पापाजी कभी-कभी हंसते हैं। अकसर गंभीर दिखाई देते हैं। दिखाई भी कितना देते हैं ! हमेशा तो बिज़ी रहते हैं।
पहले तो सभी कमरों में बल्ब लगे थे जो पीली-पीली रोशनी देते थे। एक-एक करके पापाजी ने सभी कमरों में ट्यूबलाइट लगवा दीं हैं। ट्यूबलाइट, स्विच ऑन करते ही बल्ब की तरह तुरंत नहीं जलती ; पहले फ़ड़फ़ड़ाती है। ज़्यादा देर फ़ड़फ़ड़ाए तो डर लगता है, आज जलेगी कि नहीं, वोल्टेज पूरे आ रहे हैं कि नहीं ! जल जाती है तो कितना अच्छा लगता है। अब कुछ भी काम करो, करने में मन लगेगा, मज़ा आएगा।
पापाजी हंसते हैं तो घर रोशनी से भर जाता है। सब भाई-बहिनों के दिल में जैसे लट्टू जलने लगते हैं। पापाजी कितने अच्छे हैं ! शराब नहीं पीते! सिगरेट नहीं पीते! ग़ाली नहीं बकते! किसीसे लड़ते नहीं। सफ़ेद कमीज़ और सफ़ेद पाजामा। हंसते हैं तो पता चलता है कि दांत उनसे भी ज़्यादा सफ़ेद हैं। शरीर इकहरा है और पेट एकदम सपाट है। और हो भी क्यों नहीं। कितना तो पैदल चलते हैं पूरा दिन। सुबह पांच बजे उठते हैं। बही-खाता लिखते रहते हैं। फ़िर दूध लाना, सब्ज़ी लाना..........दुनिया-भरके काम......दुकान पर जाना, ज़रुरत हो तो दोपहर में फ़िर घर आना...फ़िर जाना....रात को आना...खाना खाना....पौने नौ बजे के समाचार सुनना...और फ़िर बही-खाता.....पापाजी बस मेहनत, मेहनत, मेहनत, काम, काम और काम करते रहते हैं...फ़िल्म देखने भी नहीं जाते कभी। हां, किसीके घर शादी हो..... कोई मर गया हो.... कैसा भी अवसर हो, पापाजी की ज़रा भी जान-पहचान रही हो और पापाजी वहां न जाएं, हो ही नहीं सकता।
पापाजी जब पौने नौ के समाचार सुनते हैं तो सारे बच्चों को पता है कि अब बिलकुल भी नहीं बोलना। ज़रा कोई बोला नहीं कि ऐसी डांट पड़ेगी कि फ़िर रोटी खाए बिना सो जाने का मन होने लगेगा। पापाजी मारते हैं मगर न के बराबर। शायद साल में एक-दो बार, सिर्फ़ एक थप्पड़, पीछे गर्दन पर। थप्पड़ की ज़रुरत भी क्या है! वैसे ही जान निकली रहती है। एक बार तो भाई-बहिनों में से एक ने, दूसरे को यार बोल दिया था, पापाजी ने सुन लिया। ऐसी डांट लगाई कि बुरी तरह सहम गए सबके सब। लगा कि यार भी बहुत गंदी ग़ाली है, ठीक है, नहीं बोलेंगे अबसे।
बच्चे कुछ ऐसा मांग लें जो दिलाना पापाजी के लिए संभव न हो तो वे समझाते हैं कि लाल (बेटा/बच्चा) हमेशा अपने से नीचे लोगों को देखो। उन्हें देखो जिनके पास वो भी नहीं है जो तुम्हारे पास है। बच्चे चुप। वैसे तो बच्चे बोलते ही कभी-कभार हैं फ़िर पापाजी का अपना जीवन इतना सीघा-सादा है कि उनसें बोलें भी तो क्या बोलें! फ़िर ख़्याल भी तो कितना रखते हैं सबका। कोई बच्चा बीमार हो तो दिन में भी आते हैं दुकान छोड़कर। सरल तो आए दिन बीमार होता है। माताजी से दवाई नहीं लेता। माताजी से वैसे भी कोई ढंग से डरता नहीं