28 दिस॰ 2010

सिर्फ़ पाले बदल जाएंगे

सरल बताता है कि उसे उस ऐपिसोड का काफ़ी बड़ा हिस्सा मिल गया है देखने को। राखी वहां ग़लत भी नहीं है। लेकिन वे जिस तरह ‘मर्द’, नामर्द’ और ‘नपुंसक’ जैसे शब्दों का प्रयोग करतीं हैं वह दिखाता है कि आधुनिक होती दिखती स्त्री अभी मर्द-मानसिकता बल्कि वर्चस्ववादी मानसिक अनुकूलन से बाहर नहीं निकल पायी है जहां हर तरह की बहादुरी के लिए एक ही शब्द का बार-बार प्रयोग होता है-मर्दानगी। और यह या ऐसे संबोधन औरत में उसके औरत होने को लेकर कमतरी का अहसास कराते हैं। राखी लक्षमण को कायर, डरपोक, अपराधी, घुन्ना या ऐसा ही कुछ और कह सकतीं थीं।
राखी को छोड़िए, सरल ने कई समझदार लोगों को यह कहते पाया कि ‘औरत का तो मैं बहुत सम्मान करता हूं।’
सरल को हैरानी होती है।
क्यों भई, बात-बेबात, बिना सोचे-समझे किसी भी औरत का सम्मान क्यों करने लग पड़ते हो आप !? फिर तो आप उस सास का भी सम्मान करोगे जिसने बहू को जला दिया !? आप उस सरगना औरत का भी सम्मान करोगे जो लड़कियां खरीदती-बेचती है, धंधे में उतारने से पहले उसे भूखा रखती है, गुर्गों से बलात्कार तक करवा डालती है।
सम्मान किसी का भी हो सकता है जिसमें अच्छाई हो, अलग से सिर्फ़ औरत का सम्मान क्यों ?
यह दरअसल बीमारी को ख़त्म करने की बजाय इधर से उधर शिफ्ट कर देने जैसा है।
कलको सारे चुटकले औरत की अतार्किक हंसी उड़ाते थे, अब मर्द की उड़ाने लगेंगे। आज तक जो ज़ुल्म मर्द कर रहा है, औरत करने लगेगी। कर भी रहीं हैं।
शोर उट्ठेगा कि नहीं-नहीं, औरत ऐसा कैसे कर सकती है, वह तो त्याग की मूर्ति है, करुणा की देवी है। औरत, मर्द से कहीं ज़्यादा संवेदनशील होती है।
यही, एक-दूसरे पर श्रेष्ठता के दावे धार्मिक और लैंगिक बीमारियों की जड़ है।
औरत की आंखों की जो बेचारगी हमें करुणा लगती है, ध्यान से देखें तो वही करुणा भूख से मरते किसान और इंसान होने के बोध से नावाकिफ़, गालियां खाते सफ़ाई कर्मचारी की आंखों में भी दिख जाएगी। आदमी जितना ज़्यादा मजबूर होता है उतना ज्यादा करुणाजनक लगता है। जैसे-जैसे समर्थ होता है, उसका असली स्वभाव बाहर आना शुरु होता है। सरल नहीं कहता कि मजबूर को समर्थ नहीं बनना चाहिए। लेकिन करुणा और संवेदना को औरत और मर्द में बांटने से ज़्यादा कुछ निकलने वाला लगता नहीं।
फिर तो ऐसे बेवकूफ़ी भरे आश्चर्यों से छुटकारा पाने की उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिए कि ‘हाय ! औरत ही औरत की दुश्मन कैसे हो गयी ?’
इंसान, इंसान से लड़ता है, मर्द, मर्द के खि़लाफ़ षडयंत्र करता है, कुत्ता, कुत्ते पर भौंकता है। इसमें हैरानी नहीं तो औरत से औरत की दुश्मनी पर इतनी हैरानी क्यों !?
कलको एक महिला सिपाही एक महिला जेबकतर को जेल ले जाती दिखेगी तो भी यही कहेंगे क्या कि हाय ! देखो मैं कहता था न औरत ही औरत की दुश्मन है’ !
सीधी बात कि एक इंसान ने ग़लती की और दूसरा इंसान जिसपर व्यवस्था का जिम्मा है, उसे पकड़कर ले जा रहा है।
काहे उलझा रहे हो चीज़ों को, भाई ?
पर हवा ? अंधी पक्षधरता ? उसका क्या करें ?
एक हवा पहले चलती थी कि औरतें तो सब मूर्ख होतीं हैं, उनकी अक़्ल घुटनों में होती है।
एक हवा अब चली है कि मर्द साले, सबके सब सुअर, मेल शॉविनिस्ट !
अरे पहले बीमार मानसिकता को ठीक से समझ तो लो, फिर उसे ख़त्म करने के उपाय सोचो, करो।
उसे उधर से इधर, इधर से उधर शिफ्ट मत करते चले जाओ। कुछ नहीं निकलेगा। सिर्फ़ पाले बदल जाएंगे।

