(पिछला भाग)
क्या लोग आधुनिक हो गए हैं ! ख़ासकर स्त्रियां !?
वह किसी काम से लाइन में लगा होता है और कई बार एक घटना घट जाती है। हवा में कोई ऐसी गंध अपनी जगह, थोड़ी देर के लिए ही सही, बना लेती है कि बड़े-बड़े सहनशील अपनी सहनशीलता भूलने लगते हैं। बोलता कोई कुछ नहीं हैं मगर किसीका हाथ अपनी नाक पर चला जाता है, कोई अपनी सांस रोक लेता है, कोई अपना चेहरा आसमान की तरफ़ कर लेता है........
कोई कितना भी छुपाए पर जो चीज़ इंसान बर्दाश्त नहीं कर पाता उसके प्रति नाराज़गी के, अरुचि के, चिढ़ के भाव उसके चेहरे पर, उसकी भाषा में, उसकी भाव-भंगिमाओं/बॉडी-लैंग्वेज में कहीं न कहीं प्रकट हो ही जाते हैं।
फ़िर यह कैसे होता है किसी शादी में, सगाई में, लेन-देन की अन्य अजीबो-ग़रीब रस्मों में मौजूद लोगों में से किसीको भी वहां चल रहे कारोबार पर कोई ऐतराज़ नहीं होता, उन्हें कुछ भी अजीब और कष्टप्रद नहीं लगता। वे घर से पूरे उत्साह के साथ हंसते-गाते इन समारोहों में जाते हैं, हंसते-गाते सारी गतिविधियों का हिस्सा बनते हैं, हंसते-गाते लौट आते हैं।
इतनी सारी औरतें वहां मौजूद होती हैं, वीडियो रिकॉर्डिंग चल रही होती है, वे सब मिलकर इस सबका बहिष्कार क्यों नहीं कर देतीं !? वीडियो रिकॉर्डिंग इस बात का पक्का सबूत होगी कि यहां क्या चल रहा था।
लौटकर इनमें से कुछ लोग सेमिनार में जाएंगे, स्टेटस लिखेंगे, लेख लिखेंगे, भाषण देंगे, फ़िल्म बनाएंगे यानि कि हर तरह से ख़ुदको प्रगतिशील और किन्हीं दूसरों को (जो इनकी ऑडिएंस/पाठकों में मौजूद नहीं है) कट्टरपंथी बताएंगे। इनमें स्त्री-पुरुष, यह धर्म, वह धर्म, फ़लां जाति, ढिकां जाति सब पाए जाते हैं, कोई कम पड़ता नहीं दिखता....
दरअस्ल लालच किसीमें भी हो सकता है-मर्द में भी, औरत में भी ; ब्लैक-मनी यानि हराम का पैसा लेने में हमारी विशेष रुचि रहती है; फ़िर भले वह दहेज़ से मिलता हो चाहे पुलों की सीमेंट में ज़्यादा से ज़्यादा रेत मिलाकर, चाहे खाने के सामानों में ज़हरीला रॉ-मॅटीरियल मिलाकर। ये सब चीज़ें मर्दों और औरतों की आंखों की वोल्टेज समान मात्रा में बढ़ा देतीं हैं। टीए/डीए बनाने से लेकर स्टेशनरी कब्ज़ाने और रॉयल्टी मारने से लेकर पब्लिशर का ‘दोस्त’ बनकर नये लोगों का शोषण करने में स्त्री और पुरुष में क्या-क्या भेद हैं, हो सकता है इसपर भी कोई सर्वे हो जाए।
जहां तक रीति-रिवाजों और लेन-देन की बात है, इसमें क़तई संदेह की गुंजाइश नहीं है कि स्त्रियां इसमें बराबर की भागीदार हैं।
हिस्सेदार कितनी हैं, यह तो वही जानते होंगे जो उनके साथ हिस्सा बांटते हैं।
सबसे ज़्यादा तक़लीफ़ तब होती है जब ऐसे लोग ख़ुदको प्रगतिशील और इस गंदगी में हिस्सा न बंटानेवालों को ऑर्थोडॉक्स या आउटडेटेड घोषित करने लगते हैं !!
ख़ुदके ही बस का कुछ नहीं है तो दूसरों पर दोष डालना तो छोड़ो! कुछ तो शर्म करो!
क्या इस तरह से कुछ ठीक हो सकता है ?
इससे तो यही समझ में आता है कि अंग्रेज न आए होते तो सतीप्रथा जारी रहती, क्योंकि हम तो दहेज भी ले-दे रहे हैं, ऐसी प्रथाओं में दांत फाड़-फाड़कर शामिल भी हो रहे हैं और साथ में प्रगतिशीलता और मुक्ति पर भाषण भी झाड़ रहे हैं।
24-09-2015
(जारी)
क्या लोग आधुनिक हो गए हैं ! ख़ासकर स्त्रियां !?
