11 दिस॰ 2010

सारांश-2

रोहिनी आज-कल कुछ बदली-बदली लगती है। पूजा-पाठ के अलावा चैट भी करने लगी है। टी.वी. पर सीरियल देखती है। यहां तक कि कई बार जनचेतना जगाने वाली प्रगतिशील पत्रिकाओं के नेट-संस्करण भी पढ़ डालती है। देख रही है कि इंटरनेट एक नयी दुनिया बना रहा है। स्त्री तेज़ी से आज़ाद हो रही है। यहां तक कि हिंदी जैसी भाषा जिसमें प्रगतिशील भी न जाने किस मजबूरी में लिखते और फ़िल्में बनाते थे, अब ब्लॉगरों के ज़रिए एक नया आसमान खोलने को हाथ-पैर मार रही है।
कुल मिलाकर जो आसमान खुल रहा है उसमें सभी के लिए जगह है। स्त्रियां जींस के पॉकेटों में उंगलियां घुसाए-घुसाए जिगोलुओं और दलालों के साथ उड़ रहीं हैं और उड़ते-उड़ते ‘हम आपके हैं कौन’ और ‘दिलवाले दुलहनियां ले जाएंगे’ के करवाचौथी चांद में जा घुसतीं हैं। कुछ आयटम गल्र्स जिन पर बाबा नाराज़ हो जाते हैं, बाबा के आश्रम में जाकर उनका आर्शीवाद लेने का नया आयटम पेश करके बाबा को मना लेतीं हैं। सारी समस्याएं ख़त्म। आसमान फिर आसमान हो जाता है। दोनों ख़ुश होकर फिर से अपने-अपने कामों में लग जाते हैं। उन्हें किसी तरह आज़ाद होना है। धर्म के अंदर रहकर या धर्म के बाहर जाकर। राष्ट्र  के अंदर रहकर या राष्ट्र के बाहर जाकर। मर्द के साथ रहकर या उससे दूर रहकर। कोई आज़ादी है जो उन्हें चाहिए।
कहानियां आ रहीं हैं जिनमें स्त्रियां गुण्डों और विधायकों पर इसलिए आसक्त हो जातीं हैं कि वे उनके पतियों, भाईयों और पिताओं से ज़्यादा प्रैक्टीकल हैं और घर बैठे उनके काम करवा सकतें हैं।
रोहिनी का मन बदल रहा है।
वह हिम्मत बांधकर घर से निकलती है।
‘‘ऐक्सक्यूज़ मी‘’, आवाज़ को पतला करके वह घर के सामने घेरा बनाए, डेरा डाले, पैरों से टीन की छोटी डिब्बी को लुढ़का-लुढ़काकर खेल रहे गुण्डों के सरदार को संबोधित करती है।
‘जी मैम’, गुण्डा सर नवाकर कहता है।
दुनिया वाकई बदल रही है। रोहिनी के मन में आशाएं और तेज गति से दौड़ने लगतीं हैं। कितनी इज़्ज़त से बात कर रहा है।
‘‘देखिए, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप ही हमारी बेटी की हड्डियां कस्टम से निकलवां दें !?’’ रोहनी डरी हुई है पर बदलने की पूरी कोशिश कर रही है।
‘‘ इस दुनिया में क्या नहीं हो सकता मैम ! पर आप अस्थियों को हड्डियां न कहें।’’
‘‘ ओह !’’ वह एकदम से शर्मिंदा हो जाती है, ‘‘आप तो साहित्यकारों जैसी भाषा बोलते हैं’’, रोहिनी डरी हुई है और प्रभावित होना शुरु हो गयी है।
‘‘साधना पड़ता है, एकदम से तो कुछ होता नहीं’’ गुण्डा शिष्ट भाव से कहता है। लगता है उसने शिष्टता और विनम्रता दोनों को साध लिया है।
‘‘देखिए, मैं आपसे एक बात कहूं, मामला अब बेटी की अस्थियों का है, आप चाहें तो इसे स्त्री-मुक्ति के मसअलों से जोड़ा जा सकता है। तब बहुत-सी नारीवादी और मानवतावादी संस्थाएं भी हमारा साथ देंगीं‘‘
‘कितना टैक्टफुल गुण्डा है’ रोहिनी अब मुग्ध होने की अवस्था के काफ़ी नजदीक है। ‘ऐसा ख़्याल तो अनुपम और सोनी के दिमाग़ में भी नहीं आया।’
‘चलिए, अंदर बैठकर बात करतें हैं’, रोहिनी एक स्टेप और आगे बढ़कर गुण्डे को इनवाइट करती है।       
‘‘ओके! आप निश्चिंत होकर जाईए, वुई आर वेटिंग फॉर यू, वापस आकर बताईएगा क्या बना ?’’
गुण्डे के दोस्त कहते हैं।
‘सब कुछ कितना बदल गया है। ख़ामख्वाह डर रही थी।’ वह सोचती है।