-संजय ग्रोवर

23 टिप्‍पणियां:

  1. हां, सिर्फ़ पाले बदक जाएंगे मानसिकता नहीं।

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  2. जब एक लंबे समय से दबे वर्ग के पास थोड़े अधिकार आते हैं तो प्रतिक्रया करेगा ही.. यह एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक तथ्य है...
    आप दलित उत्पीडन को ले लें... अब जहाँ लोग पढ़े-लिखे और समझदार हो गए हैं वहाँ ऊँची जातिवालों को 'रिवर्स डिस्क्रिमिनेशन' का सामना करना पड़ता है.. 'ब्राह्मणवादी सोच' एक गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है.. और ये गाली उनलोगों को भी सुनने पड़ती है जिन्होंने कभी भेदभाव नहीं किया दलितों से.. यह एक उदाहरण था बस.. बाकी आप खुद समझ लें..

    और औरत ही औरत की दुश्मन है वाले डायलोग में आपने सन्दर्भ गलत ले लिया है.. एक महिला सिपाही को एक महिला जेबकतर को जेल ले जाते देखकर कोइ भी यह बात नहीं कहेगा..
    इस डायलोग का इस्तेमाल तब किया जाता है जब कोइ औरत किसी दूसरी औरत को वह प्रताडना देती है/ दुःख पहुंचाती है जो उसे खुद एक समय में औरत होने के नाते भुगतना पड़ा है.. जैसे कि बहु को मारना-पीटना आदि...

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  3. .....लेकिन यह क्रिया‘-प्रतिक्रिया का दौर कब तक चलेगा, सतीश जी !?
    .....और जिन्होंने कभी भेद-भाव नहीं किया वही तो सॉफ्ट टारगेट होते हैं हर पक्ष के लिए। जिन्होंने किया है वे तो खट से दूसरे पाले में जा बैठेंगे।
    यह मानसिकता बदले बिना कि पुरुष श्रेष्ठ होता है, या स्त्री करुणावान होती है, यानि कि दोनों से कोई एक जो है जो दूसरे पर भारी है, क्या समानता आ सकती है !?
    यही मैंने पुलिस और जेबकतर के उदाहरण में भी कहा कि यह स्त्री की स्त्री के प्रति दुश्मनी नहीं है मगर स्त्री का स्त्री का दुश्मन होना भी उतना ही स्वाभाविक है जितना कि मर्द का मर्द से छल करना। न तो खामख्वाह मर्द को महामानव बनाओ और न उसकी प्रतिक्रिया में औरत को महामानवी। स्त्री पर भयानक अत्याचार हुआ यह तथ्य है पर उसका इलाज स्त्री के झूठे महिमामंडन से नहीं होगा।
    मैंने हवा में बहने और अंधी पक्षधरता की बात की जिसकी वजह से निर्दोष चपेट में आ जाते हैं और बदलाव के नाम पर पहले की बीमारी दूसरे में जा घुसती है।

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  4. इस तरह से पहले कभी सोचा नहीं था। सोच में पड़ गयी हूं। किसी नतीजे पर पहुंची तो लिखूंगी।

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  5. बहुत सही बात कही है आपने...आप लिखते कमाल का हैं...

    नीरज

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  6. सब सही कहा आपने...केवल एक बात अपनी तरफ से जोड़ना चाहूंगी,कि राखी ने प्रसिद्धि पा ली है तो क्या इन जैसी स्त्रियों को हम ऐसी नहीं मानती कि इनसे बात भी की जाय,फिर इनकी राय पर गौर करना और सबसे बढ़कर इनकी बात पर जान देना...ऐसे पुरुषों पर भी सिर्फ दया की जा सकती है...

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  7. राखी या ऎसी ही ओर भी बहुत सी नारिया हे यह फ़िल्मो की हीरोईन की बात कर ले क्या यह सच मे आम नारी के समान हे? बिलकुल नही आम नारी इन सब से अलग हे, ओर मै इन्ही नारियो की इज्जत करता हूं, यह राखी यह हीरोईन इन्हे नारी कहना भी एक मजाक हे नारियो से, लोग कुछ भी कहे, मै इन्हे आधुनिक कतई नही समझता, आधुनिकता बेकार ओर बकवास करने से आती हे क्या, नंगा पन करने से आती हे?बाकी आप के लेख से सहमत हू जी,धन्यवाद

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  8. एक नजर इधर भी... आप भी शामिल हो सकते हे.
    http://blogparivaar.blogspot.com/

