सीरीज़ गढ़ ली। अनुप्रास अलंकार से भाषा को सजाने में मेरी रुचि भी आप इन नामों में देख सकते हैं। कभी अनंत तो कभी किसी और नाम से मैं उस समय लिखा करता और अन्य क्रिएटिव काम भी करता रहता।


35-36 साल पुरानी इस हस्तलिखित क़ाग़ज़ी मूल प्रतिलिपि की हालत पहले भी बहुत अच्छी नहीं थी तो कुछ स्कैनिंग के दौरान भी ढीली हो गई। तसल्ली यही है कि (लगभग)एक-एक शब्द साफ़ पढ़ने में आ रहा है। इसलिए मुखपृष्ठ को ज़रा-सा सुधारने के अलावा बाक़ी कहीं मैंने हाथ भी नहीं लगाया, जैसा का तैसा   पब्लिश कर दिया है।

अपने समय के कई लटकों-झटकों से भरी यह क़िताब अब आपके सामने है।


-संजय ग्रोवर
19-11-2016