है फ़िर सरल से दवाई खाई ही नहीं जाती। कोई एक दिन की बात हो तो भी बात है। जब देखो तब बीमारी। जब देखो तब मोटी-मोटी गोलियां, बड़े-बड़े कैपसूल-सबके सब कड़वे। हर बार पानी अंदर चला जाता है, गोली या तो बाहर आ जाती है या मुंह में ही कहीं चिपकी रह जाती है। इसलिए कई बार तो सिर्फ़ दवा खि़लाने के लिए दुकान छोड़कर घर आना पड़ता है पापाजी को। फ़िर सरल की नहीं चलती। पापाजी दोनों हाथ पकड़कर या पकडवाकर, चम्मच ज़बरदस्ती मुंह में घुसाकर, ऊंगली घुसाकर, कैसे न कैसे दवा खि़ला ही देते हैं। दवा खिलाने के वे बड़े पक्के हैं। कभी-कभी सुबह प्रोटीनेक्स या बोर्नविटा वाले दूघ के लिए भी ज़बरदस्ती करते हैं। मगर वो कभी-कभी की बात है। दवाई के मामले में पापाजी कोई समझौता मुश्क़िल से ही करते हैं। ख़ुद भी कई दवाईयां नियमित रुप से खाते हैं।
कई बार सुबह-सुबह जलेबी या तरबूज़ लेकर आते हैं और अपने हाथ से सबको देते हैं। वे कहते हैं कि तरबूज सुबह ही खाना चाहिए। वे ऐसी बातें बहुत बताते हैं। कभी कहते हैं कि खरबूज़े के ऊपर पानी नहीं पीते तो कभी कहते हैं कि रात को दही नहीं खाते। जब भी घर पर होते हैं ऐसा ही कुछ न कुछ बताते रहते हैं। क्या खाओ से ज़्यादा वे क्या न खाओ बताते रहते हैं। और बस दवाईयां और दवाईयां। कई बार वे रात को जब दूसरे सारे काम कर लेते हैं तो सरल के गले पर विक्स अपने हाथों से मलते हैं। सरल को उनका पास बैठना अच्छा लगता है पर बुरा यूं लगता है कि दवाईयां वे ज़्यादा ही घिस-घिसकर लगाते हैं। एक तो सरल की काया वैसे ही बहुत नाज़ुक है ऊपर से हर वक्त की बीमारियां। वह तंग आया रहता है फ़िर पापाजी के हाथ कभी-कभी ख़ुरदुरे से लगने लगते हैं, ख़ासकर जब वे ज़ोर-ज़ोर से दवा रगड़ते हैं। उसके गले में पहले ही भयानक दर्द है ऊपर से यह रगड़। यह दर्द घटा रही है कि बढ़ा रही है! मगर पापाजी के आगे वह वैसे ही बहुत कम बोलता है और विक्स वे कोई अपने लिए थोड़े ही लगा रहे हैं, उसीके भले के लिए लगा रहे हैं। दिन भर के थके हुए तो आते हैं फ़िर भी देर रात जागकर उसे विक्स लगा रहे हैं। वह क्या कहे ! चुपचाप पड़ा लगवाता रहता है। पापाजी सरल का बहुत ज़्यादा ध्यान रखते हैं।
‘ए पिंटू! कैंची रख दे! लग जाएगी हाथ में! पहले भी कितनी बार मना किया है! चल रख!’
सरल कांप जाता है।
‘ए पिंटू! खाट मत उठा! तुझसे नहीं उठेगी! चल छोड़ दे, मैं उठाता हूं।’
सरल घबरा जाता है।
सरल को कुछ-कुछ अच्छा तो लगता है कि पापई कितना ध्यान रखते हैं, पर अंदर कहीं शायद बुरा भी लगता है। कैंची उठाने में इतना ज़ोर से डांटने की क्या बात है! वे बात-बात में ऐसा क्यों कहते हैं कि तुझसे नहीं होगा! शायद वह अभी छोटा है, इसलिए कहते होंगे। वे उसका बुरा क्यों चाहेंगे? बुरा चाहने वाला आदमी क्या इतना ख़्याल रखता है!