गुण्डा न सिगरेट के छल्ले उड़ाता है न टेबल पर पांव पसारता है।
‘‘देखिए हम लोग भी कतई सोशल और दुनियादार लोग हैं। जिस टीन की डिब्बी को मैं ठोकर मार-मारकर खेल रहा था वह उस कंपनी की डिब्बी है जिसमें सिर से पैर तक सिर्फ़ महिलाएं काम करतीं हैं, हम भी वक्त की नज़ाकत समझते हैं।’’ गुण्डा दार्शनिक भाव से कहता है।
‘वाकई प्रतीकात्मकता कितनी बड़ी चीज़ है, असलियत तो उसके सामने कुछ भी नहीं’, रोहिनी सोच रही है।
तभी अनुपम आंखें मलते हुए ड्राइंग-रुम में प्रवेश करता है।
‘‘गुड मॉर्निंग अंकल’’, गुण्डा आदर-भाव से उठता है।
अनुपम को जैसे करंट लगता है, ‘‘तुम ! तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई अंदर घुसने की !?’’ अनुपम फैल जाता है।
‘‘बी प्रैक्टीकल अनुपम’’, रोहिनी संभालने की कोशिश करती है।
‘‘देखिए, मैंने पहले ही कहा था, अंकल तो न जाने किस दुनिया में रहते हैं, मैं चलता हूं।’ गुण्डा पांव ऐक्ज़िट की दिशा में घुमाता है।
‘‘नहीं, नहीं, आप बैठिए, ये जाएंगे तो मैं भी चली जाऊंगी, अनुपम !’’ रोहिनी निरंतर बोल्ड हो रही है।
‘‘रोहिनी, तुम्हे हुआ क्या है !?’’
‘‘नहीं, अब मैं और बर्दाश्त नहीं करुंगी।’’
‘‘बर्दाश्त ! रोहिनी, हम दोनों मिलकर इन गुण्डों से लड़ते आए हैं। बर्दाश्त तो तुम इसे कर रही हो घर बुलाकर।’’
‘‘अंकल आपकी तबियत ठीक नहीं। आप आराम कीजिए। मैम, कभी जिम-विम जाते हैं अंकल ? अंकल हर लड़ाई के लिए ख़ुदको अपडेट रखना पड़ता है। देखिए।’’, गुण्डा शर्ट खोलकर सिक्स-पैक-ऐब्स दिखाता है।
‘‘ओफ्फो, अब ये मुझे सिखाएगा कैसे लड़ना है !?’’ अनुपम अपना सर नोंचना चाहता है पर वहां बाल ही नहीं हैं। वह और चिढ़ जाता है।
‘‘देखिए अंकल, बिना मर्दानगी के औरतों की कोई लड़ाई नहीं जीती जा सकती!’’, गुण्डा समझाता है।
‘‘औरतों की लड़ाई !? यह कहां से घुस आयी बीच में ? और उसमें भी बार-बार मर्दानगी का वास्ता !? ओहो ये हरामज़ादा तो पागल कर देगा मुझे।’’ अनुपम गाली-गलौज़ पर उतर आता है।
‘‘देखिए अंकल, स्त्री के सामने अमर्यादित भाषा का प्रयोग! बुरी बात !’’ गुण्डा सधे स्वर में कहता है।
‘‘तुझे तो मैं अभी बताता हूं, कमीने।’’ अनुपम के धैर्य की पटरियां उखड़ चुकीं हैं।
‘‘ठीक ही तो कह रहा है वह, अंकल’’, एकाएक सोनी ड्राइंग-रुम में प्रवेश करती है।
‘‘सोनी, तुम भी!’’ अनुपम के चेहरे पर घबराहट ने डेरा डालना शुरु कर दिया है।
‘‘अंकल आपने मुझे भावनात्मक सहारा दिया होता तो आज ये दिन न देखने पड़ते।’’ 
‘‘ मैंने सहारा नहीं दिया ! तो ये गुण्डे क्यों घेरे खड़े हैं हमारे घर को !?’’
‘‘आप समझे नहीं अंकल ! चीनी कम देखी है आपने ? निशब्द ?’’
‘‘ओह, अच्छा ! सच कहूं बेटा, मेरा मतलब है सोनी, ख़्याल तो आया था ऐसा, मगर यही सोचकर डर गया कि तुम चढ़ दौड़ोगी कि गंजा, बुड्ढा ! मजबूरी का फ़ायदा उठाना चाहता है।’’
‘‘तो यह आपकी कमी है अंकल जो मुझे भुगतनी पड़ी।’’
‘‘मेरी कमी क्यों है ? मुझे क्या सपना आ रहा था तुम ऐसा चाहती हो !? तुम्ही कह देती !’’
‘‘मैं क्यों कह देती ? आपको नहीं थोड़ा सेंसटिव होना चाहिए, अपने-आप समझना चाहिए’’
‘‘मैं यह सब लटके-झटके नहीं जानता। पहले से कोई कैसे जान सकता है कि किसी बुज़ुर्ग के ऐसे प्रस्ताव पर लड़की ख़ुश होगी या चिढ़ जाएगी !?’’
‘‘तो सीखिए अंकल, ख़ुदको अपडेट कीजिए, वरना तो आप...’’
‘‘जाने दीजिए, अंकल की तबियत ठीक नहीं‘‘, गुण्डा अपनी विनम्रता के साथ फिर मुखर होता है।