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  9. सीधी बात कि एक इंसान ने ग़लती की और दूसरा इंसान जिसपर व्यवस्था का जिम्मा है, उसे पकड़कर ले जा रहा है।

    bhut sahi kaha aapne:)

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  10. "लेकिन यह क्रिया‘-प्रतिक्रिया का दौर कब तक चलेगा, सतीश जी !?"
    -- जी, यह मैं कैसे बता सकता हूँ :)
    और आपने जो बातें अपने उत्तर में कहीं उनसे बिलकुल भी असहमति नहीं ..
    नववर्ष आपके और आपके सभी अपनों के लिए खुशियाँ और शान्ति लेकर आये ऐसी कामना है
    मैं नए वर्ष में कोई संकल्प नहीं लूंगा

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  11. वर्ष के अंत में इतने सुंदर सजग आलेख के लिए बधाई! आप की बातों से बिलकुल असहमति नहीं है।

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  12. आपने बिलकुल सही कहा है ...सिर्फ पाले बदल जायेंगे ...बाकि यथावत रहेगा ...शुक्रिया

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  13. आपको नव वर्ष 2010 की हार्दिक शुभकामनायें ...आशा है नव वर्ष आपके जीवन में नित नयी खुशियाँ लेकर आएगा ..शुक्रिया

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  14. -करुणा और संवेदना को औरत और मर्द में बांटने से ज़्यादा कुछ निकलने वाला लगता नहीं
    सरल की डायरी पढ़ते हुवे नए का अहसास होता है...कुछ बातें जो हम नज़रंदाज़ करदेते हैं समर्थन में उन मुद्दों को इस ब्लॉग पर देख कर ख़ुशी हुई...
    रंजना जी ने -(.केवल एक बात अपनी तरफ से जोड़ना चाहूंगी,कि राखी ने प्रसिद्धि पा ली है तो क्या इन जैसी स्त्रियों को हम ऐसी नहीं मानती कि इनसे बात भी की जाय,फिर इनकी राय पर गौर करना और सबसे बढ़कर इनकी बात पर जान देना...ऐसे पुरुषों पर भी सिर्फ दया की जा सकती है..)..
    यहाँ दया की बात की है माफ़ कीजिये....रखी को इतना कमजोर मत समझिये...आप हो सकता है उसे बात करने लायक ना समझे लेकिन आज की अधिकांश लड़कियां उसे फोलो कर रही हैं...ऐसे में मर्दों का उसकी बात पर खुद ख़ुशी करता है तो उसे नज़रंदाज़ करने की नहीं बल्किं सोचने की जरुरत है जैसा की सरल कर रहा है...राखी टीवी की बेटी है और आज टीवी ही देश और दुनिया के सारे बदलाव कर रही है...टीवी हर रोज नए एक नया कल्चर डेवलप कर रही है ऐसे में राखी nazarnadaz भर करने की चीज नहीं है...शुक्रिया...

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  15. bahut hi achha likha hai, yunhi likhte rahiye chintansheel lekh.

    shubhkamnayen

    Prritiy

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  16. मानसिकता बदलनी चाहिए । अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । "खबरों की दुनियाँ"

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  17. सार्थक रचना...
    नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...

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  18. बाज़ार में चहलकदमी करतीं नारियों को ध्यान में रख कर नारीवाद पर विश्लेषण ठीक नहीं...पर क्या करें...बाज़ार ही सबसे जादा बाज़ार के बाहर असली नारी पर हावी हो रहा है...इसलिए इक लम्बी 'क्रिया-प्रतिक्रिया' की जरूरत है...शेष आदरणीय आपने जो भी कहा 'कटु'
    -
    सपरिवार आपको नव वर्ष की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं.
    नव वर्ष २०११ और एक प्रार्थना