दूसरे घरों में ‘नंदन’ या ‘चंदामामा’ जैसी पत्रिकाएं आतीं हैं जिनमें अकसर भूत-प्रेत या राजा-रानी की कहानियां होती हैं। मगर पापाजी ने उन्हें ‘पराग’, सरिता और ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाएं लगाके दी हैं। ‘पराग’ सरल को बहुत अच्छा लगता है। उसमें जैसे बिलकुल उसीके जैसे बच्चों की कहानियां होती हैं। कई कहानियां तो बच्चों की समस्याओं पर भी होतीं हैं। पापाजी को कौन बताता है इतनी अच्छी-अच्छी क़िताबों के बारे में! वे बोलते इतना कम हैं कि समझ में नहीं आता उनके दिल में क्या-क्या भरा है। एक बार रात को जब दुकान से आए तो बही-खातों वाले थैले में से एक पार्सल जैसा निकाला। फ़िर बड़े आराम से उसे खोला। वे किसी काम में जल्दी नहीं मचाते, हर काम धीमे-धीमे, करीने से करते हैं। पार्सल में से एक रंग-बिरंगी, चमचमाती हुई क़िताब निकल आई है। पापाजी सामने न बैठे होते तो बच्चे देखते ही लड़ने लगते कि ‘पहले मैं पढ़ूंगी’, ‘नहीं पहले मैं पढ़ूंगा’। क़िताब का नाम है ‘योगीराज’। दिल्ली प्रेस का प्रकाशन। पता नहीं पापाजी ने कब इसके बारे में पढ़ा होगा, कहां पढ़ा होगा, क्यों उन्हें लगा होगा कि यह बच्चों के लिए अच्छी रहेगी, कब, कैसे उन्होंने ऑर्डर दिया होगा! हमें क्या! हमें तो अब पहले क़िताब पढ़नी है, बाद में कुछ और करना है। यह कहानी है एक ढोंगी बंदर की जो कहीं एक आश्रम बना कर, छोटे-मोटे चमत्कार दिखाकर भक्तों को ठगता है। एक दिन जंगल के दूसरे जानवर प्लान बनाकर उसकी पोल खोल देते हैं और वह पकड़ा जाता है।
हम सब बच्चों को ऐसी क़िताबें ख़ूब भातीं हैं। सरल की तो यह ख़ास पसंद है। पापाई कई बार हमें यूंही सरप्राइज़ दे देते हैं।
(जारी)
05-09-2013
पहले तो सभी कमरों में बल्ब लगे थे जो पीली-पीली रोशनी देते थे। एक-एक करके पापाजी ने सभी कमरों में ट्यूबलाइट लगवा दीं हैं। ट्यूबलाइट, स्विच ऑन करते ही बल्ब की तरह तुरंत नहीं जलती ; पहले फ़ड़फ़ड़ाती है। ज़्यादा देर फ़ड़फ़ड़ाए तो डर लगता है, आज जलेगी कि नहीं, वोल्टेज पूरे आ रहे हैं कि नहीं ! जल जाती है तो कितना अच्छा लगता है। अब कुछ भी काम करो, करने में मन लगेगा, मज़ा आएगा।
पापाजी हंसते हैं तो घर रोशनी से भर जाता है। सब भाई-बहिनों के दिल में जैसे लट्टू जलने लगते हैं। पापाजी कितने अच्छे हैं ! शराब नहीं पीते! सिगरेट नहीं पीते! ग़ाली नहीं बकते! किसीसे लड़ते नहीं। सफ़ेद कमीज़ और सफ़ेद पाजामा। हंसते हैं तो पता चलता है कि दांत उनसे भी ज़्यादा सफ़ेद हैं। शरीर इकहरा है और पेट एकदम सपाट है। और हो भी क्यों नहीं। कितना तो पैदल चलते हैं पूरा दिन। सुबह पांच बजे उठते हैं। बही-खाता लिखते रहते हैं। फ़िर दूध लाना, सब्ज़ी लाना..........दुनिया-भरके काम......दुकान पर जाना, ज़रुरत हो तो दोपहर में फ़िर घर आना...फ़िर जाना....रात को आना...खाना खाना....पौने नौ बजे के समाचार सुनना...और फ़िर बही-खाता.....पापाजी बस मेहनत, मेहनत, मेहनत, काम, काम और काम करते रहते हैं...फ़िल्म देखने भी नहीं जाते कभी। हां, किसीके घर शादी हो..... कोई मर गया हो.... कैसा भी अवसर हो, पापाजी की ज़रा भी जान-पहचान रही हो और पापाजी वहां न जाएं, हो ही नहीं सकता।
