15 जून 2014

मर्द की इज़्ज़त



इज़्ज़त के दुपट्टे की छांव के डर और लालच में औरत को क्या-क्या नुकसान सहने पड़े, इसपर बात चल निकली है, आगे भी जाएगी। मगर क्या ऐसा मानना ठीक होगा कि मर्दों को ऐसी किसी समस्या से कभी जूझना नहीं पड़ा!?

उसे याद आता है कि बस या ट्रेन में सफ़र करते वक़्त कभी खिड़की बंद करनी हो या खोलनी हो तो वह कभी कोशिश नहीं करता था। डर यही होता था कि पता नहीं उससे होगा कि नहीं होगा! अगर नहीं हुआ तो कोई क्या कहेगा, क्या सोचेगा, कैसा लड़का है, कैसा मर्द है, ज़रा खिड़की नहीं खुलती। अगर लड़की होता तो किसी दूसरे से कह सकता था कि ‘प्लीज़...ज़रा....’ मगर यहां तो यह ऑप्शन भी बंद है।

उसे न जाने कितनी घटनाएं याद आती हैं जब सुनने को मिलता था कि ‘देख, वह लड़की होकर कर लेती है और तुम लड़के होकर भी.......’

उस वक्त तो कोई जवाब उसे नहीं सूझता था, बस अपराधबोध और ग्लानि......जैसे कोई बड़ा अपराध हो गया हो उससे......ज़रा-ज़रा करके उसकी भी इज़्ज़त तार-तार, कई बार हुई। यह भी तो नहीं कह सकता था कि पतला हूं, दुबला हूं, शर्मीला हूं, कमज़ोर हूं तो मैं क्या करुं!? क्या मैंने अपनी मर्ज़ी से ख़ुदको ऐसा बनाया है ? यह कहेगा तो भी हंसी उड़ेगी, अपने शर्मीले और कमज़ोर होने पर वह ख़ुद ही मोहर लगा देगा। चिढ़ानेवाले और ज़्यादा चिढ़ाएंगे, रुलानेवाले और रुलाएंगे।

किसीको लेने जाना है, किसीको छोड़ने जाना है, किसीका ऐडमिशन कराना है.......वह क्या करे......उसे तो घबराने और शरमाने के सिवाय और कुछ आता नहीं...

देखो ज़रा दूसरे लड़कों को देखो, क्या भाग-भागकर फटाफट काम कर लाते हैं....

वह डूबकर मर जाए क्या ?

हीन-भावना बढ़ती जाती है मगर उसे यह भी लगता है कि उसके साथ कुछ ज़्यादती हो रही है।

समझ नहीं पाता। समझा नहीं पाता।

लक्षमण की क्या समस्या थी कि राखी सावंत ने ज़रा फटकारा और उसने ख़ुदकुशी कर ली?

इज़्ज़त के अलावा और क्या? उसकी सच्चाई सार्वजनिक रुप से सामने आई और ‘इज़्ज़त’ चली गई। वरना तो जैसे-तैसे चल ही रहा था।

अब तो क़रीब दसेक साल हो गए होंगे किसी रीति-रिवाज में शामिल हुए लेकिन पुरानी यादों में से कुछ बतातीं हैं कि लड़के भी कुछ कम डरे हुए नहीं होते थे अपने पहले संबंध को लेकर। इधर-उधर से ज्ञान मांगते फिरते थे कि कैसे पहली रात शानदार न सही, ठीक-ठाक तो गुज़र जाए।

न जाने यह कैसे हुआ कि किसीने मर्द को यह फ़लसफ़ा दे दिया कि तुम्हे ही, हर हाल में तुम्हे ही जीतना है, वरना ज़िंदगी बेकार है।

एक ऐसा संबंध, एक ऐसा खेल जिसमें एक प्रतिभागी ऐक्टिव है और एक पैसिव है......एक ऐसी दौड़ जिसमें एक दौड़ाक को दौड़ना है, दूसरे को लगभग दृष्टा बने रहना है, या आंखें ही मूंद लेनी हैं......ऐसी दौड़ तीन घंटे में ख़त्म हो या तीन मिनट में, थकेगा तो वही जो दौड़ रहा है, जो सिर्फ़ दृष्टा है वह हार भी कैसे सकता है?
इस संबंध और सच को अगर ठीक से समझा गया होता और पुरुष को फ़ालतू के अहंकारों में न जकड़ा गया होता तब भी क्या स्त्री-पुरुष संबंध इतने ही जटिल होते? क्या तब भी सभ्यता को बलात्कार जैसी समस्याओं का सामना इतनी ही मात्रा में करना पड़ता ? क्या तब भी प्रेम जैसे संबंध में शारीरिक हार-जीत के इतने बड़े मायने होते?

मर्द भी जगह-जगह अपनी इज़्ज़त तो नहीं बचाता फिर रहा ?

-संजय ग्रोवर
15-06-2014


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