‘‘ओह, इसको चुप कराओ नहीं तो मैं इसका मुंह नोंच लूंगा।’’ अनुपम को लगता है वह कुछ कर न बैठे। वह लगभग बेकाबू हो चुका है।
‘‘अनुपम! तुम्हारे बस का कुछ नहीं तो चुप तो बैठ सकते हो। या बाहर चले जाओ, और हमें संजीदगी से मामला डिसकस करने दो।’’ रोहिनी फिर से बोलती है।
‘‘मैं बाहर चला जाऊं ! मैं ? और तुम इस गुण्डे के साथ डिसकस करोगी !?’’ बदहवास अनुपम एक साइड स्टूल उठाता है और पूरी ताक़त और ग़ुस्से के साथ बाहर उछाल देता है।
‘‘लगता है इस आदमी को तो पागलखाने भेजना पड़ेगा,‘‘ यह रोहिनी है।
‘‘ठीक कह रहीं हैं आंटीं’’, यह सोनी है।
‘‘क्या आप इनकी कुछ व्यवस्था कर सकते हैं, काफ़ी समय से अत्याचारों पर उतरे हुए हैं।’’ गुण्डे से पूछते वक्त रोहिनी का स्वर भीगा हुआ है।
‘‘हां, आप आदेश तो दीजिए, पागलखाने फ़ोन करुं या थाने ?‘‘ गुण्डा अत्यंत सोफेस्टीकेटेडता से पूछता है।
अनुपम की आंखें बाहर निकलने को हैं। घबराहट, गुस्से और किए-धरे पर पानी फिर जाने की बेबसी ने उसे पगला दिया है। ‘‘यह तुम कर क्या रही हो रोहिनी !?’’, अनुपम ने रोहिनी का गला पकड़ लिया है।
‘‘ऐसे काम नहीं चलेगा,‘‘ गुण्डा उस दम पहली बार सीटी बजाता है। उसके सारे साथी तत्काल अंदर आ जाते हैं। ‘‘अंकल को कसकर पकड़ लो, औरत पर हाथ उठा रहे हैं।’’
‘‘तो नया क्या बॉस! आप और हम तो रोज़्...’’ गुण्डा सही जगह ख़ुदको रोक लेता है। बाहर निकल आ रहे शब्द बबलगम के फूले ग़ुब्बारे की तरह पलक झपकते वापस मुंह में घुस जाते हैं। उम्मीद पूरी बनती है कि कुछ ही दिन में यह गुण्डा भी भाषा और सामाजिकता को पूरी तरह साध लेगा।
‘‘बुलाईए आप पुलिस को, मैं अंकल के खि़लाफ़ गवाही दूंगी।’’, यह फिर से सोनी है।
‘‘मैं भी दूंगा। अंकल स्त्री-विरोधी हैं।’’गुण्डा ग्रेसफुल तरीके से कहता है, ‘‘पागलखाने, थाने और नारी-मुक्ति संस्थाओं को फोन लगाओ।’’
साथी गुण्डा इन सभी संस्थाओं के प्रतिनिधियों से अंग्रेजी में बात करता है।
‘‘अंकल, पहले भाग में आपकी इमेज काफ़ी अच्छी थी इसलिए हम आपको ऑप्शन देते हैं, थाने जाना पसंद करेंगे या पागलखाने ?’’ सर्द आवाज़ में गुण्डा पूछ रहा है ।
गुण्डों के मजबूत हाथों में छटपटा रहा अनुपम अपना सर पीटना चाहता है जो कि संभव नहीं है। ‘‘मुझे पागलखाने ही भेज दो,’’ वह थकी, हारी, मरी, लुटी, पिटी आवाज़ में कहता है और ढह जाता है।
‘‘पागलखाने से गाड़ी आ भी गई’’, देखिए किस तरह होते हैं अपने काम, मैम।’’ गुण्डा निहायत ही अदब के साथ घमंड व्यक्त करता है। रोहिनी आश्वस्त है।
अनुपम को गाड़ी में धकेला जा रहा है।
‘‘अपना ख़्याल रखना, टेक केयर, हां!’’, रोहिनी भावुक हो गयी है।
‘‘अब बस भी करो, अभी जी नहीं भरा क्या, और कितना पागल करोगी ?’’, अनुपम बकरे की तरह कसमसा रहा है।
‘‘अंकल में ज़रा भी मैनर्स नहीं, मैम तो बैस्ट विशेज़ दे रहीं हैं और अंकल...’’, सारे गुण्डे इस मुददे पर एकमत हैं।
गाड़ी स्टार्ट होती है।
‘‘च्चचच’’,
यह विष्णु है, अनुपम का दोस्त। भाभी के लिए फूल लेकर आया है।
बाहर हवा जिस तरफ़ बह रही है, सारे फूल-पत्ते-धूल-धक्कड़ और इंसान उसी दिशा में उड़ रहे हैं।
पड़ोसी जो गुण्डों के चलते रोहिनी से कटे-कटे रहते थे, अब गुण्डों के होते रोहिनी के साथ आ खड़े होते हैं।
रोहिनी और सोनी, गुण्डों के साथ मिलकर नारी-मुक्ति की लड़ाई को आगे बढ़ातीं हैं।
विष्णु आज-कल हर शाम गुण्डों के लिए फूल लाता है।