पापाजी जब पौने नौ के समाचार सुनते हैं तो सारे बच्चों को पता है कि अब बिलकुल भी नहीं बोलना। ज़रा कोई बोला नहीं कि ऐसी डांट पड़ेगी कि फ़िर रोटी खाए बिना सो जाने का मन होने लगेगा। पापाजी मारते हैं मगर न के बराबर। शायद साल में एक-दो बार, सिर्फ़ एक थप्पड़, पीछे गर्दन पर। थप्पड़ की ज़रुरत भी क्या है! वैसे ही जान निकली रहती है। एक बार तो भाई-बहिनों में से एक ने, दूसरे को यार बोल दिया था, पापाजी ने सुन लिया। ऐसी डांट लगाई कि बुरी तरह सहम गए सबके सब। लगा कि यार भी बहुत गंदी ग़ाली है, ठीक है, नहीं बोलेंगे अबसे।
बच्चे कुछ ऐसा मांग लें जो दिलाना पापाजी के लिए संभव न हो तो वे समझाते हैं कि लाल (बेटा/बच्चा) हमेशा अपने से नीचे लोगों को देखो। उन्हें देखो जिनके पास वो भी नहीं है जो तुम्हारे पास है। बच्चे चुप। वैसे तो बच्चे बोलते ही कभी-कभार हैं फ़िर पापाजी का अपना जीवन इतना सीघा-सादा है कि उनसें बोलें भी तो क्या बोलें! फ़िर ख़्याल भी तो कितना रखते हैं सबका। कोई बच्चा बीमार हो तो दिन में भी आते हैं दुकान छोड़कर। सरल तो आए दिन बीमार होता है। माताजी से दवाई नहीं लेता। माताजी से वैसे भी कोई ढंग से डरता नहीं है फ़िर सरल से दवाई खाई ही नहीं जाती। कोई एक दिन की बात हो तो भी बात है। जब देखो तब बीमारी। जब देखो तब मोटी-मोटी गोलियां, बड़े-बड़े कैपसूल-सबके सब कड़वे। हर बार पानी अंदर चला जाता है, गोली या तो बाहर आ जाती है या मुंह में ही कहीं चिपकी रह जाती है। इसलिए कई बार तो सिर्फ़ दवा खि़लाने के लिए दुकान छोड़कर घर आना पड़ता है पापाजी को। फ़िर सरल की नहीं चलती। पापाजी दोनों हाथ पकड़कर या पकडवाकर, चम्मच ज़बरदस्ती मुंह में घुसाकर, ऊंगली घुसाकर, कैसे न कैसे दवा खि़ला ही देते हैं। दवा खिलाने के वे बड़े पक्के हैं। कभी-कभी सुबह प्रोटीनेक्स या बोर्नविटा वाले दूघ के लिए भी ज़बरदस्ती करते हैं। मगर वो कभी-कभी की बात है। दवाई के मामले में पापाजी कोई समझौता मुश्क़िल से ही करते हैं। ख़ुद भी कई दवाईयां नियमित रुप से खाते हैं।
कई बार सुबह-सुबह जलेबी या तरबूज़ लेकर आते हैं और अपने हाथ से सबको देते हैं। वे कहते हैं कि तरबूज सुबह ही खाना चाहिए। वे ऐसी बातें बहुत बताते हैं। कभी कहते हैं कि खरबूज़े के ऊपर पानी नहीं पीते तो कभी कहते हैं कि रात को दही नहीं खाते। जब भी घर पर होते हैं ऐसा ही कुछ न कुछ बताते रहते हैं। क्या खाओ से ज़्यादा वे क्या न खाओ बताते रहते हैं। और बस दवाईयां और दवाईयां। कई बार वे रात को जब दूसरे सारे काम कर लेते हैं तो सरल के गले पर विक्स अपने हाथों से मलते हैं। सरल को उनका पास बैठना अच्छा लगता है पर बुरा यूं लगता है कि दवाईयां वे ज़्यादा ही घिस-घिसकर लगाते हैं। एक तो सरल की काया वैसे ही बहुत नाज़ुक है ऊपर से हर वक्त की बीमारियां। वह तंग आया रहता है फ़िर पापाजी के हाथ कभी-कभी ख़ुरदुरे से लगने लगते हैं, ख़ासकर जब वे ज़ोर-ज़ोर से दवा रगड़ते हैं। उसके गले में पहले ही भयानक दर्द है ऊपर से यह रगड़। यह दर्द घटा रही है कि बढ़ा रही है! मगर पापाजी के आगे वह वैसे ही बहुत कम बोलता है और विक्स वे कोई अपने लिए थोड़े ही लगा रहे हैं, उसीके भले के लिए लगा रहे हैं। दिन भर के थके हुए तो आते हैं फ़िर भी देर रात जागकर उसे विक्स लगा रहे हैं। वह क्या कहे ! चुपचाप पड़ा लगवाता रहता है। पापाजी सरल का बहुत ज़्यादा ध्यान रखते हैं।
‘ए पिंटू! कैंची रख दे! लग जाएगी हाथ में! पहले भी कितनी बार मना किया है! चल रख!’
