14 सित॰ 2013

काश! यह रात कभी ख़त्म न हो!


वह बिस्तर में पड़ा है, आंखें बंद हैं।

आंखें बंद कर लेने से क्या नींद आ जाती है ? रात किस वक्त आंख लगती है, कितना वक्त नींद आती है, कुछ समझ में नहीं आता। बस सुबह मन होता है कि सोया रहे, अभी तो नींद आनी शुरु ही हुई थी और......। यूं भी कोई चुस्ती-फुर्ती उसे अपने बदन में महसूस नहीं होती, फ़िर सुबह-सुबह तो बिलकुल ही थका-थका सा महसूस करता है ख़ुदको।

उठे भी तो किसलिए ?

जैसे-तैसे तैयार होकर स्कूल के लिए निकलेगा। सारे रास्ते आंखें नीची किए, सर झुकाए चलेगा। चलेगा कि घिसटेगा ! मौसम कैसा भी हो, हाथ-पांव पसीने से भरे रहेंगे। रास्ते में कहीं कोई कुत्ता दिख गया तो वह डरेगा, भौंक पड़ा तो बुरी तरह डर जाएगा। लड़कों का कोई झुण्ड दिख गया तो डरेगा, कहीं किसीसे नज़र न मिल जाए। पता नहीं कोई क्या कह दे, कोई ग़ाली न दे दे, कोई अजीब-सा इशारा न कर दे। स्कूल पहुंचेगा तो डरेगा कि कहीं कोई टीचर प्रेयर पढ़नेवाले तीन बच्चों में खड़ा न कर दे। कहीं अपनी क्लास की लाइन में आगे न खड़ा होना पड़ जाए। पीछे भी खड़ा है तो घबराया है कि कोई देख न ले कि वह प्रेयर नहीं बोल रहा है। बोलना तो दूर, उसके होंठ भी ठीक से नहीं हिल रहे।

फ़िर क्लास में!

किसी टीचर ने कुछ पूछ लिया तो ! उसे आता है कि नहीं आता, यह बड़ा सवाल नहीं है। मुश्क़िल यह है कि बोलेगा कैसे ? मुंह से आवाज़ निकलेगी कि अंदर ही कहीं फ़ंसी रह जाएगी !

आज तीसरा घंटा ख़ाली है। गणित वाले मास्साब नहीं आए हैं। सब बच्चे ख़ुश हैं। वे चिल्ला रहे हैं, कूद-फांद मचा रहे हैं। वह भी ख़ुश है। आज मास्साब का डर नहीं है। मगर अब एक नया डर उसके सामने है-बच्चों का डर।

ननुआ उसका हाथ मरोड़ेगा, वह कुछ भी नहीं कर पाएगा, बस कुनमुनाता रहेगा।

वह दादा टाइप लड़की आज फ़िर उसे धमकाकर उससे चॉक छीन लेगी। वह चुपचाप दे देगा।

हाफ़टैम (हाफ़टाइम/इंटरवल) में दूसरे बच्चों की तरह ही वह खाना खाने घर आएगा। और जब लौटकर वापिस जाएगा तो देखेगा, बस्ते में से उसका पैन ग़ायब है। आए दिन कोई उसका पैन चुरा लेता है, फ़िर भी आए दिन वह पैन बस्ते में ही छोड़कर खाना खाने चला जाता है।

स्कूल जाने के बाद पहले घंटे से आखि़री घंटे तक उसका एक-एक पल जैसे इसी इंतज़ार में बीतता है कि कब घंटा ख़त्म होगा, कब इंटरवल होगा, कब छुट्टी होगी।

छुट्टी होगी तो उसकी जान में ज़रा-सी जान आएगी।

खाना-वाना खाकर उसे नया पैन ख़रीदने भी जाना है। पैन के लिए मौक़ा देखकर माताजी या पापाजी के बक्से में से एक या दो रुपए, जो भी मिलें, निकाल लेने हैं। स्टोर में अकेले जाने में जान निकलती है। न जाने क्या-क्या सामान पड़ा है वहां। लाइट जलाई तो कोई देख लेगा। यूंही घुसा तो उसकी घबराहट अंधेरे को और घना कर देगी। पर पैसे तो निकालने हैं। बिना पैन के कल स्कूल कैसे जाएगा ?

पापाजी-माताजी को बताए क्या ? बताने से होगा क्या ? वे तो यही कहेंगे कि ‘होशियार बनते हैं ; ऐसे कैसे कोई पैन चुरा लेता है’। डांट भी सकते हैं कि ‘फ़लां लड़के को देख कितना तेज है, उससे कुछ सीख’। सरल के पास इन बातों का कोई जवाब नहीं है। यह उसे भी मालूम है कि होशियार होना चाहिए, तेज होना चाहिए। पर वह इसका क्या करे कि लाख सोचते रहने के बावजूद वह कोई कोशिश तक नहीं कर पाता!

वह डरता हुआ नमन की दुकान तक जाएगा, क्योंकि उसे मालूम है कि वहां भीड़ लगी होगी। सारे बच्चे और उनके मां-बाप कापी-पैन ख़रीदने वहीं आते हैं। वहां जाकर भीड़ के पीछे खड़ा हो जाएगा। फिर इंतज़ार करता रहेगा कि कब नमन की नज़र उसपर पड़ जाए और वह उससे पूछे कि हां, तुझे क्या चाहिए ? वह परेशान है कि आखि़र कब नमन की नज़र उसपर पड़ेगी और कब वह उससे पूछेगा! वह डर भी रहा है कि कहीं नमन की नज़र उसपर न पड़ जाए और वह उससे पूछ न ले! अगर पूछ लिया तो क्या वह तुरंत बता पाएगा कि उसे क्या चाहिए ? क्या उसकी आवाज़ नमन तक पहुंचेगी ? कहीं नमन उसकी हंसी तो नहीं उड़ाएगा कि तेरे मुंह में आवाज़ नहीं है? तू लड़की है क्या ?

वह डरा हुआ खड़ा है। एक डर उसे यह भी है कि कोई जान-पहचान वाला न यहां आ जाए और यह न देख ले कि वह डरा हुआ खड़ा है।

दिन इसी तरह निकलता है।

रात को बिस्तर में घुसता है तो आधी रात यही कामना करते बीतती है कि वक्त किसी तरह यहीं ठहर जाए। काश! यह रात कभी ख़त्म न हो!

(जारी)

14-09-2013

1 टिप्पणी:

रुके-रुके से क़दम....रुक के बार-बार चले...