-संजय ग्रोवर

8 टिप्‍पणियां:

  1. 'बाहर हवा जिस तरफ़ बह रही है, सारे फूल-पत्ते-धूल-धक्कड़ और इंसान उसी दिशा में उड़ रहे हैं।'

    हवा के साथ बहने में मुझे तकलीफ़ होती है
    कहीं से एक झोंका लाईये ये रुख बदलने को।

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  2. सारांश -२ हिला देने वाली 'कथा 'है . आंधी के साथ निर्जीव बस्तुएं बहती हैं --सूखे .निर्जीव पत्ते और धूल . .संवेदनाएं जब , जिन लोगों की मर जाती हैं ऐसी ही आंधी की प्रतीक्षा करते हैं . व्यवस्था के इस विकृत चहरे को कलम की साधना ने उकेरा है --बधाई .

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  3. बाहर हवा जिस तरफ़ बह रही है, सारे फूल-पत्ते-धूल-धक्कड़ और इंसान उसी दिशा में उड़ रहे हैं.....

    क्या अब ऐसा वक्त आ गया है की इंसान की हर संवेदना खत्म हो गयी है ..सोचने पर मजबूर करती कहानी

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  4. आपकी कहानी से गुज़रना एकदम ने अनुभव से गुज़रना है क्योंकि इसमें यथार्थ इकहरा नहीं है, बल्कि यहां आज के जटिलतम यथार्थ को उघाड़ते अनेक स्तर हैं। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    विचार- चापलूस! चाटुकार!! चमचे!!!

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  5. नये जमाने की इबारत...।
    दीवाल पर लिखा आपने बिलकुल साफ-साफ पढ़ लिया है।

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  6. aaj ke samaj ka hakikat yahi hai. pragati, unnati aur badlaav bass kahne ko hai, patan har taraf ho chuka hai. bahut achhi kahani hai, badhai sanjay ji.

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रुके-रुके से क़दम....रुक के बार-बार चले...