3 नव॰ 2019

भीड़ और हम

मज़े की बात है कि जब प्रशंसा में तालियां बजतीं हैं तब आदमी नहीं देखता कि तालियां बजानेवालों की भीड़ कैसे लोंगों के मिलने से बनी है !? उसमें पॉकेटमार हैं कि ब्लैकमेलर हैं कि हत्यारे हैं कि बलात्कारी हैं कि नपुंसक हैं कि बेईमान हैं कि.......

लेकिन जैसे ही इसका उल्टा कुछ होता है तो व्यक्ति को भीड़ में तरह-तरह के दोष दिखाई देने लगते हैं......

शायद मैं उस वक़्त बी.कॉम. कर रहा था, सर्दियों में एक दिन छत पर गया तो देखा कि पीछे मिल में एक आदमी एक कमज़ोर-से आदमी को पेड़ से बांधकर बेल्ट से पीट रहा था। मैंने इतना ही देखा कि भीड़ में अमीर भी थे, ग़रीब भी थे, पढ़े-लिखे भी थे.....सब एक ही तरह से हंस रहे थे......तमाशा देख रहे थे.......

इससे ज़्यादा मुझसे देखा नहीं गया......

और कुछ किया भी नहीं गया.....

पीटनेवाला अमीर आदमी था और पिटनेवाला एक ग़रीब चोर था जो मुझे बाद में पता चला....

किसीने नहीं कहा होगा कि तुम ख़ुद क्यों पीट रहे हो ? चोरी की है तो पुलिस को बुलाओ, क़ानून हाथ में क्यों ले रहे हो.........

ज़्यादातर लोग उस अमीर आदमी के चमचे थे........

.......जैसाकि अभी भी होता है... 

मैंने मॉब-लिंचिंग जैसी जो भी घटनाएं देखी संभवतः एक ही धर्म के लोगों की भीड़ के लोगों द्वारा अपने ही धर्म के किसी कमज़ोर या अकेले पड़ गए या फंस गए या फंसा लिए गए व्यक्ति को पीटे जाने की देखीं.......

जैसी मैं इसलिए कह रहा हूं कि उन में किसीकी जान तो नहीं ली गई लेकिन बेरहमी से मारा गया और अधमरा करके छोड़ दिया गया।



बाद में मुझे पता चला कि यह आदमी किसी अहिंसा की बात करनेवाली विचारधारा से जुड़ा है........हो सकता है कि अब इसी विचारधारा का ठेका कुछ दूसरी तरह के लोगों के पास हो......

आज मुझे हंसी आती है जब लोग विचारधारा के पक्के होने की बात करते हैं.....

भीड़ पर वे तरह-तरह की राय देते हैं पर ख़ुद भीड़ को लुभाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं.........

(जारी)
#संजयग्रोवर
03-11-2019