क्या करे इन हाथों का ? काट डाले इन्हें ? फेंक आए कहीं जाकर ? या हरदम ढंक कर रखे कहीं ? छुपा दे ! या किसी खुरदुरी चीज़ पर तब तक रगड़ता रहे जब तक दूसरे लड़कों की तरह मर्दाने, खुरदुरे, सख्त या गंठीले ना हो जाएं। तनहाई के छोटे से छोटे वक्फ़े में भी ये हीन भावनाएं, ये अपराध-बोध सरल का पीछा नहीं छोड़ते। किसी से हाथ मिलाने से भी डरता है, बचता है सरल। बीच-बीच में सुनने को मिल जो जाता है- ‘अरे यार, तुम्हारे हाथ तो लड़कियों से भी ज़्यादा मुलायम हैं।’'अगर रात अंधेरे में तेरा चेहरा देखे बगैर कोई तुझसे हाथ मिलाए तो यही समझेगा किसी लड़की का हाथ पकड़ लिया है।'
तिस पर दुबला-पतला-पीला शरीर। शर्मीला स्वभाव। तरह-तरह के फोबिया। ज़रा कुछ खट्टा या तला हुआ खाले तो खांसी, ज़ुकाम, पेटदर्द । महीने में 15 दिन बिस्तर पर गुज़रते हैं। धैर्य नाम की चीज़ से सरल का कोई वास्ता है नहीं। लोग उसकी चुप्पी और अवसाद को ही उसका धैर्य समझ लेते हैं तो उसका क्या कसूर। अशांति का महासागर ठाठें मारता रहता है सरल की छोटी-सी खोपड़ी में। बिस्तर में रहता है तो तरह-तरह की अच्छी बुरी कल्पनाएं और फंतासियां भी साथ रहती ही हैं।
कैसी-कैसी कल्पनाएं हैं सरल की ! एक ऐसी पोशाक बनवाए जिसमें से उसकी तो एक उंगली तक न दिखे पर वह सबको समूचा देख सके। कोई ऐसी कार मिल जाए उसे कि वह तो अंदर से सबको देखले पर उसकी किसी को झलक तक न मिले।
एक तो पड़ा-पड़ा जासूसी उपन्यास पढा करता है ऊपर से जाने किसने दे दिए हैं उसे ये फोबियाओं के उपहार। कहां से क्यों आ गया यह जानलेवा अपराध-बोघ! भयानक असुरक्षा की भावना। इस तरह लोगों से छुपकर, डरकर, शरमा कर अंधेरे कमरों की ओट में कैसे काटेगा वह अपनी ज़िंदगी !
(जारी)
तिस पर दुबला-पतला-पीला शरीर। शर्मीला स्वभाव। तरह-तरह के फोबिया। ज़रा कुछ खट्टा या तला हुआ खाले तो खांसी, ज़ुकाम, पेटदर्द । महीने में 15 दिन बिस्तर पर गुज़रते हैं। धैर्य नाम की चीज़ से सरल का कोई वास्ता है नहीं। लोग उसकी चुप्पी और अवसाद को ही उसका धैर्य समझ लेते हैं तो उसका क्या कसूर। अशांति का महासागर ठाठें मारता रहता है सरल की छोटी-सी खोपड़ी में। बिस्तर में रहता है तो तरह-तरह की अच्छी बुरी कल्पनाएं और फंतासियां भी साथ रहती ही हैं।
कैसी-कैसी कल्पनाएं हैं सरल की ! एक ऐसी पोशाक बनवाए जिसमें से उसकी तो एक उंगली तक न दिखे पर वह सबको समूचा देख सके। कोई ऐसी कार मिल जाए उसे कि वह तो अंदर से सबको देखले पर उसकी किसी को झलक तक न मिले।
एक तो पड़ा-पड़ा जासूसी उपन्यास पढा करता है ऊपर से जाने किसने दे दिए हैं उसे ये फोबियाओं के उपहार। कहां से क्यों आ गया यह जानलेवा अपराध-बोघ! भयानक असुरक्षा की भावना। इस तरह लोगों से छुपकर, डरकर, शरमा कर अंधेरे कमरों की ओट में कैसे काटेगा वह अपनी ज़िंदगी !
(जारी)
लेखन के मार्फ़त नव सृजन के लिये बढ़ाई और शुभकामनाएँ!
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आलेख-"संगठित जनता की एकजुट ताकत
के आगे झुकना सत्ता की मजबूरी!"
का अंश.........."या तो हम अत्याचारियों के जुल्म और मनमानी को सहते रहें या समाज के सभी अच्छे, सच्चे, देशभक्त, ईमानदार और न्यायप्रिय-सरकारी कर्मचारी, अफसर तथा आम लोग एकजुट होकर एक-दूसरे की ढाल बन जायें।"
पूरा पढ़ने के लिए :-
http://baasvoice.blogspot.com/2010/11/blog-post_29.html
हा हा हा अमां संजय भाई ये तो गोया ये हुआ कि यहां भी हम पडोसी हो गए ..एकदम आसपास ..अरे अपनी फ़ोटो के पास देखिए
जवाब देंहटाएं@अजय कुमार झा,
जवाब देंहटाएंहा हा Wah Wah !
ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है...
जवाब देंहटाएं‘अरे यार, तुम्हारे हाथ तो लड़कियों से भी ज़्यादा मुलायम हैं।’'अगर रात अंधेरे में तेरा चेहरा देखे बगैर कोई तुझसे हाथ मिलाए तो यही समझेगा किसी लड़की का हाथ पकड़ लिया है।'
जवाब देंहटाएंsunder.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| आभार|
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