13 जन॰ 2011

मोहे अगला जनम ना दीजो-2

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भला किसी को ग़ज़लें भी फ़ुल वॉल्यूम पर सुनते देखा है कभी !
सरल सुनता है कि पूरे मोहल्ले को सुनाता है !?
‘‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वे काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।’’

जगजीत सिंह की आवाज़ जैसे कोई डोर है। सरल उसपर चढ़ता है और पतंग बन जाता है। यूं मुक्त आकाश में लहराना कितना अच्छा लगता है सरल को।

25 का हुआ सरल। 30 का हुआ सरल। 35 का हुआ सरल।

मगर वही कमरा। वही बंद दरवाज़ा। वही ऊंची आवाज़ में ग़ज़लें। कभी जगजीत की जगह मेंहदी हसन ले लेते हैं तो कभी हरिहरन। कभी ग़ुलाम अली आ जाते हैं तो कभी हुसैन बंधु। कभी-कभार भूपेन हज़ारिका भी आते हैं। लता, रफ़ी, किशोर भी आते हैं...

’’कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.......’’

मगर जगजीत की आवाज़ में आवाज़ मिलाना इतना अच्छा क्यों लगता है सरल को !

‘‘ न दुनिया का डर था न रिश्तों के बंधन’’

और तेज़ ! और ऊंचा। बात-बेबात झेंपने, शरमाने, डरने और घबराने वाला सरल बंद कमरे में अपनी आवाज़ को एकदम खुला छोड़ देता है। कमरा एक स्टेज बन जाता है। अब उसमें और जगजीत सिंह में कोई फ़र्क नहीं। साथ-साथ बैठे कोरस गा रहे हों जैसे।
खुले में जितना छुपना पड़ता है, बंद में ख़ुदको उतना ही खोल देना चाहता है सरल।
‘‘मैं भी कुछ हंू, देखो कितनी कलाएं हैं मुझमें, सुनो...!’’
कैसी है ख़ुदको अभिव्यक्त करने की यह जानलेवा छटपटाहट !?

क्या बाहर कोई मुझे सुन रहा होगा !
‘‘मोहल्ले की सबसे पुरानी निशानी.......’’
एकाएक कुछ याद आ जाता है सरल को। कोई चीज़ है जो कचोट रही है भीतर से।
यह किसके बचपन के बारे में बात चल रही है आखि़र ! ऐसा क्या था जिसे लौटाने के लिए दुआएं, प्रार्थनाएं हो रही हैं ! गिड़गिड़ाया जा रहा है ! होगा यह जगजीत सिंह का बचपन। होगा यह तलत अजीज़ और सुदर्शन फ़ाकिर का बचपन। सरल क्यों इसके गुणगान में इस कदर लीन है ! सरल का बचपन तो नहीं यह। क्या सरल की भी इच्छा होती है अपने बचपन में लौटने की !
सिहर उठता है सरल। धुंधली यादों में मकड़ी के जालों से भरे कमरें हैं। अदृश्य दीमकें हैं जो भीतर-भीतर सारे बचपन को कुतर जाती थीं और बाहर किसी को पता भी नहीं चलता था। अपने ही लिजलिजे अस्तित्व की सीलन से भरे बिस्तर हैं। वे आक्रमणकारी छींकें हैं जो 50-50 की संख्या में एक साथ हमला करतीं थीं और सरल की कमर के साथ मनोबल को भी तोड़ देतीं थीं। और 5-10 घंटों के इंतेज़ार की यादें हैं कि अब बस अब मेहमान जाएंगे और सरल अपनी झेंप को पोंछता-छुपाता कमरे से बाहर निकलेगा। उम्मीद करेगा कि मां ख़ुदबख़ुद ही कुछ खाने को दे दे, उसे कोई याचक मुद्रा न बनानी पड़े। न मां पर हमलावर होना पड़े। फ़िलहाल तो मां से लड़ना ही उसके लिए मर्दानगी है। जिसके लिए सौ-पचास कोड़े अपने-आपको भी मारने होते हैं अंधेरे बंद कमरों में।
और क्या-क्या है सरल के बचपन में।

‘‘ ांडू आ गया। ांडू आ गया।’’
मोहल्ले के बच्चे सरल के पीछे-पीछे आ रहे हैं।
सरल के पैरों में पसीना है। चप्पलें उतर-उतर जाती हैं। क़दम-क़दम पर, गिर जाने के डर से शरीर कांप रहा है। ऊपर छतों पर खड़े लोग उस पर हंस रहे हैं, सरल को लगता है। सात घरों वाली यह गली पार करने में न जाने कितनी उम्र बीत जाएगी। ऊपर से ये बच्चे पीछे लगे हैं,
‘‘ ांडू है।’’ ं
‘‘ ांडू है।’’
कौन हैं ये बच्चे ! क्यों सरल के पीछे लगे हैं !? क्या कह रहे हैं सरल को !?
(जारी) 
संवादघर पर पूर्व-प्रकाशित

4 टिप्‍पणियां:

रुके-रुके से क़दम....रुक के बार-बार चले...