17 जून 2020

क्या आत्महत्या पलायन है ?

यह बात न मैं पहली बार सुन रहा न शायद आप सुन रहे होंगे कि
आत्महत्या पलायन है.

पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि यह जीवन हमने मर्ज़ी से नहीं चुना होता, हमें किन्हीं और लोगों ने अपनी ख़ुशी के लिए जन्माया होता है। जो जीवन हमने चुना ही नहीं, वह पसंद न आने पर हम उसे अपनी मर्ज़ी से छोड़ तो सकते ही हैं। अरे, कुछ तो अपनी मर्ज़ी से भी कर जाएं!

दूसरी बात, मुझे बिलकुल भी नहीं लगता कि आत्महत्या करना आसान है. मैं अपने संदर्भ में कहूं तो तक़रीबन तीस साल तक तो, आए दिन मुझे आत्महत्या के ख्याल आते थे लेकिन जैसे ही मैं आत्महत्या के तरीक़ों पर ग़ौर करना शुरु करता, मेरी हवा निकलना शुरु हो जाती. फ़िर मैं बहाने करने लगता कि जिसने सताया है जब तक उसका कुछ न करो तब तक क्यों मरना ? यह बात भी सच थी लेकिन आत्महत्या की सोच आने पर यह बहाने का काम करती.

तीसरी बात, जो लोग यह कहते हैं कि आत्महत्या कायरता है, कभी आपने उनका जीवन ग़ौर से देखा है ? क्या आप समझते हैं कि वे कोई बहुत बहादुरी का जीवन जी रहे हैं ? आत्महत्या कायरता है तो क्या ‘कास्टिंग काउच’ पवित्रता है ? क्या भीड़ के रीति-रिवाज और चाल-चलन अपना लेना बहादुरी है ? क्या झूठ बोल-बोलकर व्यापार जमा लेना बहुत बड़ा साहस है ? क्या, जो बड़ों ने और पड़ोसियों ने बताया उसे करने में बहुत दम लगता है ? जो परंपरा से चला आया वो करने में कोई दिमाग़ चाहिए ? जिसको लोग सफ़लता कहते हैं उसपर हमें संदेह भी हो तो भी भीड़ की और मान्यताओं की वजह से वही करते जाने के लिए कोई हिम्मत चाहिए ? क्या समाज को ऊंच-नीच और जातियों में बांटने के लिए किसी संवेदना की ज़रुरत है ? क्या अंदर से मर जाने और बाहर बस नाम के लिए ज़िंदा रहने के लिए बहुत कलेजा चाहिए ?

पहला पलायन तो यही है.

मैं किसी विशेष आत्महत्या के बारे में बात नहीं कर रहा.

-संजय ग्रोवर
17-06-2020   



22 दिस॰ 2019

समाज और न्याय की समझ

हमारे घर की बिजली अकसर ख़राब हो जाती थी।

कई बार तो एक-एक हफ़्ते ख़राब रहती थी।


जबकि पड़ोस के बाक़ी घरों की बिजली आ रही होती थी।


उसका कारण था। 


हमारे पिताजी के संबंध और आना-जाना वैसे तो बहुत लोगों से था मगर न तो किसी दबंग और बदमाश सेे संबंध रखते थे न ख़ुद बदमाशी करते थे और न किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्त्ता थे।


हां, जब दुकान से फ़ुरसत मिलती, तो वे बिजलीवालों से कुछ अनुनय-विनय करके, कुछ पैसे-वैसे देकर बिजली ठीक करवा लेते थे।


मैं इतना भी नहीं करता था।


कई लोग समझते थे कि मैं शरमीला, अव्यवहारिक और भौंदू क़िस्म का आदमी हूं।


और भीड़ और प्रचलित मान्यताओं के प्रभाव और दबाव में मैं भी ख़ुदको ऐसा ही समझ लेता था।


लेकिन सिर्फ़ यही बात नहीं थी।


असल में मैं भीतर से बहुत विद्रोही था और अपना काम करवाने के समाज के इन घटिया और गंदे तरीक़ों से बहुत नफ़रत करता था।

उस समय ज़्यादातर दबंग, बदमाश, रईस आदि एक ही पार्टी का समर्थन करते थे।


जैसे अब एक दूसरी पार्टी का करते हैं।