वह किसी काम से लाइन में लगा होता है और कई बार एक घटना घट जाती है। हवा में कोई ऐसी गंध अपनी जगह, थोड़ी देर के लिए ही सही, बना लेती है कि बड़े-बड़े सहनशील अपनी सहनशीलता भूलने लगते हैं। बोलता कोई कुछ नहीं हैं मगर किसीका हाथ अपनी नाक पर चला जाता है, कोई अपनी सांस रोक लेता है, कोई अपना चेहरा आसमान की तरफ़ कर लेता है........
कोई कितना भी छुपाए पर जो चीज़ इंसान बर्दाश्त नहीं कर पाता उसके प्रति नाराज़गी के, अरुचि के, चिढ़ के भाव उसके चेहरे पर, उसकी भाषा में, उसकी भाव-भंगिमाओं/बॉडी-लैंग्वेज में कहीं न कहीं प्रकट हो ही जाते हैं।
फ़िर यह कैसे होता है किसी शादी में, सगाई में, लेन-देन की अन्य अजीबो-ग़रीब रस्मों में मौजूद लोगों में से किसीको भी वहां चल रहे कारोबार पर कोई ऐतराज़ नहीं होता, उन्हें कुछ भी अजीब और कष्टप्रद नहीं लगता। वे घर से पूरे उत्साह के साथ हंसते-गाते इन समारोहों में जाते हैं, हंसते-गाते सारी गतिविधियों का हिस्सा बनते हैं, हंसते-गाते लौट आते हैं।
इतनी सारी औरतें वहां मौजूद होती हैं, वीडियो रिकॉर्डिंग चल रही होती है, वे सब मिलकर इस सबका बहिष्कार क्यों नहीं कर देतीं !? वीडियो रिकॉर्डिंग इस बात का पक्का सबूत होगी कि यहां क्या चल रहा था।
लौटकर इनमें से कुछ लोग सेमिनार में जाएंगे, स्टेटस लिखेंगे, लेख लिखेंगे, भाषण देंगे, फ़िल्म बनाएंगे यानि कि हर तरह से ख़ुदको प्रगतिशील और किन्हीं दूसरों को (जो इनकी ऑडिएंस/पाठकों में मौजूद नहीं है) कट्टरपंथी बताएंगे। इनमें स्त्री-पुरुष, यह धर्म, वह धर्म, फ़लां जाति, ढिकां जाति सब पाए जाते हैं, कोई कम पड़ता नहीं दिखता....
दरअस्ल लालच किसीमें भी हो सकता है-मर्द में भी, औरत में भी ; ब्लैक-मनी यानि हराम का पैसा लेने में हमारी विशेष रुचि रहती है; फ़िर भले वह दहेज़ से मिलता हो चाहे पुलों की सीमेंट में ज़्यादा से ज़्यादा रेत मिलाकर, चाहे खाने के सामानों में ज़हरीला रॉ-मॅटीरियल मिलाकर। ये सब चीज़ें मर्दों और औरतों की आंखों की वोल्टेज समान मात्रा में बढ़ा देतीं हैं। टीए/डीए बनाने से लेकर स्टेशनरी कब्ज़ाने और रॉयल्टी मारने से लेकर पब्लिशर का ‘दोस्त’ बनकर नये लोगों का शोषण करने में स्त्री और पुरुष में क्या-क्या भेद हैं, हो सकता है इसपर भी कोई सर्वे हो जाए।
जहां तक रीति-रिवाजों और लेन-देन की बात है, इसमें क़तई संदेह की गुंजाइश नहीं है कि स्त्रियां इसमें बराबर की भागीदार हैं।
हिस्सेदार कितनी हैं, यह तो वही जानते होंगे जो उनके साथ हिस्सा बांटते हैं।
सबसे ज़्यादा तक़लीफ़ तब होती है जब ऐसे लोग ख़ुदको प्रगतिशील और इस गंदगी में हिस्सा न बंटानेवालों को ऑर्थोडॉक्स या आउटडेटेड घोषित करने लगते हैं !!
ख़ुदके ही बस का कुछ नहीं है तो दूसरों पर दोष डालना तो छोड़ो! कुछ तो शर्म करो!
क्या इस तरह से कुछ ठीक हो सकता है ?
इससे तो यही समझ में आता है कि अंग्रेज न आए होते तो सतीप्रथा जारी रहती, क्योंकि हम तो दहेज भी ले-दे रहे हैं, ऐसी प्रथाओं में दांत फाड़-फाड़कर शामिल भी हो रहे हैं और साथ में प्रगतिशीलता और मुक्ति पर भाषण भी झाड़ रहे हैं।
24-09-2015
(जारी)
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रुके-रुके से क़दम....रुक के बार-बार चले...