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  19. @Amit K Sagar
    यहां स्पष्ट करना ज़रुरी है कि यह किसी वाद पर या किसी के पक्ष या विपक्ष में विश्लेषण नहीं है। आदमी की फ़ितरत को समझने की कोशिश है। व्यक्ति अकसर अपने विवेक और तर्कबुद्धि से कम और भीड़, समाज, मान्यता या स्वीकृति के दवाब या बहाव में फैसले ज़्यादा करता है। एक निहायत आम और दैनिक उदाहरण देखिए कि दहेज लेना-देना क़ानूनन जुर्म है और यह भी माना जा रहा है कि नयी पीढ़ी की सोच अलग है। आप अकसर शादियों में जाते होंगे। वहां आपको कितने लोग मिलते हैं जिनकी आंखों में वहां चल रहे लेन-देन पर ग़ुस्सा, दुःख, डर, अपराध-बोध या शर्म दिखाई देते है। वहां नयी पीढ़ी से लेकर स्त्रियां, जज से लेकर वकील और सेना से लेकर मीडिया तक के लोग शामिल हो सकते हैं। लेकिन शायद ही किसीको ख़्याल भी आता हो कि यहां कुछ ग़लत या क़ानून-विरोधी हो रहा है। मैंने जीवन को और व्यक्ति को जैसा अनुभव किया उसके बाद मैं इंसान को आदमी-औरत, राष्टवादी-मार्क्सवादी, नारीवादी या नारीविरोधी, सरकार या जनता, बाज़ार या उपभोक्ता में बांटकर नहीं देख पाता। आखिर सरकार, बाज़ार या समाज क्या हैं? वहां भी तो सब व्यक्ति ही हैं। हो सकता हैं वहां ज़्यादातर हमारे भाई-बहिन, परिचित, रिश्तेदार और मित्र ही बैठे हों। समाज हो या बाज़ार, सब व्यक्तियों के जोड़ ही तो हैं। इतना ज़रुर है कि कुछ ज़्यादा चालाक व्यक्तियों ने उन्हें हथिया लिया हो। और ऐसा कहां संभव नहीं है? साहित्यिक, धार्मिक, शैक्षणिक- कौन-सी संस्था इससे मुक्त है? मुझे तो सीधी बात यही लगती है कि अच्छाई और बुराई का जितना प्रतिशत हमारे समाज (जो कि व्यक्तियों का समूह) है में होगा उतना ही पुलिस, मीडिया, सरकार, राजनीति, मर्द, औरत...हर जगह पाया जाएगा। किसी संस्था या वर्गविशेष को अलग से दोष देते रहना ज़्यादा विवेकपूर्ण नहीं लगता।
    समाज या भीड़ (जोकि संभवतः चालाक व्यक्तियों और उनके द्वारा दूसरे व्यक्तियों पर वर्चस्व का मिश्रण है) की स्वीकृति पाने के लिए व्यक्ति कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। ऐसे उदाहरण हो सकते हैं कि जब कोई न्यायप्रिय, विवेकशील व्यक्ति किसी भी ऐसे, किसी भी प्रकार के, अल्पसंख्यक या मुसीबतज़दा के साथ खड़ा हो जाता है जो हर तरह से अकेला पड़ गया है। मगर जैसे ही उस संकटग्रस्त को सामाजिक मान्यता मिलती है तो यह कोई बहुत हैरानीखेज़ बात नहीं होती कि वही व्यक्ति उसी भीड़ के साथ मिलकर अपने कलके मददगार को सताना शुरु कर देता है। वह उन बातों पर भी अपने मददगार का उपहास उड़ा सकता है जिनको उसके मददगार ने उसकी मुसीबत के वक्त गंभीरता से लिया था बल्कि इसी वजह से उसकी मदद की थी। और चालाक वर्चस्व किसीको थोड़ा-सा सम्मान, थोड़ी-सी स्वीकृति या कोई भी लॉलीपाप देकर कुछ भी करवा सकता है। सामाजिक मान्यताएं ऐसी हैं कि उसमें आपके अच्छा और ज़िम्मेदार आदमी होने के कुछ मानदंड तय हैं कि आपके पास कोई पद-पदवी हो, कोई नौकरी हो, कोई रुतबा हो। जैसे ही आप इस दौड़ में पड़ते हैं आपको कुछ समझौते करने पड़ते हैं और वर्चस्वशाली के तौर-तरीके अपनाने पड़ते हैं और जाने-अनजाने आप वैसे ही होना शुरु हो जाते हैं।
    बहरहाल इस वक्त जो कुछ भी दिमाग़ में आ रहा है, सब लिखता चला जाउं तो प्रति-टिप्पणी लंबी हो जाएगी। मेरा लब्बो-लुआब तो यही है कि व्यक्ति की फ़ितरत बदलने के उपाय सोचे बिना कुछ करने के शायद बहुत अपेक्षित परिणाम नहीं हो सकते। आपकी असहमतियों/विचारों का स्वागत है।

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  20. संजय जी, सचमुच बदलाव की जरूरत तो है। पर उसकी शुरूआत कहां से हो, यह कहना मुश्किल है।

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    मिल गया खुशियों का ठिकाना।
    वैज्ञानिक पद्धति किसे कहते हैं?

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  21. संजय जी.. मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं.. बदलाव की बेशक ज़रूरत है.. राखी के इन्हीं जज्बाती अल्फ़ाज़ ने तो एक शख्स को खुदकुशी करने पर मजबूर कर दिया.. हालांकि अभी तक इस पर बहस ही चल रही है. कि उसने अपनी जान क्यों दी थी.. लेकिन इस घटना ने मुझे तो झकझोर कर रख दिया था...

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रुके-रुके से क़दम....रुक के बार-बार चले...