जिस दिन पहली बार लगा कि शेव करने के बाद ज़्यादा आकर्षक लगता हूं उसी दिन से घिस-घिसकर दाढ़ी-मूंछ साफ़ करना शुरु कर दिया। दिल्ली आकर भी नयी मित्र-मंडली और दूसरे लोगों से जो परिचय बना, एक क्लीन-शेवन व्यक्ति का बना। कुछ साल व्यवसाय किया। अच्छे दिन थे। एक दुकानदार के रुप में इतना लोकप्रिय और सफ़ल होऊंगा, कल्पना भी न की थी। फ़िर कुछ हुआ कि दाढ़ी-मूंछ बढ़ने लगी। मन नहीं होता था बनाने का। मेरे लिए इसका ज़्यादा से ज़्यादा यही अर्थ था कि दाढ़ी-मूंछ की वजह से चेहरे का आकर्षण कुछ कम हो गया होगा। यह नहीं सोचा था कि लोग देखने आने लगेंगे और कहानियां तलाशने लगेंगे। संभवतः कुछ को चिंता रही होगी कि किसी परेशानी में तो नहीं है। मगर दो-चार ने ‘दाढ़ी क्यों बढ़ा ली’ इस भाव से पूछा जैसे मैंने अपनी नाक काट ली हो या घुटना जान-बूझकर बुलडोज़र के नीचे दे दिया हो। कुछेक ने इस नज़र से देखा कि मुझे लगा मैं चिड़ियाघर के पिंजरे में बंद कोई ऊदबिलाव हूं।
दाढ़ी-मूंछ हों या सर के बाल हों, मेरे लिए ये महज़ बाल हैं ठीक वैसे ही जैसे शरीर के कई दूसरे हिस्सों में उग आने वाले बाल हैं। या हाथ-पैरों में उगनेवाले नाख़ून हैं। फ़र्क़ यही है कि जो बाल और नाख़ून कपड़ों से बाहर दिखाई पड़ते हैं उन्हें व्यक्ति ज़्यादा स्वच्छ और आकर्षक रखने की कोशिश करता है। अगर कोई किसी मजबूरी के चलते यह सब न कर पाए तो भी कम-अज़-कम मैं तो उसे पागल, सनकी या किसी धर्मविशेष से जुड़ा करार नहीं दे देने वाला। कलको कोई नया धर्म या संप्रदाय, बगल के बालों को अपना प्रतीक बना ले तो उससे मेरा क्या लेना-देना है!? मैं क्यों अपने बगल के बालों को उस प्रतीक के अनुकूल या प्रतिकूल रुप देने लगूं!? व्यक्तिगत रुप से मैंने कभी भी अरतीकों-परतीकों को बहुत ज़्यादा महत्व नहीं दिया।
कई लोग अपने काले बालों को भी हरा-पीला कर लेते हैं। कुछ लोग अच्छे-भले बालों को मुंडाकर टकले हो जाते हैं। लड़कियां ही नहीं कई बार लड़के भी नाख़ून बढ़ाकर उन्हें सजाते-रंगते हैं। ये उनकी अपनी स्वतंत्रता या समस्या है, इसमें मुझे बिन बुलाए ही टांग क्यों घुसेड़नी चाहिए!? बाल और नाख़ून व्यक्ति की अपनी संपत्ति है। अपनी संपत्ति के साथ कोई जो चाहे करे, इसमें किसी दूसरे को या धर्म-संप्रदाय को भी ऊंगली करने का क्या हक़ है!?
मुश्क़िल तब और बढ़ जाती है जब लोग अपने कन्फ्यूजन्स और पूर्वाग्रहों को दूसरों पर लादने लगते हैं। अभी एक आंदोलन सभीने ऐसा देखा जो आंदोलन कम और झण्डों और टोपियों जैसे प्रतीकों का जोड़ ज़्यादा था। पहले ये लोग राष्ट्रीय प्रतीकों की महामहिमा बताकर हीरो बनते रहे। फ़िर यही लोग राष्ट्रीय प्रतीकों पर वार करके हीरो बनने लगे। ‘चित्त भी मेरी, पट भी मेरी, चारों ओर ही भरे पड़े हैं मेरे जैसे’ वाली बात हुई।
इसी तरह मैं कुछेक दफ़ा ऐसे लोगों से भी दो-चार हुआ हूं जो पहले तो किसी प्रतीक के न होने पर संबंधित व्यक्ति को अधार्मिक या असामान्य करार दे देते हैं। आगे चलकर वे किसी डर, किसी परिस्थिति, किसी प्रभाव के चलते ख़ुद ही ‘बदल’ जाते हैं और उस प्रतीक से मुक्ति पा लेते हैं। अब वे उस प्रतीक को धारण करने वाले पर बिना कारण जाने हंसना शुरु कर देते हैं। दरअसल ऐसे लोग बदले होते ही नहीं है। पहले अगर उन्हें कुछ बालों ने बतौर प्रतीक जकड़ रखा होता है तो बाद में बालों का न होना उनके लिए एक प्रतीक बन जाता है और उनके दिमाग़ को एक नए क़ैदखाने में धकेल देता है।
प्रतीकों से आदमी को आंकने की कोशिश कई दूसरे स्तरों पर भी ख़तरनाक या नुकसानदायक हो सकती है। इस आधार पर आंकेंगे तो शेखर कपूर और बिन लादेन को एक ही तराज़ू पर तौला जा सकता है। यानि लादेन अगर अपनी दाढ़ी ट्रिम करा लें तो ‘बैंडिट क्वीन’ जैसी फ़िल्म बना ले! या शेखर अपनी दाढ़ी खुल्ली छोड़ दे तो एक दिन धार्मिक कट्टरपंथी हो जाएंगे !? इसी क्रम में यह भी याद रखना चाहिए कि मुंबई हमले के दोषी दाढ़ी हटाकर वहां तक पहुंचे थे। कुछ दिन पहले नेपाल में एक आतंकवादी कथित हिंदू पहचान के साथ पकड़ा गया है।
तो हे ऊपर-नीचे के कथित ख़ुदाओ और भगवानों, मेरे बाल, बाल हैं और नाख़ून, नाख़ून हैं। तुम अपने बालों को जो समझना चाहो समझो, मगर मुझे और मेरे बालों को अपने हाल पर छोड़ दो।
-संजय ग्रोवर
(सरल का धन्यवाद कि अपने ब्लॉग पर लेख साझा करने दिया)
rochak....
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