सरल कांप जाता है।
‘ए पिंटू! खाट मत उठा! तुझसे नहीं उठेगी! चल छोड़ दे, मैं उठाता हूं।’
सरल घबरा जाता है।
सरल को कुछ-कुछ अच्छा तो लगता है कि पापई कितना ध्यान रखते हैं, पर अंदर कहीं शायद बुरा भी लगता है। कैंची उठाने में इतना ज़ोर से डांटने की क्या बात है! वे बात-बात में ऐसा क्यों कहते हैं कि तुझसे नहीं होगा! शायद वह अभी छोटा है, इसलिए कहते होंगे। वे उसका बुरा क्यों चाहेंगे? बुरा चाहने वाला आदमी क्या इतना ख़्याल रखता है!
दूसरे घरों में ‘नंदन’ या ‘चंदामामा’ जैसी पत्रिकाएं आतीं हैं जिनमें अकसर भूत-प्रेत या राजा-रानी की कहानियां होती हैं। मगर पापाजी ने उन्हें ‘पराग’, सरिता और ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाएं लगाके दी हैं। ‘पराग’ सरल को बहुत अच्छा लगता है। उसमें जैसे बिलकुल उसीके जैसे बच्चों की कहानियां होती हैं। कई कहानियां तो बच्चों की समस्याओं पर भी होतीं हैं। पापाजी को कौन बताता है इतनी अच्छी-अच्छी क़िताबों के बारे में! वे बोलते इतना कम हैं कि समझ में नहीं आता उनके दिल में क्या-क्या भरा है। एक बार रात को जब दुकान से आए तो बही-खातों वाले थैले में से एक पार्सल जैसा निकाला। फ़िर बड़े आराम से उसे खोला। वे किसी काम में जल्दी नहीं मचाते, हर काम धीमे-धीमे, करीने से करते हैं। पार्सल में से एक रंग-बिरंगी, चमचमाती हुई क़िताब निकल आई है। पापाजी सामने न बैठे होते तो बच्चे देखते ही लड़ने लगते कि ‘पहले मैं पढ़ूंगी’, ‘नहीं पहले मैं पढ़ूंगा’। क़िताब का नाम है ‘योगीराज’। दिल्ली प्रेस का प्रकाशन। पता नहीं पापाजी ने कब इसके बारे में पढ़ा होगा, कहां पढ़ा होगा, क्यों उन्हें लगा होगा कि यह बच्चों के लिए अच्छी रहेगी, कब, कैसे उन्होंने ऑर्डर दिया होगा! हमें क्या! हमें तो अब पहले क़िताब पढ़नी है, बाद में कुछ और करना है। यह कहानी है एक ढोंगी बंदर की जो कहीं एक आश्रम बना कर, छोटे-मोटे चमत्कार दिखाकर भक्तों को ठगता है। एक दिन जंगल के दूसरे जानवर प्लान बनाकर उसकी पोल खोल देते हैं और वह पकड़ा जाता है।
हम सब बच्चों को ऐसी क़िताबें ख़ूब भातीं हैं। सरल की तो यह ख़ास पसंद है। पापाई कई बार हमें यूंही सरप्राइज़ दे देते हैं।
(जारी)
05-09-2013
अनुशासित घर का शब्दशः चित्रण
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